जन-जागरण विविधा

आश्रम का स्थान कैसा हो?

ashramज्ञानेश्वरी से अनुवाद:
आश्रम का स्थान कैसा हो?
डॉ. मधुसूदन

यह ज्ञानेश्वरी की अनुवादित पंक्तियाँ है।

 ध्यान-साधना

ध्यान साधना के लिए, मठ या आश्रम का स्थान कैसा हो? इस विषय पर ज्ञानेश्वरी की १९ ओवियाँ मराठी से सरल हिन्दी में, अनुवादित की है। धीरे धीरे कविता प्रस्तुति की शैली में, पढने का अनुरोध है। जिस दृश्यका वर्णन किया जा रहा है, उसको मनःचक्षुओं के सामने लाकर पढें।
पंक्तियों के अंत पर बलाघात करते हुए पढें। इस प्रकार पढने पर आप मानसिकता से ऊपर उठ कर, ध्यान में आगे बढ पाएंगे।
ध्यान के पूर्व मन को स्तब्ध करने का प्रयास करना होता है। विचारों को थमाना होता है। इस लिए जितनी धीरे धीरे निम्न ओवियों का पठन आप करेंगे, उतने अधिक आप ध्यान में सफल होंगे।

ध्यान के लिए आप आँख जब बंद करते हैं, तो, बाहर के संसार से आप का अलिप्त होना प्रारंभ हो जाता है।आप यदि शांत कक्षमें जा बैठते हैं, तो आपका श्रवण (सुनना) बंद होता है।न आप बोल रहे हैं, न कुछ खा रहे हैं, न किसी हेतुसे आप कुछ छू रहे हैं। जब आप आंख बंद कर मन में पहुंच जाते हैं। तो विचार भी धीरे धीरे थम जाएंगे।पश्चात आप बुद्धि में पहुंचते हैं। और आगे आत्मा में। पाँच इंद्रियों से आप इस संसार से जुडे रहते है। संसार से संबंध तोडने से आप ध्यान में पहुंच जाते हैं। प्रस्तुत है–

–आश्रम का स्थान कैसा हो?

(१६३)
स्पष्ट  कहता हूँ,  पार्थ,
जो अनुभव से समझोगे।
ध्यान करने अच्छा-सा
स्थान अनिवार्य है॥
(१६४)
स्थान हो ऐसा, जहाँ,
जाते, मन रम जाए।
जो ध्यान पर बैठे तो,
उठना  भी ना चाहे॥

(१६४)
आस पास जो दौडाएँ,
दृष्टि कहीं, कितनी भी,
पर वासना जगे ना;
वैराग्य दुगना हो जाए॥
(१६५)
संतों ने बसाया हो,
पहुंचने पर हो संतोष।
अंतःकरण में धीरज,
आप ही उदय हो।
(१६६)
योग जहाँ अनायास,
सहज, रम्य अनुभव हो।
ऐसा ही अनुभव भी,
बिना खण्ड चलता हो॥
(१६७)
पाखण्डी पहुंचे,  वहाँ
आस्था अनुभव करे।
तपस्या हेतु वहीं,
जाकर ही  रुक जाये॥
(१६८)
कोई लंपट जहाँ
अकस्मात पहुंचे तो,
वापस आने का
मन उसका ना करे॥
(१६९)
जो रुकने आया न हो,
आकर ही रुक जाए।
घूमने आया जो,
दृश्य वहीं रोक ले।
(१७०)
विरक्ती ऐसी जगे
बिना प्रयास उत्तेजित,
राजा भी जहाँ, राज्य
त्यजने  सिद्ध हो जाए॥
(१७१)
ऐसा हो स्थान श्रेष्ठ,
हो अति पवित्र भी।
स्वयं ब्रह्मानन्द जहाँ
साक्षात प्रकट हो जाए॥
(१७२)
ध्यान रहे, पार्थ वहाँ
साधक ही रहते हो।
इस लोक की प्रसिद्धि की
चाह ना  रखते हो॥
(१७३)
वृक्ष हो मूल सहित ,
अमृत फल मीठे हो।
और घनी झाडी हो।
ध्यान रहे,  धनंजय॥
(१७४)
आस पास झरने हो,
-वर्षा ऋतु निर्मल हो।
विपुल जल, उतार हो,
पार्थ ऐसा स्थान हो॥
(१७५)
धूप दे, शीतलता ।
पवन मन्द मन्द हो।
झुल झुल स्वर पवन,
धीमें से बहता हो, ॥
(१७६)
स्थान हो, निःशब्द, शान्त।
न  जंगली जन्तु वास हो।
तोते, भँवरों का गुंजन
जहाँ चलता हो॥
(१७७)
बतखें,  कुछ हंस हो,
दो चार सारस  हो।
कभी कभी वहाँ पर;
कोयल की कूक हो॥
(१७८)
बीच बीच आकर
मोर भेंट देते हो।
ऐसा ही हराभरा,
तपस्या का  स्थान हो॥
(१७९)
अनिवार्य  ऐसा स्थान,
मठ हो छिपा जहाँ;
या हो कोई शिवाला
छिपा घनी झाडी में॥
(१८०)
जैसे भी पसंद हो,
चित्तको जो रूचे।
ढूंढ लो एकान्त स्थान।
फिर बैठो, ध्यान पर॥
(१८१)
खोजो ऐसा स्थान पार्थ ।
फिर मन को शांत करो ।
स्थिर हो जाए मन,
फिर आसन ध्यान करो॥

स्पष्ट  कहता हूँ,  पार्थ,
अनुभव से समझोगे,
ध्यान करने ऐसा
स्थान  अनिवार्य है।
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भगवत गीता के ७०० श्लोकों को विस्तार सहित समझाने में. ज्ञानेश्वरी में कुल ८८३० ओवियाँ लिखी गयी है। ओवी महाराष्ट्र के संतों ने प्रयोजा हुआ एक छंद है, जो  दोहे जैसा एक पदबंध होती है। ज्ञानेश्वर महाराज ने, गीता के एक एक अध्याय पर सैंकडों ओवियाँ रची हैं।  भगवद्गीता के ७०० श्लोकों को समझाने प्राकृत मराठी भाषा में आप ने ८८३० ओवियाँ लिखी है।
१९ ओवियाँ केवल ध्यान के लिए, मठ या आश्रम का अच्छा-सा  स्थान कैसा चुने, इसी  पर लिखी गयी है।
ध्यान-योग के अभ्यास हेतु या आश्रम या मठ के लिए  जो साधक वन-उपवन में स्थान ढूंढते हैं, उनके लिए यह मार्ग दर्शन भी है।

हम-आप के लिए फिर भी इसका उपयोग क्या?
कम से कम जाने तो सही कि हमारे पुरखों ने कितना गहरा काम कर के रखा है। दूसरा, हम यदि ध्यान करना चाहते हैं, तो उसका समय और स्थान ठीक चुन सकें।
सामान्यतः सबेरे ब्राह्म मुहूर्त में ध्यान करना सरल होता है।
यह गीता के छठवें आत्मसंयम योग  के एक श्लोक का विस्तार है।
ज्ञानेश्वर महाराज ऐतिहासिक व्यक्तित्व है। पौराणिक नहीं। और १४ की आयु में ज्ञानेश्वरी आपने ज्ञानेश्वरी की (८८३० ओवियाँ)लिखी थीं। २१-२२ वर्ष की आयु में आप ने समाधि लेकर इस लोक की यात्रा समाप्त की थी।