कविता

मुझे रास्ते का पता न था

चित्रा जोशी

उत्तरोड़ा, कपकोट

बागेश्वर, उत्तराखंड

मुझे रास्ते का पता न था।

मेरी माँ को मंजिल का पता न था।।

बहुत ख़ूबसूरत था जीवन का सफर।

जो आ गई मैं दुनिया में अगर।

सुनाए थे मां को कितने ही ताने।।

बदली थी सबकी खुशियां गम में।

मगर मां के लिए मैं लक्ष्मी थी।

उसके होंठों की एक ख़ुशी थी।।

बड़ी हो गई अनगिनत कांटों पर चलकर।

जब बाबा ने कहा ये तो पराए घर की है।।

शादी के बाद जब सास ने भी कहा था।

ये तो पराए घर से आई है।।

लिया दहेज मगर, ढ़ाए कितने ही जुल्म।

घर की लक्ष्मी है बेटियां।

मत बनो पाप के भागी।

दो घरों को संवारती है बेटियां।

दो घरों की शान है बेटियां।।

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