कविता

मैं पर्यावरण

मैं पर्यावरण आज का
प्रदूषण की चादर में लिपट गया हूँ
मानव मन की लालसा में
असहाय अब कराह उठा हूँ !
शुद्धता था जो अधिकार मेरा
मलिनता उसमे ला दी है,
वाहनों की भीड़ भाड़ से
विषैला सा वातावरण हुआ,
औद्योगिकीकरण और शहरीकरण की
अंधी दौड़ में श्रृंगार मेरा लुट रहा है !
पेड़ों के निरंतर कटाव से
उजड़ रहे आशियाने जीवों के भी,
असम्भव है बिन वृक्षों के जीना,
भूल गया क्यूँ मानव ये भी,
आधार जीवन का जो रहे सर्वदा
मेरे इस आधार को कर निष्प्राण,
अब तक मेरा दोहन खूब हुआ !
यह तो मेरा है स्वभाव जो
प्राण वायु को उत्सर्जित कर,
जीने का सबको अधिकार दिया,
अन्यथा बीत गई सदियाँ कितनी ही
जीवन किसी ग्रह पर ढूँढ ना पाया,
शातिर मानव अब तक भी !
जिस धरती से मनुष्य ने
अन्न धन खूब प्राप्त किया,
उसी की छाती पर अवशेष जलाकर,
धुआं धुआं वातावरण किया !
बस इतना दोष मेरा था जो,
प्राण वायु देकर सृष्टि के आरंभ से ही
सभ्यताओं का पोषण किया,
लेकिन उसी भोलेपन को मेरे
कायरता ही समझ लिया गया !
भूल गया मानस ये भी कि
पराकाष्ठा हर बात की होती है,
गर स्वच्छ वायु देती जीवन है
तो विष घुलने पर वही फिर,
जानलेवा भी हो सकती है !

मुनीष भाटिया