यदि जिन्ना राष्‍ट्रवादी व सैकुलर हैं तो स्वयं जसवन्त सिंह क्या है?

jaswant-jinnahवर्तमान भारतीय लेखन और सिनेमा में एक बात तो सांझी लगती है: किसी पुस्तक या फिल्म पर जितना ही बड़ा विवाद खड़ा हो वह पुस्तक बाज़ार में गर्म पकौड़ों की तरह उतनी ही अधिक बिकती है और सिनेमा प्रेमी सिनेमा हाल में टिकटों की खिड़की तक तोड़ देते हैं। काला बाज़ार भी गर्म हो जाता है। यही कारण है कि कई बार समाचार आते हैं कि अमुक फिल्म निर्माता, सिने कलाकार ने अपनी फिल्म को लोकप्रिय बनाने के लिये स्वयं ही विवाद खड़ा कर दिया।

उधर हम पाश्‍चात्य लेखन से बहुत प्रभावित हैं जहां गड़े मुर्दे उखाड़ कर पुस्तक लिख कर रातों-रात पैसे बटोरना एक धन्धा सा बन गया है। इसी नई परम्परा को आगे बढ़ाते हुये हमारे कुछ लेखकों में भी होड़ सी लग गई है। पत्रकारिता का प्रथम गुरूमन्त्र है कि यदि एक कुत्ता किसी व्यक्ति को काटे तो यह कोई समाचार नहीं है पर यदि कोई व्यक्ति एक कुत्ते को ही काट ले तो यह एक बड़ा समाचार है। इसी प्रकार पुस्तक लेखन में भी अब एक ऐसी ही धारणा बनने लगी है कि कोई पुस्तक किसी महान् व्यकित की महानता और किसी दुश्ट की दुश्टता के बखान करने से नहीं बिकती। पुस्तक तब बिकती है जब किसी महान् व्यक्ति को दुष्‍ट और किसी दुष्‍ट को महान् साबित करने का प्रयास किया जाये। यह भी बिल्कुल उसी प्रकार का प्रयास है जैसे हमारे फिल्म निर्माता अपनी फिल्म में सैक्स, नग्नता, मार-धाड़ व हिंसा के दृश्‍य बड़ी शेखी से डाल देते हैं। उनका तर्क होता है कि यही तो बिकता है और इसलिये वह यही दिखाते हैं। इस प्रकार ‘मसाला’ फिल्में अधिक चलती हैं।

पुस्तक बिक्री केलिये भी मसाला आवश्‍यक अंग बन गया लगता है। 15-20 वर्ष पूर्व प्रकाशित अपनी जीवनी ”माई स्टोरी” में प्रख्यात लेखिका स्वर्गीय कमला दास ने स्वयं माना था कि प्रकाशक ने उन्हें कुछ मसाला भरने केलिये कहा और उन्होंने कर दिया क्योंकि उस समय उन्हें पैसे की आवश्‍यकता भी थी।

हमारी फिल्म नायिकायें नंगा होने से नहीं हिचकतीं और बिस्तर पर किसी के साथ भी अतरंग रंगरलियां मनाने के दृश्‍य देने से उन्हें कोई इतराज़ नहीं यदि उन्हें मोटी फीस मिले। इससे उनकी फिल्म चल जाती है और उनकी मांग भी बढ़ जाती है और उनका रेट भी।

अब ‘मसाला’ पुस्तकों का बाज़ार गर्म है। हमारे लेखक अपने स्वदेशी जननायकों को खलनायक और विदेशी खलनायकों को महान् जननायक प्रस्तुत करने में महारत हासिल कर रहे हैं। इस से उन्हें रातों-रात प्रसिध्दि मिलती है और धन छप्पर फाड़ कर बरसता है। उन्हें करना क्या होता है? केवल कुछ भाशण, कुछ लेखन और सन्दर्भ जुटाने होते हैं जो उनके पूर्वाग्रह से मेल खा जायें। बस हो गई पुस्तक तैयार। दूसरे पक्ष तथा दूसरी राय का उसमें कोई स्थान नहीं होता।

ये महान् लेखक मुनाफाखोरी, जमाखोरी और काला बाज़ार द्वारा तुरत लाभ कमाने को तो एक जुर्म मानते हैं पर किसी पवित्र आत्मा को हीन और दुष्‍ट को महान् चित्रित कर धन बटोरने का पुनीत कार्य कर अपने आप को धन्य मानते हैं।

इसका एक लाभ और भी है। ऐसा करने से वे उदार, विराट हृदय और धर्मनिरपेक्ष होने का तग़मा भी पहनने में सफल हो जाते हैं। आज आलम यह है कि यदि कोई लेखक बदनाम शासकों, तानाशाहों, राश्ट्रविरोधियों तथा औरंगज़ेब सरीखे अत्याचारी शासकों को नंगा करता है तो उसे सब नफरत की नज़र से देखते हैं। उसे एक निपट साम्प्रदायिक और हीन व्यक्ति की संज्ञा दे दी जाती है जो साम्प्रदायिकता का ज़हर फैला कर सामाजिक सहिश्णुता को समाप्त कर रहा है। उसके द्वारा प्रस्तुत ठोस सबूत व तथ्य तब उन्हें काल्पनिक लगते हैं।

पर यदि कोई लेखक किसी करूर मुस्लिम, ब्रिटिश या अन्य विदेशी शासक को दयालु, भारतीय जनता का हितैशी बताता है तो उसे एकदम सैकुलर, उदारवादी और महान् मान लिया जाता है। हमारे बहुत से लेखक मुग़ल बादशाह तथा अन्य ब्रिटिश शासकों को यह कह कर सैकुलर बताते फिरते हैं कि उन्होंने अपने मातहतों में हिन्दुओं को भी जगह दी थी। वह भूल जाते हैं कि कोई भी विदेषी आक्रमणकारी किसी भी देश में अपने पांव तब तक नहीं जमा सका जब तक कि वह किसी न किसी तरह स्थानीय लोगों का सहयोग प्राप्त न कर ले। यह सहयोग वह चाहे पैसे से खरीदे या किसी अन्य प्रलोभन से। यदि किसी शासक ने किसी हिन्दू महिला से षादी कर ली हो तब तो सोने पर सुहागा। तब ये लेखक यह बताने का प्रयास करते हैं कि अमुक विदेषी शासक किसी भी भारतीय राजा-महाराजा से किसी भी प्रकार कम न था।

कोई आश्‍चर्य नहीं यदि कल को कोई महान् लेखक अपने शोध के आधार पर यह धमाका कर दे कि जलियांवाला बाग़ अमृतसर में हज़ारों निर्दोष लोगों की निर्मम हत्या करने वाला जनरल डायर तो बहुत कोमल हृदय दयावान व्यक्ति था और यह घृणित नरसिंहार तो तथाकथित स्वयंभू स्वतन्त्रता सेनानियों की काली करतूत थी जो अपने स्वार्थ के लिये ब्रिटिष सरकार को बदनाम करना चाहते थे। इस देश में ऐसे महान् लेखकों की भी कमी नहीं है। बुकर प्राईज़ सम्मानित प्रख्यात भारतीय लेखिका अरून्धती राय संसद पर हमले के दोशी अफज़ल गुरू को तो पहले ही निर्दोष होने का फतवा सुना चुकी हैं जिसे उसके घृणित राष्‍ट्रविरोधी अपराध के लिये देष की उच्चतम अदालत मृत्यूदण्ड की सज़ा सुना चुकी है। चाहे गिने-चुने ही हों पर इस देश में ऐसे महानुभावों की कमी नहीं रही है जो अपने दम्भ के दम पर स्वयं को ठीक और बाकी सब को गलत मानते हैं।

लगभग यही कुछ भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता श्री जसवन्त सिंह ने अपनी नवीनतम पुस्तक ”जिन्ना: इण्डिया-पार्टीशन-इण्डिपैंडैन्स” में किया लगता है। पूर्वाग्रह से ग्रसित श्री जसवन्त सिंह ने जिन्ना के एक ही पहलू को उजागर किया है और दूसरी सच्चाई से आंख मून्द ली है। यदि जिन्ना सचमुच ही इतने महान् सैकुलर राष्‍ट्रभक्त थे, जैसा कि श्री जसवन्त सिंह बताते हैं, तो उन्होंने भारत को द्विराष्‍ट्र क्यों बताया और कहा कि हिन्दू और मुस्लिम दो अलग राष्‍ट्र हैं जो एक देश में इकट्ठे नहीं रह सकते? जिन्ना ने क्यों ज़ोर दिया कि केवल मुस्लिम बहुल क्षेत्र ही पाकिस्तान में डाले जायें? पाकिस्तान ने मुस्लिम बहुल काश्‍मीर को 1948 में अतिक्रमण के द्वारा ज़बरदस्ती हथियाने की असफल कोशिश की जबकि वह हिन्दु बहुल जम्मू और बौध्द बहुल लददाख को पाकिस्तान में मिलाना नहीं चाहता? जिन्हा क्यों मुस्लिम षासकों के अधीन हैदराबाद और जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाना चाहते थे हालांकि हैदराबाद के साथ पाकिस्तान की सीमा सांझी न थी और वहां से पाकिस्तान सैंकड़ों मील दूर था? इन प्रश्‍नों को श्री जसवन्त सिंह जानबूझ कर टाल गये क्योंकि ऐसा करने पर वह जिन्हा को महान्तम चित्रित न कर पाते। तब न उनकी पुस्तक ही बिकती और न ही वह पाकिस्तान में हीरो बनकर इतनी लोकप्रियता ही अर्जित कर पाते जो आज उन्हें मिल रही है।

वस्तुत: 11 अगस्त 1947 को पाकिस्तान संविधान सभा में जिन्हा के भाषण को व्यर्थ ही अधिक महत्व दिया जा रहा है। क्या जिन्हा चाहते हुये भी यह आदेश दे सकते थे कि सभी ग़ैरमुस्लिम पाकिस्तान छोड़ कर चले जायें? वह यह कहने का जोखिम नहीं उठा सकते थे क्योंकि पाकिस्तान तो तीन दिन बाद ही वजूद में आना था और ऐसा कहने पर अंग्रेज़ पाकिस्तान बनाने और भारत की आज़ादी की की प्रक्रिया को ही रोक सकते थे। वह जानते थे कि ऐसा कहने पर वह भारत में रह जाने वाले करोड़ों मुस्लिमों के लिये खतरा खड़ा हो जाता।

पाकिस्तान आज एक इस्लामिक गणतन्त्र है पर फिर भी आज तक कोई भी शासक अल्पसंख्यकों को देश छोड़ने के लिये नहीं कह पाया है और न ही यह कह सका है कि वह उनको सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकता। यह अलग बात है कि जहां 1947 में पाकिस्तान में 18 प्रतिशत हिन्दू वहां रह गये थे, आज मुश्किल से एक प्रतिशत भी नहीं बचे हैं।

श्री जसवन्त सिंह कहते है कि कांग्रेस व मुस्लिम लीग की राजनीति ने जिन्ना को इस प्रकार एक कोने में धकेल दिया था कि वह पाकिस्तान की मांग रखने पर मजबूर हो गये। श्री जसवन्त सिंह ने यह कह कर जिन्ना की तारीफ नहीं की है। उन्होंने तो जिन्ना को एक कमज़ोर-मजबूर इन्सान बना कर रख दिया जो चरित्र, सत्यनिष्‍ठा व आस्था की शक्ति से विहीन थे। प्रबल शक्तिशाली चरित्र व उच्च निष्‍ठावान व्यक्ति टूट तो सकता है पर झुक नहीं सकता। वह किसी भी सूरत में इतना मजबूर नहीं हो सकता कि वह अपने सिध्दान्तों व आस्थाओं का ही त्याग कर दे। केवल एक स्वार्थी व अवसरवादी व्यक्ति ही अपने सिध्दान्तों से समझौता कर सेकुलरिज्म का चोग़ा त्याग कर साम्प्रदायिकता का चोग़ा पहन सकता है। श्री जसवन्त सिंह ने जिन्ना के चरित्र को ऊंचा नहीं उठाया है बल्कि क़ायदे-आज़म को नीचा दिखा दिया है।

वस्तुत: जसवन्त सरीखे जिन्ना समर्थक जिन्ना की करनी की अनदेखी कर उनकी कथनी पर ज़ोर दे रहे हैं जबकि उनकी कथनी और करनी के बीच की बहुत चौड़ी-गहरी खाई को उन्होंने देखने का प्रयास ही नहीं किया।

पुस्तक लेखन कुछ राजनीतिज्ञों का शौक तो हो सकता है पर वह इतिहासकार नहीं हो सकते क्योंकि राजनीतिज्ञों की दृश्टि कभी वस्तुनिष्‍ठ व पूर्वाग्रह रहित नहीं हो सकती। राजनीतिज्ञ इतिहास का भाग तो हो सकते हैं पर स्वयं इतिहासकार नहीं बन सकते। तथ्य और मत में भेद होता है। राजनीतिज्ञ पर मत हावी रहता है और इतिहासकार तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकता। इतिहासकार का कोई स्वार्थ नहीं होता, उसके पास केवल तथ्य व सत्य की षक्ति होती है। इतिहास सत्य है, कल्पना नहीं। मत अभिव्यक्ति से इतिहास दूषित हो जाता है और उस पर से विश्‍वास उठने लगता है।

जनतन्त्र में व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तो अवश्‍य है पर जब वह अपनी मर्ज़ी से किसी राजनैतिक दल का सदस्य बनता है तो दल के अनुशासन का उसकी स्वतन्त्रता पर अंकुश अवश्‍य लग जाता है। इसलिये उसे अपनी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और दल के अनुशासन के बीच से किसी एक को तो चुनना ही पड़ेगा। वह दोनों के मज़े नहीं लूट सकता। श्री जसवन्त सिंह तो दावा करते हैं कि वह भाजपा के जन्म से ही पिछले तीस साल से जुड़े हुये है। तब तो उन्हें भलीभांति पता होना चाहिये था कि पार्टी का वैचारिक आधार क्या है और वह लौह पुरूष सरदार बल्लभभाई पटेल के बारे क्या धारणा रखती है। यदि यह उन्हें पता नहीं था तो भी यह उनकी ही गलती है और यदि उन्होंने उसके खिलाफ अपना मत व्यक्त किया है तो वह भी उनकी ही गलती है क्योंकि पार्टी में रह कर उन्हें अनुषासन की मर्यादा का पालन तो करना ही होगा।

इतिहासविद जसवन्त से सहमत नहीं

जब लोग श्री जसवन्त सिंह की पुस्तक को पढ़ें तो उन्हें साथ ही श्री अरूण शौरी की पुस्तक रिलीजन इन पालिटिक्स: फाउंडेशनज़ आफ पाकिस्तान का भी अध्ययन साथ ही कर लेना चाहिये जिस में उन्होंने जिन्ना के बारे बहुत कुछ तथ्य प्रस्तुत किये हैं।

राजनीतिज्ञ या अन्य चाहे कुछ कहें पर इतिहासविदों की श्री जसवन्त सिंह की पुस्तक पर अपनी राय कुछ सकारात्मक नहीं है।

श्री राम चन्द्र गुहा कहते हैं: इतिहास कोई गणित की पुस्तक नहीं है। जसवन्त सिंह ने एक अपना एक विचार रखा है। उनकी पुस्तक न तो ऐतिहासिक विद्वत्ता की ही कोई कृति है और न कोई साहित्य ही।

श्रीमती मृदुला मुखर्जी: जिन्ना के बारे जसवन्त सिंह का लिखा मसौदा इतिहास नहीं है। मेरा तात्पर्य है कि जिन्ना के विचारों और राजनीति में बदलाव को ध्यान में नहीं रखा गया है।

-अम्बा चरण वशिष्‍ठ

11 COMMENTS

  1. जिन्ना का सेक्यूलर होना या ना होना एक अंतहीन बहस है. इस बहस की शुरुआत जसवंत सिंह ने अपनी किताब को प्रसिद्धी दिलाने के लिए की थी लेकिन प्लान बैकफायर हो गया. बेहतर होगा कि हम इस मुद्दाहीन बहस को यहीं समाप्त कर दें…

  2. @Dr Durgaprasad Agrawal — As far as I know BJP believes in what ‘secularism’ should be understood in reality. It believes in Sarvdharm Sambhav.

    @Dharmnirpekshta has come to be known something against religion adharm. I bow in reverence before ‘secularism’ not for its honesty of purpose but for its hypocrisy that makes Jaswant Singh take a new avtar of a ‘secular’ after he sings praises of Jinnah. Tnat very Jaswant Singh who was earlier recognised as ‘communal’ as long as he was in BJP.

    shiamtripathi — I have not thrown mud at the writer. He has himself invited it by writing it. It is not the fault of the commentators but that of the writer himself if he expects that the readers will take anything right or wrong, true or false, written by him as the gospel of truth. Mr. Jaswant Singh has not clarified the questions I raised. I wish Mr shiamtripathi had done that. People would have appreciated it. If by partitioning his country India on communal lines Jinnah still remains a ‘nationalist’ and ‘secular’, I salute that kind of ‘nationalism’ and ‘secularism’.

  3. आप को गांधी की हत्या का जितना दर्द है, उससे कहीं ज्यादा दर्द गोडसे को उन करोड़ों हिंदूओं की दुर्दशा, हत्या, बलात्कार की चिंता थी, जिसकी कोई चिंता गांधी-नेहरु को नहीं थी. गांधी की आत्मकथा में उनके सेक्स जीवन की अपनी गाथा है.
    Who was responsible for the partition of India and the horror faced by trillions of Hindus, all over Pakistan? Without any homework Pakistan was created. There was no clear demarcation of the territory. British did population survey all over India but after the creation of Pakistan how many Hindus were butchered or fled to India?
    Nehru government did not publish the data and we know nothing about the exact refugees migrated from Pakistan or millions of those who were butchered. India kept more Muslims than in Pakistan to always use them as a vote bank for Nehru dynasty, why?? As a Hindu you have no pity for the millions who were brutally murdered, raped and tortured; were compelled to leave their native land? Who were responsible and was the main culprit for those human atrocities horrors and tragedy?
    In 1857 British crushed the revolution, ruled with iron fist and in 1947 they gave up without firing a shot? It’s because Britain was completely destroyed economically and more than fifty percent of its population were lost in WWII. British were not able to retain their colonies due to lack of resources and manpower. Netaji Subash Chandra Bose fought with handful of POWs and won the battle with the British army in Imphal. This gave a clear message to the Indian army, why they were fighting for the British and slowly Indian Army was on the verge of revolt.
    Twenty thousand marine soldiers’s disobeyed British command but Nehru-Gandhi urged British to compel them to surrender. British intelligence reported that the massive Indian Army which was well equipped and prepared for WWII were no longer loyal to the British command, that’s why British left India honorably. Granting Swaraj not full freedom in 1947.
    If you have guts produce the accord signed between Indian National Congress and the British in which you have promised that Indians will always be loyal to the British crown and its people; Netaji Subash Chandra Bose was declared a traitor and “will be handed over to the British government when ever and where ever he be arrested”. Please convince UPA government to publish all the historical documents about Swaraj. If you cannot publish historical documents, rather sing your tune, it will further prove that you are quite cunning in fabricating the history!

  4. यदि जिन्ना राष्‍ट्रवादी व सैकुलर हैं तो स्वयं जसवन्त सिंह क्या है? …. और् हम् क्या है ??

  5. जसवंत सिंह क्या है क्या नहीं इस बात चर्चा क्यों करे लेकिन सत्य यह है भाजपा अगर बबाल न मचाती तो जिन्ना कुछ ही किताबो को बिकवा पाते . शायद जसवंत सिंह की सेवाओ का परितोशक तो नहीं किताब की निंदा करना ताकि बिक्री बढ़ जाए

  6. A book is life life blood of human mind. Read , chew and digest it. Don’t throw mud on the writer. If you know better then write another book to justify your views. It is too soon to draw conclusion . Let it go in different hands then truth will come out. For judging of poets is the faculty of poets and for judging the book of politics is the business of politicians only. Don’t hurt a writer. To kill a book is to kill that writer. S.Tripathi , Editor Hindi Chetna

  7. इन बातों की चर्चा होनी चाहिए। जिन्ना अपनी राजनीतिक जीवन की शुरुआत में गैर-मजहबी थे, और उन्होंने राजनीति से संन्यास तक ले लिया था और लंदन में वकालत की प्रैक्टिस सेट करने में लग गए थे। फिर छह साल के राजनीतिक संन्यास के बाद वे भार लौट आए और उनका नया रूप दिखाई देने लगा।

    जहां तक मैं समझ सका हूं, इसका मुख्य कारण भारत के भावी स्वरूप को लेकर उनमें और नेहरू-पटेल के विचार में जो भेद था, वह है। जिन्ना कमजोर केंद्र वाला, राज्यों का संघ चाहते थे, नेहरू-पटेल अधिककेंद्रीकृत यूरोपीय शैली का राष्ट्र।

    जिन्ना और नेहरू-गांधी के बीच वैयक्तिक द्वेष और घृणा भी प्रबल थी। गांधी जी राजनीति से धर्म को अलग रखने में विश्वास नहीं करते थे, जो जिन्ना जैसे गैर-मजहबी व्यक्ति को अखरता है। वे इसका यह अर्थ लगाते थे कि गांधीजी हिंदुओं के प्रति पक्षपात करते हैं। गांधी जी द्वारा नेहरू को आगे बढ़ाना भी जिन्ना को पसंद नहीं था।

    इन सबके पीछे अंग्रेज अपनी बांटो और राज करो की राजनीति भी खेल रहे थे, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनके भारत से चले जाने के बाद भारत ऐसा सुदृढ़ देश बने जो उन्हें आगे चलकर चुनौती दे। इसलिए उन्होंने भारत को बांटकर छोड़ा। यही राजनीति उन्होंने फिलिस्तीन, आदि में भी खेली और वहां सब भी आज भी खून-खराबे की स्थिति बनी हुई है, जैसे भारत-पाकिस्तान के बीच में।

    हमारे नेता उनकी चाल को भांप नहीं सके, और उसकी काट नहीं निकाल सके।

    तो विभाजन एक व्यर्थ का झगड़ा था, जिससे किसी का भला नहीं हुआ (अंग्रेजों को छोड़कर)।

    नए भारत की अनेक समस्याओं की जड़ विभाजन में है, जैसे, आतंकवाद, कश्मीर, विदेशी ताकतों का यहां हस्तक्षेप करना, तीनों देशों में सांप्रदायिक ताकतों का बलवती होना, इत्यादि।

    नए भारत के (और पाकिस्तान और बंग्लादेश के भी) युवकों और चिंतकों को विभाजन के इस विषैले वातावरण को पीछे ढकेलने के तरीके ढूंढ़ने होंगे।

    एक ही तरीका है, भारतीय उपमहाद्वीप के सभी लोगों को चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, सिक्ख हों या ईसाई, गरीब हो या अमीर समान अधिकार और सम्मान देना और उनकी असली शत्रुओं से – गरीबी, बेरोजगारी, कुपोषण, अशिक्षा, आदि – लड़ना।

    हमें इन सब बातों को समझनेवाले नए भगत सिंह, गांधी, नेहरू, जिन्ना, पटेल, राजाजी आदि की जरूरत है। क्या आज का युवावर्ग इन्हें पैदा करने की चुनौती स्वीकार करेगा?

  8. मेरी तो एक और जिज्ञासा है.
    भाजपा धर्म निरपेक्षता को अच्छा मानती है या बुरा?
    जहां तक मेरी जानकारी है, उसे धर्म निरपेक्षता पसंद नहीं है.
    ऐसे में अगर बेचारे जसवंत सिंह ने जिन्ना को धर्म निरपेक्ष बता दिया तो उन्हें भाजपा से निकालने की नौबत क्यों आन पड़ी? भाजपा के सोच से तो वे जिन्ना को ग़लत ही ठहरा रहे हैं ना?

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