कैसे रूकें रेल पटरियों पर भीषण हादसे?

दो टूक अमृतसर रेल हादसे के गंभीर सबक कैसे रूकें रेल पटरियों पर भीषण हादसे? –

योगेश कुमार गोयल

अमृतसर रेलवे स्टेशन से करीब चार किलोमीटर दूर जोड़ा फाटक के पास दशहरा मेले में बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न मना रहे दर्जनों लोगों के साथ रेल की पटरियों पर जो वीभत्स हादसा हुआ, उससे हर देशवासी का हृदय कांप उठा और आंखें नम हो गई। पटाखों की गूंज और ढ़ोल-नगाड़ों का यह उत्सव पलभर में ही कैसे मौत के मातम में तब्दील हो गया, किसी को कुछ समझने का अवसर तक नहीं मिला। हालांकि इस दर्दनाक हादसे की मजिस्ट्रेट जांच के आदेश दिए जा चुके हैं किन्तु सरसरी तौर पर देखें तो साफ पता चलता है कि इस हादसे के लिए स्थानीय प्रशासन, रेल तंत्र, समारोह के आयोजक और आमजन हर कोई कहीं न कहीं जिम्मेदार है, अपनी जिम्मेदारी से कोई भी भाग नहीं सकता। न केवल अमृतसर में बल्कि उत्तर भारत में अनेक जगहों पर इसी तरह के आयोजन रेल की पटरियों के आसपास होते रहे हैं किन्तु प्रायः देखा जाता रहा है कि ऐसे समारोहों में सुरक्षा का कोई ध्यान नहीं रखा जाता और जब कभी अमृतसर जैसा कोई दिल दहलाने वाला भयावह हादसा सामने आता है तो भविष्य में ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति रोकने के प्रयासों पर चर्चा के बजाय राजनीतिक दलों द्वारा एक-दूसरे को कटघरे में खड़ा करने की शर्मनाक राजनीति शुरू हो जाती है। विभिन्न सांस्कृतिक आयोजनों या धार्मिक मेलों में भयावह हादसे होते रहे हैं किन्तु अभी तक यह देखने में नहीं आया कि ऐसे हादसों के लिए किसी की स्पष्ट जवाबदेही तय की गई हो और दोषियों को दण्डित किया गया हो। उल्टे ऐसे खौफनाक हादसों पर भी जब राजनीतिक रोटियां सेंकने की कवायद नजर आती है तो दुख होता यह देखकर कि हमारा राजनीतिक तंत्र कितना संवेदनहीन होता जा रहा है। अगर बात की जाए अमृतसर हादसे की तो अमृतसर में जोड़ा गेट के निकट अमृतसर और मानावाला के बीच लेवल क्रासिंग गेट पर जहां यह हादसा हुआ, वहां से करीब 60-70 मीटर की दूरी पर एक मैदान में पिछले कई वर्षों से इसी प्रकार दशहरे के दिन रावण दहन का कार्यक्रम आयोजित होता रहा है। हैरानी की बात यह रही कि मैदान के एक हिस्से में वीआईपी मेहमानों के लिए मंच बनाया गया था और उसी मंच के पीछे से उनके आने-जाने की व्यवस्था थी किन्तु आम लोगों के लिए मैदान में आने-जाने का सिर्फ एक ही रास्ता था। मैदान की क्षमता करीब ढ़ाई हजार लोगों के एकत्र होने की ही है लेकिन यहां करीब सात हजार लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई। रेलवे लाइन और मैदान को अलग करने वाली मैदान में ही एक दीवार है और बड़ी संख्या में लोग उस दीवार के साथ-साथ रेलवे ट्रैक पर भी मौजूद थे। आयोजकों ने रेल पटरी की ओर घुमाकर एक बड़ी एलईडी स्क्रीन लगाई थी और यह स्क्रीन लगने से दर्शकों के देखने के लिए पटरी ही सबसे उपयुक्त जगह थी। सामने से आ रही ट्रेन रूपी मौत से बेखबर रेलवे ट्रैक पर खड़े बहुत से लोग न केवल रावण दहन के वीडियो बना रहे थे बल्कि इनमें से कुछ इन्हीं पटरियों पर सेल्फी भी ले रहे थे। आश्चर्य की बात है कि ढ़ाई हजार क्षमता वाले मैदान में सात हजार की भीड़ जमा थी किन्तु भीड़ का प्रबंधन करने के लिए कोई इंतजाम नहीं थे। हर साल हो रहे दशहरा मेले में हजारों की भीड़ जुटने के बावजूद आयोजन स्थल से रेलवे ट्रैक की ओर तार फेंसिंग कराना जरूरी क्यों नहीं समझा गया? कहा जा रहा है कि आयोजकों ने प्रशासन से कोई अनुमति नहीं ली थी। ऐसे में गंभीर सवाल यह है कि अगर अनुमति नहीं थी कि आयोजक कैसे हर साल इसी जगह पर आयोजन कर रहे थे और इस बार भी बगैर प्रशासनिक अनुमति के हो रहे आयोजन में हजारों लोगों की भीड़ जुटने के बाद भी पुलिस-प्रशासन कहां सोया था? आयोजकों को भली-भांति यह मालूम था कि इसी ट्रैक से कई रेलगाडि़यां तीव्र गति से गुजरती हैं और लोगों की भीड़ इन्हीं ट्रैक पर जमा है, इसके बावजूद आयोजकों की ओर से ऐसे कोई प्रयास नहीं किए, जिससे लोगों को ट्रैक पर इकट्ठा होने से रोका जा सके बल्कि कुछ वीडियो सामने आए हैं, जिनसे स्पष्ट है कि लोगों की भीड़ के रेलवे ट्रैक पर इकट्ठा होने से आयोजक इतने उत्साहित थे कि मंच से बोलते हुए एक व्यक्ति तो मंच पर मौजूद मुख्य अतिथि नवजोत कौर सिद्धू को कह रहा था कि मैडम यहां देखिये, इन लोगों को रेल पटरियों की भी कोई चिंता नहीं है, भले ही 500 ट्रेन भी यहां से गुजर जाएं, फिर भी 5000 लोग इसी तरह आपके लिए खड़े रहेंगे। आश्चर्य की बात यह रही कि इसके बाद भी पंजाब सरकार के विवादास्पद मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की पत्नी नवजोत कौर ने संवेदनशीलता का परिचय देते हुए लोगों से रेलवे ट्रैक से हटने की अपील करना मुनासिब नहीं समझा बल्कि ट्रैक पर भयानक रेल हादसा होते ही वह वहां से नदारद हो गई। हैरानी यह देखकर भी होती है कि किस प्रकार अपनी पत्नी के गैर जिम्मेदाराना रूख पर पर्दा डालते हुए नवजोत सिंह सिद्धू इस भयानक रेल नरसंहार को प्राकृतिक आपदा साबित करते नजर आए जबकि यह आईने की तरह साफ है कि अगर थोड़ी सावधानी भी बरती गई होती तो इस दुर्भाग्यपूर्ण नरसंहार को टाला जा सकता है। हालांकि जहां तक रेल चालक की गलती की बात है तो रेलवे बोर्ड के चेयरमैन अश्वनी लोहानी का कहना है कि यदि चालक इमरजेंसी ब्रेक लगा देता तो इससे भी बड़ा हादसा हो सकता था क्योंकि डीएमयू ट्रेन को रोकने के लिए कम से कम 625 मीटर पहले ड्राइवर को यह जानकारी मिल जानी चाहिए कि आगे रेलवे ट्रैक पर लोग जमा हैं। ट्रेन की स्पीड जितनी ज्यादा होती है, उसे रोकने के लिए उतनी ही ज्यादा दूरी पर ब्रेक लगाना पड़ता है। उत्तरी रेलवे के चीफ पीआरओ दीपक कुमार के मुताबिक ऐसी घटनाओं को रोकना इसलिए मुश्किल होता है क्योंकि विजिबिलिटी कम होने से चालक के लिए परेशानी बढ़ती है क्योंकि शाम तथा रात के समय विजिबिलिटी और कम हो जाती है। वह कहते हैं कि चालक पर ट्रेन में बैठे हजारों यात्रियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी होती है अर्थात् यदि ट्रेन अधिक स्पीड में चल रही है तो अचानक ब्रेक लगाने से ट्रेन के डिरेल होने का खतरा रहता है और ऐसे में चालक को रेलवे ट्रैक की बनावट और यात्रियों की सुरक्षा को देखते हुए निर्णय लेना होता है। सवाल यह है कि अमृतसर हादसे के लिए जिम्मेदार कौन है? अधिकांश लोग उस ट्रेन के चालक को प्रमुख रूप से जिम्मेदार मान रहे हैं, जो ‘रावण एक्प्रेस’ बनकर महज पांच सैकेंड के भीतर इतने सारे लोगों को रौंदती हुई गुजर गई लेकिन देखा जाए तो हादसे के लिए ट्रेन चालक से बड़ी जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन, पुलिस, आयोजक, मंच पर वाहवाही लूट रहे अतिथियों और उन आम नागरिकों की भी बनती है, जो मस्ती के मूड में रेल ट्रैक पर कब्जा किए थे जबकि नियमानुसार रेल एक्ट के तहत रेलवे ट्रैक पर लोगों का आना अपराध है। अगर रेलवे की जिम्मेदारी की बात करें तो चूंकि रेल विभाग द्वारा ट्रैक के आसपास होने वाले आयोजनों को लेकर कभी कोई सख्ती नहीं बरती जाती, इसलिए ऐसे हादसों के लिए जिम्मेदारी रेल तंत्र भी कम नहीं है। देशभर में अनेक स्थानों पर रेल ट्रैक से 50 से 500 मीटर के दायरे में किसी न किसी प्रकार के उत्सवों, मेलों, सांस्कृतिक या धार्मिक कार्यक्रमों या खेलों का आयोजन हो रहा है लेकिन रेल तंत्र के साथ-साथ स्थानीय प्रशासन भी अमृतसर जैसे ही किसी दूसरे बड़े हादसे से बेखबर ऐसे आयोजनों पर मौन साधे रहे हैं। ऐसे कुछेक आयोजनों के लिए प्रशासन से अनुमति ली जाती है और रेलवे को सूचना दी जाती है अन्यथा अधिकांश जगहों पर ये आयोजन अमृतसर के दशहरा आयोजन की भांति ही होते रहते हैं। 19 अक्तूबर को दशहरा उत्सव के दौरान हुए दुर्भाग्यपूर्ण रेल हादसे के बाद देशभर में गमगीन माहौल है। साल दर साल ऐसे हादसे सामने आ रहे हैं किन्तु रेल पटरियों पर यह खूनी खेल बरसों से इसी प्रकार चला आ रहा है। 4 जून 2002 को उत्तर प्रदेश में कासगंज फाटक को पार करते समय एक यात्री बस की कानपुर-कासगंज एक्सप्रेस से टक्कर हुई थी और उस भयानक हादसे में 30 लोगों की मौत हो गई थी। 7 जुलाई 2011 को उत्तर प्रदेश के कांशीराम नगर जिले के थानागांव में मानव रहित फाटक पर एक बस के मथुरा-छपरा एक्सप्रेस से टकराने से 38 लोग काल का ग्रास बन गए थे। 19 अगस्त 2013 को बिहार के खगडि़या जिले के धमारा घाट में सहरसा-पटना राज्य रानी एक्प्रेस ने मेले के दौरान करीब 35 लोगों को पटरी पर रौंद दिया था। 23 जुलाई 2014 को मेढक जिले के मासीपेट गांव में एक मानव रहित फाटक पार करते समय नांदेड़ पैसेंजर ट्रेन से स्कूल बस की टक्कर में 18 लोगों की मौत हो गई थी। इसी साल 25 अप्रैल को उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में स्कूली बच्चों की एक बस की रेलवे क्रॉसिंग पर एक ट्रेन के साथ हुई टक्कर में 13 बच्चों की दर्दनाक मौत हो गई थी। रेल पटरियों पर होते ऐसे हादसों की बात करें तो जब भी ऐसे किसी हादसे में ज्यादा लोग मारे जाते हैं तो सवाल रेल तंत्र पर ही उठते हैं लेकिन इस बात की चर्चा नहीं होती कि आम लोग स्वयं कितने लापरवाह हैं, जो खुद जान जोखिम में डालकर बेधड़क रेल पटरियां पार करते हैं। कई स्थानों पर फुटओवर ब्रिज होने के बावजूद लोग उनका इस्तेमाल करने के बजाय रेल पटरियां पार कर दूसरी ओर जाते हैं। कुछ वर्ष पूर्व काकोदकर समिति की एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ था कि हमारे देश में हर साल 15 हजार से भी अधिक व्यक्ति पटरियां पार करते हुए रेलों से कटकर मर जाते हैं। संसद में दिए एक जवाब से यह खुलासा भी हुआ था कि 2009 से 2011 के बीच रेल पटरियों पर कुल 41474 लोग मारे गए थे और चिंता की बात यह है कि देशभर में तमाम रेल दुर्घटनाओं में भी इतनी मौतें नहीं होती, जितनी पटरियां पार करते समय रेलों से कटकर होती हैं। बहरहाल, अब जरूरत इस बात की है कि अमृतसर हादसे से सबक लेकर ऐसे उपाय किए जाएं, जिससे इस तरह के हादसों की पुनरावृत्ति न हो।

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