महिला सुरक्षा को लेकर कितने गंभीर हैं हम?

  • योगेश कुमार गोयल
    संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतारेस ने वर्तमान सदी को महिलाओं के लिए समानता सुनिश्चित करने वाली सदी बनाने का आग्रह किया था। उनका कहना था कि न्याय, समानता तथा मानवाधिकारों के लिए लड़ाई तब तक अधूरी है, जब तक महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव जारी है। महिलाओं के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने और उनके अधिकारों पर चर्चा करने के लिए प्रतिवर्ष आठ मार्च को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ मनाया जाता है। इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की थीम कोरोना काल में सेवाएं देने वाली महिलाओं और लड़कियों के योगदान को रेखांकित करने के लिए ‘महिला नेतृत्व: कोविड-19 की दुनिया में एक समान भविष्य को प्राप्त करना’ रखी गई है। हर साल पूरे उत्साह से दुनियाभर में यह दिवस मनाया जाता है, इस अवसर पर बड़े-बड़े सेमिनार, गोष्ठियां, कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं लेकिन 46 वर्षों से महिला दिवस प्रतिवर्ष मनाते रहने के बावजूद पूरी दुनिया में महिलाओं की स्थिति में वो सुधार नहीं आया है, जिसकी अपेक्षा की गई थी। समूची दुनिया में भले ही महिला प्रगति के लिए बड़े-बड़े दावे किए जाते हैें पर वास्तविकता यही है कि ऐसे लाख दावों के बावजूद उनके साथ अत्याचार के मामलों में कमी नहीं आ रही और उनकी स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है।
    प्रतिवर्ष महिला दिवस का आयोजन जिस उद्देश्य से किया जाता रहा है, उसके बावजूद जब महिलाओं के साथ लगातार सामने आती अपराधों की घटनाओं को देखते हैं तो सिर शर्म से झुक जाता है। महिलाओं के साथ आए दिन हो रही हैवानियत से हर कोई हैरान, परेशान और शर्मसार है। आए दिन देश के किसी न किसी हिस्से से बेटियों से होने वाली हैवानियत के सामने आते मामले दिल को झकझोरते रहते हैं। एक तरफ हम महिला सुरक्षा को लेकर कड़े कानूनों की दुहाई देते हैं, दूसरी ओर इन कानूनों के अस्तित्व में होने के बावजूद जब हर साल महिला अपराध के हजारों मामाले दर्ज होते हैं और ऐसे बहुत से मामलों में पुलिस-प्रशासन का रवैया भी उदासीन होता है तो ऐसे में समझना कठिन नहीं है कि महिला सुरक्षा को लेकर हम वास्तव में कितने गंभीर हैं। समूची मानवता को शर्मसार करने वाली ऐसी घटनाएं कई बार सिस्टम पर भी गंभीर सवाल खड़े करती हैं। बहुत से मामले तो ऐसे होते हैं, जिनकी चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर नहीं हो पाती और उनमें से अधिकांश मामले इसी का फायदा उठाकर दबा दिए जाते हैं तथा पीडि़ताएं और उनके परिवार भय के साये में घुट-घुटकर जीने को विवश होते हैं। निर्भया कांड के बाद वर्ष 2012 में देशभर में सड़कों पर महिलाओं के आत्मसम्मान के प्रति जिस तरह की जन-भावना और युवाओं का तीखा आक्रोश देखा गया था, तब लगने लगा था कि समाज में इससे संवदेनशीलता बढ़ेगी और ऐसे कृत्यों में लिप्त असामाजिक तत्वों के हौंसले पस्त होंगे लेकिन यह सामाजिक विडम्बना ही है कि समूचे तंत्र को झकझोर देने वाले निर्भया कांड के बाद भी हालात बदतर ही हुए हैं। ऐसी कोई भी वीभत्स घटना सामने के बाद हर बार एक ही सवाल खड़ा होता है कि आखिर भारतीय समाज में कब और कैसे मिलेगी महिलाओं को सुरक्षा? कब तक महिलाएं घर से बाहर कदम रखने के बाद इसी प्रकार भय के साये में जीने को विवश रहेंगी?
    कानून व्यवस्था और न्याय प्रणाली में ढ़ीलेपन का ही नतीजा है कि कुछ साल पहले निर्भया कांड के बाद पूरे देश का प्रचण्ड गुस्सा देखने के बाद भी समाज में महिलाओं के प्रति अपराधियों के हौंसले बुलंद नजर आते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं के प्रति अपराधों में वर्ष दर वर्ष बढ़ोतरी हो रही है। एनसीआरबी के अनुसार वर्ष 2015 में देश में महिला अपराध के 329243, वर्ष 2016 में 338954 तथा 2017 में 359849 मामले दर्ज किए गए। इनमें हत्या, दुष्कर्म, एसिड अटैक, क्रूरता तथा अपहरण के मामले शामिल हैं। वर्ष 2017 में देश में महिलाओं के साथ दुष्कर्म की 32559 तथा 2018 में 33356 घटनाएं दर्ज की गई। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में महिलाओं के प्रति अपराधों के मामलों में सजा की दर करीब 24 फीसदी ही रही। वर्ष 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 405861 मामले सामने आए थे, जिनमें प्रतिदिन औसतन 87 मामले बलात्कार के दर्ज किए गए। रिपोर्ट के अनुसार देशभर में वर्ष 2018 के मुकाबले 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में 7.3 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। चिंता की बात यह है कि महिला अपराधों के मामलों में साल दर साल स्थिति बदतर होती जा रही है और अपराधियों को सजा मिलने की दर बेहद कम है। यही कारण है कि अपराधियों के हौंसले बुलंद रहे हैं। ऐसे मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट की कार्रवाई भी कितनी ‘फास्ट’ है, यह पिछले कुछ वर्षों में हमने देखा ही है।
    महिला अपराधों के मामलों में अक्सर यही देखा जाता रहा है कि जब भी कोई बड़ा मामला सामने आता है तो हम पुलिस-प्रशासन को कोसने और संसद से लेकर सड़क तक कैंडल मार्च निकालने या अन्य किसी प्रकार से विरोध प्रदर्शन करने की रस्म अदायगी करके शांत हो जाते हैं। दोबारा तभी जागते हैं, जब वैसा ही कोई बड़ा मामला पुनः सुर्खियां बनता है। कहने को देशभर में महिलाओं की मदद के लिए हेल्पलाइन नंबर भी बनाए गए हैं किन्तु बहुत बार यह तथ्य भी सामने आए हैं कि इन हेल्पलाइन नंबरों पर फोन करने पर फोन रिसीव ही नहीं होता। महज कानून बना देने से ही महिलाओं के प्रति हो रहे अपराध थमने से रहे, जब तक उनका ईमानदारीपूर्वक कड़ाई से पालन न किया जाए। महिला अपराधों पर अंकुश के लिए समय की मांग यही है कि सरकारें मशीनरी को चुस्त-दुरूस्त बनाने के साथ-साथ प्रशासन की जवाबदेही सुनिश्चित करें।

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