मैं कोई किताब नहीं

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मंजुल भटनागर
मैं कोई किताब नहीं ,
एक कविता भी नहीं ,
एक शब्द भी नहीं ,
मेरा कोई अक्स नहीं ,
कोई रूप नहीं ,
सिर्फ भाव् है ,
विचारों का एक पुलिंदा है ——-

विचार और भाव जब
फैलते हैं
दिगंत में
प्रकृति के हर बोसे में ,
मेरा अक्स फैल जाता है
चारो दिशा में
पूरब की सोंधी हवा के साथ——-
बहता है मेरा रूप

हर बोसे में घुला मिला
हर जीवन से मिला जुला
सूरज की आभा सा
बेमेल सपने दिखाता ,
खुद की दीवारों को ढहाता
और कभी
पावस की स्वाति का
मोती चुगता ——-

बादल की उंगली थामे ,
भ्रांतियों के घोंसले से निकल
बर्फ की रूहानियत ओढ़े
समेटे किसी ऋषि का वरदान
अभीशिपता
अहिल्या को छू भर कर
पा जाता उस
पारलोकिकता को

फिर शबदो का आँचल पकड
आस्था को साकार करने
सुनने और बाँचने
लगता है
तेरे मेरे सुख दुःख
मेरे तेरे सुख दुःख !!

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