विविधा

बादशाह खुश होगा तो ईनाम तो देगा ही

-डॉ. कुलदीप चन्‍द अग्निहोत्री

रामजन्मभूमि पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय आ जाने के उपरान्त देश ने शन्ति की सांस ली लेकिन मार्क्सवादी प्राध्यापकों और अलीगढ़ स्कूल के प्राध्यापकों ,जिन्होंने पिछले कुछ अर्सें से अपने आपको स्वयं ही ख्यातिप्राप्त इतिहासकार लिखना शुरु कर दिया है , के खेमे में जबरदस्त खलबली मच गयी है। मार्क्सवादियों और मुस्लिम साम्प्रदायिकता में दोस्ती का इतिहास भारत में पुराना है। द्वितीय विश्वयुध्द के दौरान मुस्लिम साम्प्रदायिक शक्तियां और मार्क्सवादी एकजुट होकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का विरोध कर रहे थे, और ब्रिटिश शासन के समर्थन में नुक्कड़ नाटक करने में मशगूल थे। अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से जब द्विराष्ट्रवाद की बात उठी और उसे मुहम्मद इकबाल ने आगे बढ़ाया, तो मार्क्सवादी तुरंत उनके पक्ष में जा खड़े हुए और पाकिस्तान के निर्माण का समर्थन करने लगे। भारत में मार्क्सवादी इतिहासकारों की अपने जन्म से ही एक दिक्कत है। मार्क्सी शब्दावली का प्रयोग करते हुए उन्हें इस देश के इतिहास में प्रतिक्रियावादी ताकतों की पड़ताल करनी है। अब भारत का इतिहास और उसकी अस्मिता हिंदू इतिहास ही है अतः मार्क्सवादियों ने हिंदू इतिहास और अस्मिता को ही प्रतिक्रियावादी घोषित कर दिया। अब यदि हिंदू इतिहास प्रतिक्रियावादी है तो प्रगतिशील कौन है ?कार्ल मार्क्स के दर्शन का उद्गम और साम्यवादी पार्टियों की स्थापना तो कल की बात है उससे पहले हिन्दू प्रतिक्रियावादी शक्तियों को हराने के लिए प्रगतिशील तत्वों की तलाश बहुत जरुरी थी। तभी मार्क्सवादी शब्दावली में भारत का इतिहास लिखा जा सकता था। इस शून्य को भरने के लिए मार्क्सवादी इतिहासकारों ने विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं को प्रगतिशील घोषित कर दिया। अब भारत का मार्क्सवादी इतिहास मुकम्मल हुआ। भारत पर हिन्दू प्रतिक्रियावादियों का कब्जा था फिर उनकी मुक्ति के लिए विदेशी मुस्लिम आक्रांता आया। अब यदि विदेशी मुस्लिम आक्रांता मुक्तिदाता था तो उनका सकारात्मक चित्रण भी जरुरी था और नायक की भूमिका में स्थापित करना भी लाजमी था। मार्क्सवादी इतिहासकार जी जान से इसी काम में जुट गए। उनकी दृष्टि में मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी, बाबर, औरंगजेब, जहांगीर लोक कल्याणकारी राज्य के संस्थापक बने जिन्होंने बिना किसी भेदभाव के भारत में मार्क्सवादी शब्दावली के सर्वहारा राज्य की स्थापना कर दी। इसी तर्क के आधार पर इरफान हबीब और जोआ हसन जैसे साम्प्रदायिक इतिहासकार प्रगतिशील घोषित कर दिए गए। लेकिन दुर्भाग्य से मध्यकालीन भारत का सारा इतिहास इन विदेशी आका्रंताओं के अत्याचारों और हिन्दू दमन से भरा पड़ा है। अतः जब मध्यकालीन इतिहास कोई ऐसा पृष्ठ पढ़ा जाता है तो ये सभी मार्क्सवादी तथाकथित इतिहासकार चारों खुर उठाकर भारतीयता पर प्रहार करना शुरु कर देते हैं और मुस्लिम साम्प्रदायिक तत्वों के स्वर में स्वर मिलाकर रेंगना शुरु कर देते हैं। अयोध्या में 1528 में बाबर के सेनापति द्वारा राममंदिर को गिराकर बनाया गया बाबरी ढांचा मध्यकालीन भारत का ऐसा ही एक पृष्ठ है जिसे लेकर इन मार्क्सवादियों ने एक प्रकार से घृणा का अभियान छेड़ा हुआ है। ये लोग स्वयं को इतिहासकार कहते हैं केवल इतना ही नहीं अखबारों में वक्तव्य देते समय इन्होंने स्वयं ही अपने आपको ख्यातिप्राप्त इतिहासकार लिखना शुरु कर दिया। यूरोपीय विश्वविद्यालयों की विशेषता है कि भारत में जो लोग हिंदू अस्मिता अथवा भारतीयता के खिलाफ लिखते-बोलते है उनको वे अपने यहां बुलाकर उनका सम्मान किया जाता है। इनमें से अनेक प्राध्यापकों को वहां के विश्वविद्यालयों में लिखने-पढ़ने के लिए बुलाया भी जाता है। अब ये प्राध्यापक यूरोपीय विश्वविद्यालय के अपने कालखण्ड को माथे पर तिलक की तरह इस्तेमाल कर स्वयं को भारतीय इतिहास के ख्यातिनामा शीर्षपुरुष घोषित कर रहे हैं। भारतीय समाज की नजरों में ब्रिटिश शासकों द्वारा नवाजे गए रायसाहबों और रायबहादुरों की जो हैसियत थी, वही हैसियत इन प्राध्यापकों की है। ये भारत के अकादमिक जगत के रायसाहब, रायबहादुर हैं। यही मार्क्सवादी प्राध्यापक इतिहास की ढाल में मुसलमानों को भड़का रहे हैं और ‘सहमत’ के झंडे तले एक नए जिहाद की ललकार दे रहे हैं। रिटायर्ड प्राध्यापक और द्विजेंद्र नाथ झा की इतिहास में पूरी ख्याति इस बात को लेकर है कि वे एक लम्बे अर्से से यह सिध्द करने में जुटे हुए हैं कि प्राचीन भारत में भारतीयों के खानपान में गौ का मांस भी शामिल था। झा ने तो इस पर ‘ मिथ ऑफ होली काउ ‘ नाम से एक किताब ही लिख डाली। 2004 में इस किताब के बाद ही झा को पश्चिमी जगत में प्रसिध्दि मिली। पंजाब की रोमिला थापर अब भी इसी बात पर अडिग है कि स्कूल से ही बच्चों को पढ़ाया जाना चाहिए कि हिंदू लोग गोमांस खाते थे। ऐसे ही एक और इतिहासकार के.एम.पणिक्कर जिन्हें अकादमिक जगत में सी.पी.एम का इतिहासकार कहा जाता है, भारतीय स्वतंत्रता संगा्रम में महात्मा गांधी की भूमिका नगण्य साबित करते हुए और साम्यवादियों की भूमिका को सर्वाधिक महत्वपूर्ण साबित करते हुए , भारतीय इतिहास अनुसंधान परिष्द में अन्य साम्यवादी तत्वों की मिलीभगत से स्वतंत्रता संग्राम की झूठी कहानी छपवाना चाहते थे जिसका समय चलते भंडाफोड हो गया और परिषदृ ने उस पांडुलिपी को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से वापस मंगा लिया। अपने आपको शीर्ष राजनीतिक इतिहासकार घोषित करने वाली बेगम जोआ हसन जामिया मिलिया के उस कुलपति मुशीरुल हसन की पत्नी हैं जो जामिया मिलिया के आतंकवादी गतिविधियों में पकड़े छात्रों की विधिक सहायता आधिकारिक तौर पर करने की घोषणा कर रहे थे। भारत सरकार ने शायद मुशीरल हसन के इन्हीं ऐतिहासिक कारनामों को देखते हुए उनकी पत्नी जोबा हसन को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का सदस्य बनाया था। वैसे रिकॉर्ड के लिए अपने आपको इतिहासकार कहने वाले अमिय कुमार बागची के अनुसार 12 वी शताब्दी से लेकर अब तक के इतिहासकारों में इरफान हबीब सबसे उंचे हैं।

द्विजेन्द्रनाथ झा का कहना है कि जब चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने विश्व हिंदू परिषद् बाबरी एक्शन कमेटी दोनों को ही यह अवसर प्रदान किया था कि वह अपना-अपना पक्ष सिध्द करने के लिए और पुरातत्वविदों को लेकर बैठक करें और एकदूसरे के द्वारा प्रस्तुत किए गए परिणामों और तथ्यों की जांच पड़ताल करे। विश्व हिंदू परिषद् की ओर से कुछ इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता इस बैठक में उपस्थित हुए लेकिन बाबरी एक्शन कमेटी किसी भी इतिहासकार को इस बैठक में आने के लिए तैयार नहीं कर सकी तब उनकी सहायता के लिए उसी समूह चार इतिहासकार श्री आर.एस.शर्मा , ए.अली , श्री .सूरजभान और श्री डी.एन झा हाजिर हुए। यह चारों सज्जन इतिहासकारों के उसी समूह से ताल्लुक रखते हैं जो पिछले दो दशकों से मुसलमानों की साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काने के लिए जी जान से जुटे हुए हैं। इस समूह में ज्यादातर अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्राध्यापक हैं जो कभी न कभी वहां के इतिहास विभाग में पढ़ाते रहे हैं। अकादमिक जगत में वह अपनी योग्यता और गुणवत्ता के आधार पर इतिहास जगत में अपना नाम स्थापित नहीं कर पाए इसलिए अखबारों में इधर -उधर बयान देकर यह सामान्य जन को प्रभावित अवश्य करते रहते हैं। जब यह प्राध्यापक भारत सरकार द्वारा इतिहासकारों के बुलाई गयी बैठकों में अपने तर्कों द्वारा कुछ नहीं सिध्द कर पाए तो इन्होंने पम्फलेट वगैरह छापकर बाबरी मस्जिद के समर्थन में जनअभियान चलाया। जिसका प्रत्यक्ष उद्देश्य मुसलमानों की भावनाओं को भड़काना ही था। इन प्राध्यापकों का जो इसी बात पर लगा रहा कि जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद बनायी गयी है वहां कभी कोई मंदिर नहीं था। लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर जब भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने वहां खुदाई शुरु कर दी और वहां से मंदिर के भग्नावशेष मिलने लगे तो जाहिर है इन प्राध्यापकों की बोलती बंद होने लगी तब इन्होंने दूसरा रास्ता अपनाया। जो विश्वविद्यालयों में विभागों की अंदरुनी लड़ाई कई बार लोग अपनाते हैं। यह रास्ता था बचाव की बजाय आक्रमण करो। इन्होंने कहना शुरु कर दिया कि पुरातत्व विभाग तो सरकारी विभाग है और वैसे भी वह हिंदू इतिहासकारों से भरा पड़ा है यह तर्क देते हुए वह इस बात को भूल गए कि अब देश स्वतंत्र हो चुका है और यहां अंग्रेजों की हुकुमत नहीं है यदि ऐसा होता तो भारत सरकार का पुरातत्व विभाग अवश्य अ्रंग्रेजी इतिहासकारों से भरा होता। यदि अरबों का राज होता तो यह विभाग अरबी इतिहासकारों से भरा होता। अब भारत में भारतीयों का राज्य है, तो विभाग में भारतीय अथवा हिन्दू इतिहासकार ही होंगे। मुसलमानों की साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काने और उसे तुष्ट करने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नए पुराने प्राध्यापकों के नेतृत्व में यह दल इतनी दूर तक गया कि इसने अयोध्या में राम के जन्म पर ही प्रश्नचिह्न लगाना शुरु कर दिया और कुछ ने तो राम के अस्तित्व को ही नकार दिया। डी.एन. झा बार -बार इस बात पर जिद करते रहे कि अयोध्या कभी भारतीयों का तीर्थ स्थान नहीं रहा। झा तो मध्यप्रदेश में रामजन्मभूमि की तलाश करने लगे। खुदा का शुक्र है कि वह मध्यप्रदेश में ही रुक गए। कही वह थाईलैंड नही पहुच गए। थाईलैंड में भी अयोध्या नाम का शहर है जो काफी लम्बे अरसे तक थाईलैण्ड की राजधानी रहा और थाईलैण्ड के लोग अभी -अभी भी मानते हैं कि राम कि जन्मभूमि इसी अयोध्या में हैं। झा ने एक और मजेदार तर्क दिया। वह अयोध्या को रामजन्मभूमि मानने पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते हैं और उसके तीर्थस्थान होने पर भी अयोध्या में मंदिर गिराकर बाबरी मस्जिद बनायी गयी, इसे तो वह एक शिरे से नकारते हैं। पुरातत्व विभाग के इतिहासकार उनकी दृष्टि में निहायत अयोग्य हैं। खुदाई में मिले मंदिर के खंडहर उनकी दृष्टि में झूठे हैं और यह सब कुछ सिध्द करने के लिए उनके पास स्कॉटलैंड के एक चिकित्सक फ्रांसिस बुचानक है जिन्होंने कभी 1810 में लिख दिया था कि अयोध्या में मंदिर गिराकर मस्जिद नहीं बनायी गयी। झा इतिहासकारों के दिए गए प्रमाणों को मानने के लिए तैयार नहीं हैं लेकिन एक विदेशी चिकित्सक जिसका इतिहास से कुछ भी लेना-देना नहीं है , उसके इस कथन को सीने से लगाए घुमते हैं। उनके इस बचकाने तर्क उनकी क्लास के बी.ए. भाग प्रथम की छात्र तो ध्यान से सुन सकते है, इतिहासविदों के संसार में तो झा के इस प्रमाण पर अफसोस ही जाहिर किया जाएगा। ताज्जुब है कि अमेरिका को दिन-रात गाली देने वाले झा यह सिध्द करने के लिए कि विदेशी मुसलमान हमलावरों ने भारत में मंदिरों को नहीं तोड़ा, अमेरिका के ही एक इतिहासकार रिचर्ड एटोन का ही हवाला देते हैं।

प्राध्यापकों का यह टोला इस बात पर व्यथित दिखाई देता है कि रामजन्मभूमि के प्रश्न पर उच्च न्यायालय का निर्णय आ जाने के बाद देश में हिदू मुस्लिम फसाद क्यों नहीं हुआ। आम भारतीयों ने, चाहे उनका मजहब कोई भी हो इस निर्णय को शांति से स्वीकार किया। रिटायर्ड प्राध्यापकों की यह मण्डली शुरु से ही अखबारों और छोटे -छोटे पम्फलेटों के माध्यम से यह वातावरण बनाने में लगी हुई थी राम कोरी कल्पना है और बाबरी मस्जिद मुसलमानों का इबादतखाना है और बुतपरस्तों के किसी मंदिर को तोड़ कर नही बनाया गया। इनको लगता था कि न्यायायलय भी उनके इस बहकावे में आ जाएगा। इन्होंने अंग्रेजी मीडिया और विदेशी मीडिया की प्रत्यक्ष , अप्रत्यक्ष सहायता से इस केस का मीडिया ट्रायल कर ही दिया था। इनको आशा थी कि इस ट्रायल के फेर में उच्च न्यायालय भी आ जाएगा और राम के अस्तित्व को नकारकर बाबरी ढांचे के पक्ष में निर्णय दे देगा। परन्तु इनके दुर्भाग्य से इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनउ पीठ ने ऐसा नहीं किया। लेकिन अभी भी यह मण्डली हार मानने के लिए तैयार नहीं थी।इनको लगता था कि इस निर्णय से हिंदू मुस्लिम दंगे भडकेंगे और उन्हें यह कहने का अवसर मिल जाएगा कि न्यायालय ने इनकी सलाह न मानकर गलत निर्णय दिया है जिसके परिणामस्वरुप हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए हैं। यदि फसाद होते तो इन प्राध्यापकों को बैठे बिठाए एक और धंधा मिल जाता और ये अपने उसी पुराने शगल में जुट जाते कि हिंदू अल्पसंख्यक मुसलमानों को आतंकित कर रहे हैं परंतु इनके दुर्भाग्य से यह दंगे भी नही हुए। अब इस टोली की एक ही आशा बची थी अब कम से कम मुसलमान तो भडकेंगे ही और सड़कों पर उतर आएंगे लेकिन अल्लाह के फजल से ऐशा भी नहीं हुआ। जाहिर है इस मंडली की हालत खिसियानी बिल्ली खम्भा जैसी हो रही है इसलिए इन्होंने नए सिरे से साम्प्रदायिक आग भड़काने के लिए अंग्रेजी अखबारों के माध्यम से (जिसका उर्दू तर्जुमा भी बाकायदा छपता रहता है )मुसलमानों को भड़काना शुरु कर दिया कि आपके साथ अन्याय हुआ है और आप फिर भी चुप बैठे हो। सम्बंधित पक्ष उच्चतम न्यायालय में जा रहे हैं इसकी इन्हें कोई चिंता नहीं है इसलिए इन्होंने अपनी विशेषज्ञ राय जाहिर करनी शुरु कर दी है कि न्यायालय मुसलमानों को कैसा न्याय दे सकता है इसका नमूना तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दे ही दिया है। ये तो चाहते हैं कि आम मुसलमान गाजी बनकर सडकों पर उतरे और इस तथाकथित अन्याय का बदला ले ले।

इस हड़बड़ी में इस प्राध्यापक टोली ने ‘सहमत’ के लेटर पैड पर बाकायदा एक बयान जारी कर दिया। रोमिला थापर, के.एम श्रीमाली, के.एन. पणिक्कर, इरफान हबीब ,अमिय कुमार बागची, विवान सुन्दरम्, उत्स पटनायक, सी.पी. चंद्रशेखर, जयति धोष, गीता कपूर, जोया हसन इस बयान पर हस्ताक्षर करने वालों में शामिल हैं। वैसे हस्ताक्षर करने वालों में 40-50 और नाम भी हैं और शायद वे भी अपने आपको को कानून और इतिहास से जुड़े मसलों का विशेषज्ञ ही मानते होंगे। यह जरुर है कि इनमें से कुछ ऐसे लोग हैं जो इस विषय के विशेषज्ञ हैं कि किस होटल में कैसा खाना मिलता है। रसोईघर में अच्छा खाना कैसे बनाए इस पर राय देने वाले विशेषज्ञ भी इनमें शामिल हैं। स्त्रियां बाल कैसे लम्बे करें, पुरुषों और महिलाओं को फैशन के लिए कैसे कपड़े पहनने चाहिए इन महत्वपूर्ण प्रश्नों पर गंभीर विवेचन करने वाले विद्वान भी हस्ताक्षरकर्ताओं में शामिल हैं। ‘सहमत’ सफदर हाशमी की स्मृति में बनाया गया एक न्यास है जो समय-समय पर रंगमंच और कलामंच से जुड़े मुद्दों पर अपनी राय जाहिर करता रहता है। ‘सहमत’ का इतिहास से कुछ लेना-देना नहीं है लेकिन सहमत इस बात पर ‘सहमत’ है कि इस देश में प्रगतिशीलता का अर्थ मुस्लिम तुष्टीकरण ही होना चाहिए। महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के इतिहास विभागों से रिटायर हो चुके इन प्राध्यापकों ने यह भी ध्यान नहीं रखा कि यदि उन्हें बाबरी ढांचे और राममंदिर की ऐतिहासिकता से ताल्लुक रखने वाले कुछ मुद्दे उठाने ही वाले थे तो वे इतिहासकारों के किसी लेटरपैड का इस्तेमाल करते। परंतु प्राध्यापकों की यह मण्डली शायद मुस्लिम कट््टरपंथियों का मार्गदर्शन करने के लिए इतनी हड़बड़ी में थी कि इसने निकटस्थ ‘सहमत’ के लेटरपैड का ही इस्तेमाल किया। शायद तभी बाद में एक जाने माने इतिहासकार ने टिप्पडी भी कि – ‘जब मैंने इन लोगों के हस्ताक्षर से जारी बयान के बारे में सुना तो मुझे उत्सुकता हुई कि कही इस पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में इतिहास पढा चुके श्री सूरजभान के भी हस्ताक्षर तो नहीं है। क्योंकि उन्हें संसार छोड़े काफी समय हो चुका है और मुझे डर था कि कही इन्होंने हड़बड़ी में उनके भी हस्ताक्षर न कर दिए हों। इनका यह बयान एक प्रकार से मुसलमानों को ही सम्बोधित था। इन्होंने कहा इस निर्णय से देश के हिंदू-मुस्लिम की एकता के ताने-बाने को जबरदस्त धक्का लगा है। न्यायपालिका की ख्याति पर सवालिया निशाान लग ही गया है। सर्वोच्च न्यायालय में क्या होगा यह तो बाद में देखा जाएगा लेकिन इस निर्णय से जो नुकसान हो चुका है उसकी भरपाई नहीं हो सकती। अब यह इन मार्क्सवादी प्राध्यापकों की बदकिस्मती ही कहनी चाहिए कि इतने सीधे -सीधे संकेतों के बावजूद भी लोग सड़कों पर नहीं उतरे और यह बिचारे सीपीएम के दफ्तर में बैठकर ताने -बाने को उधेड़ने के षड़यंत्र रचते रहे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जब ये प्राध्यापक बाबरी ढांचे के पक्ष में आधी-अधूरी दलीलें लेकर पहुंचे तो जाहिर था कि वहां इनके बयानों पर बाकायदे जिरह होती। न्यायालय इनका क्लासरुम तो था नहीं जहां बच्चे चुपचाप इन ख्यातिनाम विध्दानों की अधकचरी जानकारियां और उनके आधार पर निकाले गए एकतरफा निष्कर्षों को चुपचाप स्वीकार कर लेते। न्यायालय में तो इन्हें अपनी बातों को प्रमाण और तर्क से सिध्द करना था और यही इनके पास नहीं हैं। इसलिए इन्होंने दोहरी नीति अपनायी। इनमें से कुछ तो न्यायालय में सुन्नी वक्फ बोर्ड के पक्ष में गवाहियां देने पहुंचे और कुछ बाहर बने रहे ताकि न्यायालय का निर्णय आने के उपरान्त समयानुकूल रणनीति के तहत उस पर आक्रमण किया जा सके। या फिर इनको पहले ही आशंका होगी कि न्यायालय में इनके ढोल की पोल खुल जाएगी इसलिए अपने टोली के कुछ लोगों के सम्मान को आम लोगों की नजर में बचाए रखने के लिए न्यायायलय से दूर ही रखा जाए। रोमिला थापर और इरफान हबीब जैसे लोग तो कचहरी के दरवाजे पर पहुंचे ही नहीं। लेकिन न्यायालय में जो गए उन तथाकथित इतिहासकारों की योग्यता , उनके झूठ और उनके ज्ञान की ऐसी पोल खुली और छीछालेदर हुई जैसी शायद उनके विरोधियों की भी आशा नहीं थी। न्यायालय में बाबरी ढांचे के पक्ष में गवाही देने गए ये प्राध्यापक वैसे तो अपने आपको किसी भी पक्ष से असम्बंधित और निष्पक्ष बता रहे थे। इनका यह भी कहना था कि वे अपनी इच्छा से, न्यायपूर्ण निर्णय तक पहुंचने के लिए न्यायालय की सहायता करने के लिए कचहरी के दरवाजे तक आए हैं। लेकिन जब परतें खुली तो पता चला कि सभी एकदूसरे से किसी न किसी प्रकार से सम्बंधित है कोई किसी का विद्यार्थी है और कोई किसी का अध्यापक। किसी ने किसी के किताब की प्रस्तावना लिखी है और किसी ने दूसरे के पक्ष में स्तुतिगान किया था। मतलब साथ था न तो यह निष्पक्ष थे, न एक दूसरे से असंबंधित और नही पूर्वाग्र्रहों से मुक्त। यह एक खास विचारधारा से बंधा हुए प्राध्यापकों को ऐसा टोला था जो मिलजुलकर एक खास उद्देश्य के लिए एक गुट के रुप में काम कर रहा है। शायद, इसी के कारण न्यायालय को मजबूर होकर कहना पड़ा कि इन विद्वानों के शुतुर्मुर्गी व्यवहार से हैरानी होती है। न्यायालय ने तो यहां तक कहां कि न्यायालय किसी गवाह की गवाही को विश्वसनीय या अविश्वसनीय तो मानता है परंतु गवाही को लेकर विपरीत टिप्पड़ियां करने से बचता है परंतु बहुत दुःख के साथ कहना पड़ता है कि इन विद्वानों ने उत्तरदायित्वविहीन और आधारहीन व्यवहार किया है। ये विध्दान अपने विषय का अध्ययन किए बिना ही और उस पर शोध किए बिना ही अपनी राय को विशेषज्ञों की राय बता रहे है। यही तक बस नहीं। कुछ प्राध्यापकों ने तो जिरह में यह भी स्वीकार किया कि जिरह में वह झूठ बोले है। ताज्जुब की बात तो यह है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड की तरफ से गवाही देने पहुंचे प्राध्यापक जो अपने आपको प्राचीन भारत के इतिहास के विशेषज्ञ बता रहे थे, वे संस्कृत, पाली या प्राकृत नही ंजानते थे और जो अपने आपको मध्यकालीन भारत का विशेषज्ञ बता रहे थे उन्हें अरबी या फारसी नहीं आ रही थी। अपने आपको सुप्रसिध्द इतिहासकार का स्वयं ही दर्जा देने वाले श्री सुरेशचंद्र मिश्रा की जिरह में पोल खुली। वे लम्बे समय से अखबारों में उछल कूद कर रहे हैं और इसके लिए वे पुरातत्वविभाग द्वारा किए गए खनन कार्य का चुनौती दे रहे थे। वे दो बार कचहरी में गवाही देने आए पहली बार उन्होंने कहा कि ढांचे में फारसी भाषा में एक आलेख लिखा हुआ था लेकिन दूसरी बार कहा कि यह अरबी भाषा में था। जब थोड़ी जिरह हुई तो बोले मुझे न फारसी आती है और न अरबी इसलिए मैं अंतर नहीं कर पाया मैेंने तो किसी पत्रिका में ऐसा पढ़ा था। झूठ बोलने में महारत हासिल कर चुके ये इतिहासकार यही नहीं रुके उन्होंने कहा कि वे विवादित ढांचे में ‘बाबरनामा’ पुस्तक लेकर गए थे और ढांचे में लिखे गए लेख का मिलान बाबरनाम के उध्दरण से किया था। लेकिन जब थोड़ी कड़ाई से पूछताछ हुई तो उन्होंने स्वीकार किया वे ‘बाबरनामा’ पुस्तक को ढांचे के बाहर ही छोड़ गए थे। तब आखिर इन महाशय ने दोनों आलेखों का मिलान कैसे किया? मिश्रा जी के पास इसका भी उत्तर था। उनके अनुसार ‘बाबरनामा’ में जो लिखा हुआ था वह पढ़ने के बाद उनके दिमाग में सुरक्षित हो गया था। बस उसी के आधार पर उन्होंने अंदर के आलेख का मिलान कर लिया। यहां तथाकथित इतिहासकार का सफेद झूठ फिर पकड़ा गया। जब इन्हें अरबी और फारसी दोनों नहीं आती तो इन्होंने अंदर का आलेख पढ़ा कैसे और इसका मिलान कैसे किया ? जब इनसे पूछा गया कि दिल्ली से लखनऊ गवाही देने के लिए आप कैसे आते-जाते हैं तो पहली बार इन्होंने कहा कि हवाई जहाज से लेकिन अगली बार भूल सुधारकर कहा कि रेलगाड़ी से। अंत में इन्होंने कहा कि मैं झूठ बोलने का आदी नहीं हूं लेकिन कभी गलती से बोला जाता है।

इस टोले के एक और प्राध्यापक सुशील श्रीवास्तव जो स्वयं को एक सुप्रसिध्द इतिहासकार बताते है वह भी बाबरी ढांचे के पक्ष में गवाही देने के लिए आए हुए थे। उनहोंने इस विषय पर एक किताब भी लिखी हुई है बाबरी मस्जिद बाबर द्वारा नहीं बनायी गयी थी और वह यह भी मानते हैं कि मंदिर नहीं गिराया गया था। जिरह में इनकी योग्यता की भी पोल खुल गयी।। पहले हल्ले में इन्होंने माल लिया कि वह फारसी अरबी नहीं जानते तथा संस्कृत का भी उन्हें विशेष ज्ञान नहीं हैं। इन्होंने यह भी स्वीकार किया कि इन्हें इतिहास का भी विशेष ज्ञान नहीं है। तब यह इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचे कि बाबरी ढांचा बाबर या मीरबाकी द्वारा नहीं बनाया गया था। इनका कहना था इनके ससुर ऐसा मानते हैं। लेकिन जब और गहराई से जिरह हुई तो एक और बात सामने आयी कि अरसा पहले श्रीवास्तव जी इस्लाम मजहब में दीक्षित हो चुके हैं और यह सब इन्होंने मेहर अफसान फारुखी से शादी करने के लिए किया था। इनका विवाह भी इस्लामी रीति-रिवाज के अनुसार ही हुआ था। और मुसलमाान बनने के बाद इन्होंने अपना नाम सज्जाद कर रख लिया है। और इन्होंने यह भी स्वीकार किया कि मुझे बाबरी ढांचे से जुड़ी ऐसी बातें लिखने के लिए उन्हें उनकी पत्नी ने ही प्रेरित किया था अन्यथा उन्हें इस विवाद से जुड़े वैज्ञानिक विषयों की कोई भी जानकारी नहीं है। न्यायालय ने इस बात पर भी खेद व्यक्त किया कि ऐसा व्यक्ति अपने आप को सुविख्यात इतिहासकार बता रहा है और इस प्रकार के संवेदनशील विषय पर बिना किसी ज्ञान के पुस्तक भी लिख रहा है।

इसी प्रकार एक और स्वनामधन्य विशेषज्ञा जो कभी जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में पढ़ाती रही हैं श्रीमती सुवीरा जायसवाल गवाही देने के लिए आयी थी। इस विशेषज्ञा ने जोर देकर कहा कि राममंदिर गिरा कर बाबरी ढांचे बनाया गया है इसका कोई प्रमाण मौजूद नहीं है।। उन्होंने यह भी कहा कि इस बात का कोई प्रमाण मौजूद नहीं है कि राम का जन्म उसी स्थान पर हुआ थाा लेकिन जिरह सख्त हुई तो इन्होंने कहा कि मैंने बाबरी ढांचे के इतिहास का अध्ययन नहीं किया है। और इस बारे में जो बयान दे रही हूं वह न तो मेरे ज्ञान पर आधारित है और नह ही किसी जांच पर। यह तो आज मेरी राय है कि विवादित ढांचे के बारे में जो भी मेरा ज्ञान है, उसका आधार अखबार में छपी खबरें हैं या फिर जो दूसरे लोगों ने बताया था। ध्यान रहे डॉ. अजीज अहमद की एक पुस्तक भी न्यायालय में पेश की गयी थी। डॉ. अजीज अहमद के निष्कर्ष इन तथाकथित इतिहासकारों से भिन्न है। जब इसकी चर्चा हुई तब सुवीरा जायसवाल ने कहा कि अजीज अहमद के निष्कर्षो से मैं सहमत नहीं हूं। जब उनसे पूछा गया कि क्या आपने यह किताब पढ़ी है तो उन्होंने स्वीकार कर लिया कि उन्होंने यह किताब नही पढ़ी है। न्यायालय की दुःख से यह टिप्पणी करनी पड़ी कि सुवीरा जायसवाल अपने आप को इतिहास की विशेषज्ञा बता रही हैं, बिना किसी अध्ययन के और जांच के बयान दे रही हैं। अलीगाढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शीरी मुसबी भी कचहरी में यही कहने के लिए आयी थीं जो कहने के लिए समीरा जायसवाल आई थी। इन्होंने यह भी कहा कि मध्यकालीन युग में अयोध्या में राम का जन्म होने की कोई चर्चा इतिहास में कहीं भी नहीं है। लेकिन इन्होंने जिरह में स्वीकार किया कि इन्होंने अयोध्या पर कोई पुस्तक पढ़ी नहीं एस.पी गुप्ता कि किताब में जो लिखा हुआ है उसी को मैंने स्वीकार किया है। ऐसे ही एक और सज्जन जो कभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ा चुके हैं। मुसलमानों की ओर से गवाही देने पहुंचे थे। बातें इन्होने भी वही की कि विवादित स्थल पर न तो किसी मंदिर होने के सबूत मिले है और न ही किसी मंदिर को गिराकर मस्जिद बनायी गयी है। जिरह के दौरान इन्होंने माना कि बाबर के बारे में इनका कुल ज्ञान यह है है कि यह 16 शताब्दी के शासक थे और अयोध्या भी कभी नहीं गए नहीं। यह महाशय अपने आप को पुरातत्व का विशेषज्ञ बता रहे हैं। परन्तु इन्होंने स्वयं स्वीकार किया कि इस शास्त्र का अध्यापन उन्होंने विधिवत नहीं किया और और इस शास्त्र की उनके पास कोई डिग्री या डिप्लोमा नहीं है। लेकिन अंत में प्रो. मंडल ने एक बात कहकर सभी को चौंका दिया कि वह कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर है। जाहिर है कि जब न्यायालय ने इन लोगों की अज्ञान, पूर्वाग्रह और बिना किसी अध्ययन के दी गई दलीलों को को वजन नहीं दिया तो निर्णय आने के तुरन्त बाद रोमिला थापर ने पूर्व निर्धारित रणनीति के तहत हल्लाबोल दिया। कहा कि न्यायालय ने ऐतिहासिक तथ्यों की ओर ध्यान नहीं दिया। रिटायर्ड और असन्तुष्ट प्राध्यापकों का यह टोला देश भर में घूम -घूम कर मुसलमानाें को भड़का रहा है कि इस तथाकथित अन्याय का बदला लेने के लए सड़कों पर आओं। तमाम अकादमिक मानदण्डों को ताक पर रखकर यह प्राध्यापक निम्न स्तर पर उतर आए है। इसीलिए अकादमिक जगत तो स्तंभित है परन्तु सरकार चुप क्यों बैठी है। शायद सरकार की और प्राध्यापकों की मुस्लिम तुष्टीकरण की यह सांझी रणनीति है जो प्राध्यापक जितनी लाभकारी भूमिका निभाएगा उसे उतना ही ज्यादा ईनाम दिया जाएगा। विश्वविद्यालयों के कुलपति रिटायर्ड होने के बाद भी बनाए जाते रहे हैं।नहीं तो आई .सी.एच.आर., आ.सी.एस.एस.आर और यूजीसी तो है हीं। इससे भी आगे राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, राष्ट्रीय ज्ञान आयोग और न जाने क्या -क्या है ? यह प्राध्यापक इतना तो जानते ही है कि बादशाह खुश होगा तो ईनाम तो देगा ही।