इलाज में लापरवाही का दण्ड

प्रमोद भार्गव

images (2)देश के चिकित्सालयों और चिकित्सकों के लिए यह स्पष्‍ट संदेश है कि वे अब रोगियों के साथ लापरवाही न बरतें, अन्यथा उन्हें भारी दण्ड की सजा भुगतनी पड़ सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सीके प्रसाद और वी. गोपाल गौड़ा की पीठ ने इसी आष्य का अनूठा फैसला सुनाया है। हालांकि हमारी न्याय व्यवस्था की यह लाचारी है कि इस फैसले को अंतिम मुकाम तक पहुंचने में 15 साल का लंबा समय लगा। यह सार्थक परिणाम भी शायद इसलिए आ पाया, क्योंकि फरियादी कुणाल साहा चिकित्सक होने के साथ, आर्थिक रुप से सक्षम थे, इसलिए वे इस खर्चीली कानूनी लड़ाई को लड़कर अंजाम तक पहुंचाने में कामयाब रहे। वरना हमारे यहां चिकित्सकों की लापरवाही से मौतों का सिलसिला अनवरत जारी रहता है और चिकित्सकों को दोषी ठहराना भी मुमकिन नहीं हो पाता। किंतु इसके विपरीत इस भारी-भरकम हर्जाने के भविष्‍य में दुष्‍परिणाम भी सामने आ सकते हैं, परिजन जरा भी लापरवाही की आशंका में आने वाली मौत को चिकित्सीय चूक का मुद्दा बनाने लग जाएंगे, इससे न केवल सीमित स्वास्थ्य सेवाएं प्रभावित होंगी, बल्कि ऐसे वकीलों की एक पूरी कतार खड़ी हो जाएगी, जो मुआवजा दिलाने के ठेके लेने लग जाएंगे। इस लिहाज से इस प्रकृति के फैसले चिकित्सा सेवाओं के लिए घातक भी साबित हो सकते हैं ?

अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल के डॉ. कुणाल साहा को बतौर हर्जाना 5.96 करोड़ रुपए इलाज में लापरवाही बरतने वाले चिकित्सक देंगे। कुणाल की चिकित्सक पत्नी अनुराधा की 15 साल पहले उपचार के दौरान मौत हो गई थी। वे खुद भी बाल-मनोवैज्ञानिक चिकित्सक थीं। दरअसल 29 वर्षीय डॉ अनुराधा 1998 में गर्मियों की छुट्टियों के दौरान अपने घर अमेरिका से कोलकाता आई थीं। 25 अप्रैल को उनकी निगरानी में त्वचा विकार जैसी सामान्य बीमारी आई। वे उपचार के लिए कोलकाता के एएमआरआई अस्पताल पहुंची और त्वचा रोग विशेषज्ञ डॉ. सुकुमार मुखर्जी से इलाज शुरु कराया। किंतु मर्ज और बिगड़ गया। तब डॉ. मुखर्जी ने उन्हें 2 मर्तबा 80 एमजी डेपोमेडाल का इंजेक्षन दिया। नतीजतन तबीयत और बिगड़ गई। 11 मई को अनुराधा अस्पताल में भर्ती हुईं और उन्हें स्टीरॉयड दिया जाने लगा। हालत काबू से बाहर होने पर अनुराधा को मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल ले जाया गया। यहां हुई जांचों से पता चला कि अनुराधा को जानलेवा त्वचा रोग, ‘टॉक्सिक एपिडर्मल नेकोलाइसिस’ है। आखिरकार 28 मई 1998 को अनुराधा की इलाज के दौरान मौत हो गई।

इसके बाद अमेरिका के ओहियो शहर में रहने वाले डॉ. कुणाल मौत की जवाबदेही सुनिश्चित करने की कानूनी तैयारी में जुट गए। चूंकि वे खुद एड्स रोग विशेषज्ञ थे, लिहाजा चिकित्सीय बारीकियों और खामियों को जानते थे। इसलिए अपील के जो दस्तावेज तैयार हुए, उनमें चिकित्सकों द्वारा बरती गई लापरवाहियों के चिकित्सा-सम्मत ब्यौरे दर्ज किए गए। उन्होंने मामले की शुरुआत ‘राष्‍ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग’ (एनसीडीआरसी) से की और पत्नी की मौत के बदले में 77 करोड़ रुपए हर्जाने की मांग की। 2011 में फैसला कुणाल के पक्ष में आया, लेकिन जुर्माने की राशि महज 1.7 करोड़ तय की गई। दोनों पक्ष इस मामले की अपील में सर्वोच्च न्यायालय ले गए। न्यायालय ने अपने फैसले में एएमआरआई अस्पताल और तीन चिकित्सकों को उपचार में लापरवाही बरतने का दोशी माना और जुर्माना बढ़ाकर 5.96 करोड़ कर दिया। साथ ही 1999 से 6 फीसदी सालाना ब्याज भी देना बाध्यकारी कर दिया। नतीजतन यह रकम बढ़कर 11 करोड़ रुपए के करीब हो गई। डॉ. साहा इस फैसले से संतुष्‍ट नहीं हैं, उनका कहना है कि दोषी चिकित्सकों को न तो आपराधिक दंड मिला और न ही उनके चिकित्सीय परीक्षण पर रोक लगी। उनकी इस दलील में दम है।

हमारे यहां चिकित्सीय लापरवाही रोजमर्रा की बात है। शल्य क्रिया के दौरान चिकित्सक पेट में कैंची और तौलिया तक छोड़ देते हैं। अनेक महिलाएं तत्काल अस्पताल में भरती नहीं किए जाने पर सड़क पर प्रसव करतीं हैं और कई मर्तबा उनकी जान भी चली जाती है। सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों, नर्सों और अन्य स्वास्थ कर्मचारियों के रुखे व्यवहार के चलते ऐसी अनहोनी घटनाएं घटना रोजमर्रा की बात हो गई है। चिकित्सक अपने आर्थिक लाभ के लिए पशुओं की दवाएं तक इंसानों को दे रहे हैं। पूरे देश के बड़े अस्पतालों में गरीब व लाचारों पर किए गए दवा परीक्षण के दौरान चार साल के भीतर 2013 मौतें हो चुकी हैं और इंदौर के 12 चिकित्सकों को सीबीआई जांच में दोषी भी पाया गया है। बावजूद इन चिकित्सकों को अभी तक किसी भी प्रकार की सजा नहीं दी जा सकी है। डॉ. कुणाल अपने मकसद में सफल हुए तो केवल इसलिए क्योंकि एक तो वे खुद डॉक्टर थे, दूसरे आर्थिक रुप से समर्थ थे, तीसरे उन्होंने अपनी पत्नी की मौत को जवाबदेही तय करने का मिषन बना लिया था।

हालांकि इस फैसले से चिकित्सा क्षेत्र में कई नए सवाल खड़े हुए हैं। एक तो यह कि बड़े शहरों और बड़ी अस्पतालों की स्वास्थ्य सेवाएं भी गुणवत्ता पूर्ण व विश्‍वसनीयता नहीं हैं। चिकित्सा संस्थानों के कामकाज और उनके द्वारा दी जा रही सेवाओं पर निगरानी रखने का कोई कानूनी-तंत्र अब तक विकसित नहीं हुआ है। उपचार में गुणवत्ता की कमी या दोषपूर्ण चिकित्सा सेवा के विरुद्ध ‘उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986’ को ही इस्तेमाल किया जाता है, जबकि यह कानून मूल रुप से उपभोक्ता वस्तुओं की गुणवत्ता उचित नहीं पाई जाने के परिप्रेक्ष्य में इस्तेमाल किए जाने के लिए है। इसलिए इस कानून के तहत भारी-भरकम मुआवजे को न तो वरदान माना जा सकता है और न ही इसे गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सुविधा का उपाय माना जा सकता है। कालांतर में ऐसे फैसले चिकित्सा क्षेत्र में अनेक बाधाएं उत्पन्न करने वाले साबित हो सकते हैं ? सड़क दुर्घटना बीमा की तरह चिकित्सा दुर्घटना संबंधी हर्जाना दिलाने वाले वकीलों की एक पूरी जमात वजूद में आ सकती है। जो प्राकृतिक मौतों को भी लापरवाही का अंजाम दर्शाकर क्षतिपूर्ति मामलों को उकसाने का काम करेंगे ? ऐसे उपाय प्रतिभाओं को चिकित्सा क्षेत्र से मोहभंग का सबब भी बन सकते हैं ? इसी बाबत भारतीय चिकित्सा परिषद् ने दलील दी है कि जिसे लापरवाही माना जा रहा है, वह देश की चिकित्सा शिक्षा में समान मानदंड नहीं होने के कारण है। लिहाजा चिकित्सकों की गुणवत्ता प्रभावित होती है। जाहिर है, इस प्रकृति की षिकायतें दूर करना है तो चिकित्सा स्नातक के लिए ‘सामान्य अनुज्ञा परीक्षा’ (कॉमन लाइसेंसीइट टेस्ट) को पास करना जरुरी होना चाहिए। तय है लापरवाही के कारण शिक्षा के संस्थागत ढांचे में भी अंतर्निहित है। हालांकि इसी मकसद से ‘चिकित्सा संस्थान अधिनियम 2011’ लाया गया था। लेकिन इसे कुटिल चतुराई से चिकित्सा सेवा केंद्रों के पंजीयन और उनके कंप्यूटरीकृत डाटा बेस तैयार करने से जोड़ दिया गया। जबकि इसे चिकित्सा क्षेत्र के आधारभूत ढांचा व मानव संसाधन के साथ उपचार संबंधी गुणवत्ता से जोड़ने की जरुरत थी। दोषपूर्ण उपचार सामने आने पर जुर्माना, दंड और प्रेक्टिस पर रोक के प्रावधान भी इस कानून में होने चाहिए थे। इस दिशा में गुणवत्ता और हर्जाने के कुछ मानक देश की शीर्ष न्यायालय ने तय किए हैं तो कल्याणकारी सरकारों को जरुरत है कि वे इन्हें अपनाने की दिशा में आगे बढ़े ?

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  1. मेरे छोटे से शहर सुपौल में कुछ दिन पहले एक सड़क दुर्घटना में एक ३५ वर्षीया व्यक्ति बुरी तरह से जख्मी हुआ. ये दुर्घटना अस्प्ताल से २०० मीटर से भी कम दूरी पर हुआ. लोगों ने तुरत ही उसे अस्प्ताल पहुँचाया. बाद में परिजनो को जानकारी दी गयी. इलाज के दौरान दुर्भाग्य से युवक की मौत हो गई. एक परिजन ने डॉक्टर से पूछा कि डाक्टर साहेब, अरे क्या ये मर गया ??? धरती के ईश्वर उन डाक्टर साहेब बिगड़ते और मृतक के परिजन को फटकारते हुए बोले – यहाँ नहीं मरेगा तो क्या पान की दुकान पे मरेगा. शोक शंतप्त परिजनों में से एक ने इस बात पर आपत्ति किया. फिर बात बढ़ी और परिजनो तथा स्थानीय जनता ने डाक्टर साहेब की जम के पिटाई कर दी. किसी बड़े या असाध्य से रोग के बारे में मरीज को सीधे सीधे बताने की जगह घुमा फिरा कर बहला फुसला कर तथा तसल्ली देते हुए समझाया जाता है ताकि वो जीने की उम्मीद ही न छोड़ दे या दहशत में ना आ जाये. मरीज इलाज ही नहीं बल्कि तसल्ली लेने के लिए भी डॉक्टर का मुह देखता है. एक अवसर पर इसी अस्प्ताल में मैंने एक नामी गिरामी स्त्री रोग विशेसग्य को परिजनों के ऊपर चिल्लाते सुना कि जल्दी से दवाई खरीद के लाओ नहीं तो तेरा मरीज़ मर जायेगा. ये अस्प्ताल है या बूचर खाना. जब भी कोई हल्ला हंगामा होता है, डॉक्टर कहते हैं कि यहाँ पुलिस की सुरक्षा हर समय रहनी चाहिए. क्यों ?? ताकि और ज्यादा मनमानी कर सके डॉक्टर.
    प्राइवेट हॉस्पिटल में जाने का मतलब है कि जेब गरम रहनी चाहिए. बे मतलब की महगी महगी जाँच, साधारण जेनेरिक दवाई की जगह १०० गुना कीमती ब्रांडेड दवाइयां आदि……….

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