मैं भगतसिंह बोल रहा हूं, मैं नास्तिक क्यों हूं?

—विनय कुमार विनायक
मैं भगतसिंह बोल रहा हूं
मैं नास्तिक क्यों हूं?
मुझे नास्तिक कहनेवाले
तुम आस्तिक कितने हो?
किसी खास किस्म की लिबास पहने,
किसी खास दिशा के ईश में आस्था,
यदि आस्तिकता की परिभाषा है
तब तो मेरा नास्तिक है बसंती चोला!
मेरा ईश्वर मेरे अंदर, सबके अंदर
मेरा ईश्वर सभी दिशा में, सभी वेश में,
मंदिर, गुरुद्वारा, मस्जिद, गिरजाघर में,
धरती के जर्रा-जर्रा, हर कंकड़-पत्थर में,
माटी के जीते जागते मूरत में रब है!

मैं भगतसिंह बोल रहा हूं
मैं नास्तिक क्यों हूं?
किसी खास किस्म की भाषा में
किसी खास नाम के ईश्वर को
यदि पूजने नवाजने की प्रथा है
आस्तिकता तो मैं नास्तिक हूं
मेरी धरती मेरी मां, पिता आसमां,
आजादी का बंदा, मैं नानक परिंदा हूं
मैं गुरु गोविंद सिंह का बाज हूं ऐसा
कभी काशी के शिवालय के मुंडेर पर
कभी जलियांवाला बाग़ में मेरा बसेरा,
कभी कांधार के बामियानी बौद्ध मठ डेरा
मैं तक्षशिला का पढ़ा लिखा हरा सुवा हूं
कभी मस्जिद के गुंबद मीनार पर बैठा
काबा काशी रोम तक फैला मेरा व्योम
मेरी क्रांति में शांति का मसीहा बसता
मेरा सपना तुम्हें आजाद बनाना था
अपने भारत को स्वर्ण मंदिर बनाने का!
किन्तु तुम आज भी आजाद नहीं हो
धार्मिक मानसिक भाषाई गुलामी में जकड़े
अपने पर कुतरे अधमरे पड़े हो!

मैं भगतसिंह बोल रहा हूं
मैं नास्तिक क्यों हूं?
मैं नास्तिक हूं क्योंकि तुम छद्म आस्तिक हो!
तुम्हारी आस्था में मेरा ईश्वर नहीं है
तुम्हारी पूजा में मेरी मां की थाली नहीं है
तुम्हारा नमाज मेरे खुदा को आवाज नहीं देता है
तुम्हारे रंगों में धरती मां की चूनर धानी नहीं है
तुम्हारा चोला मेरे जैसा बसंती चोला नहीं है
तेरा साफा केसरिया गुरु गोविंद सा
बलिदानी जवांदानी देश धर्म की वाणी नहीं है
तेरी चादर बुद्ध, महावीर,
विवेकानंद सा गेरुआ त्याग की नहीं है
तुम पूरी तरह से सफेदपोश बन चुके हो
तुम्हारे रक्त का रंग एक सा लाल नही है
लाल में लाल,हरा,सफेद रंग घोल कर
बदरंग हो चुके हो!
तुम्हारा लाल झंडा किसान को नही
चीन को सलाम करता है
तुम्हारे हरे रंग में धरती की हरियाली नहीं है
तुम्हारे श्वेत रंग में सफेद कपोत की शांति नहीं है!

अस्तु मैं भगतसिंह बोल रहा हूं
मैं तुम्हारे जैसा छद्म आस्तिक नहीं,मैं नास्तिक हूं!
मैं गुरु नानक का परिंदा,
गुरु गोविंद सिंह का बाज, तक्षशिला का तोता
जलियांवाला बाग की आवाज हूं!

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