बिहार चुनावों में महिलाओं पर दांव के निहितार्थ

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-ललित गर्ग-

बिहार में इस साल अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं। चुनाव आयोग ने अभी तक मतदान की तारीखों की घोषणा नहीं की है, लेकिन राज्य में राजनीतिक सरगर्मी तेज हो गई है। विभिन्न राजनीतिक दल लुभावनी घोषणाएं कर रहे हैं, नये-नये मुद्दों को उछाला जा रहा है। गोपाल खेमका हत्याकांड हो या तंत्र मंत्र के चलते एक ही परिवार के पांच लोगों को जला देने की त्रासद घटना- नीतीश कुमार पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले मतदाता सूचियों के विशेष सघन पुनरीक्षण अभियान पर संदेह के सवालों के साथ मुखर विपक्षी दल इसके खिलाफ राजनीतिक लड़ाई के साथ ही कानून विकल्पों पर भी गंभीरता से विचार कर रहे हैं। इस बीच, एनडीए की सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के नेता चिराग पासवान ने एनडीए से दूरी बनाते हुए बिहार की सभी 243 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का संकेत देकर सियासी परिदृश्य को दिलचस्प बना दिया है। इन्हीं परिदृश्यों के बीच बिहार सरकार ने सरकारी नौकरियों में स्थानीय महिलाओं के लिए 35 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने के फैसला लेकर चुनावी सरगर्मियों को एक नया मोड़ दे दिया है। बिहार सरकार का यह निर्णय केवल एक चुनावी रणनीति भर नहीं, बल्कि एक गहरे सामाजिक परिवर्तन का संकेतक भी है। तय है कि इस बार के बिहार चुनाव के काफी दिलचस्प एवं हंगामेदार होंगे।
सरकारी नौकरियों में स्थानीय महिलाओं के लिए 35 प्रतिशत आरक्षण के गहरे निहितार्थ हैं। एनडीए की नीतिश सरकार ने स्थानीय महिलाओं को प्राथमिकता देने एवं उनके लिए सरकारी रोजगार उपलब्ध कराने के इस ब्रह्मास़्त्र को दाग कर चुनावी समीकरण अपने पक्ष में कर लिये हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे “महिला सशक्तिकरण का राजनीतिक समाधान” बताया, क्योंकि राज्य की महिलाएँ कई चुनावों में निर्णायक भूमिका निभा रही हैं। पिछली लोकसभा चुनाव में महिलाओं की मतदान दर पुरुषों से कहीं अधिक रही, 59.45 प्रतिशत महिलाओं ने हिस्सा लिया जबकि पुरुष केवल 53 प्रतिशत मतदान करने पहुंचे। यह आंकड़ा दिखाता है कि चुनावी जीत में महिला मतदाता कितनी निर्णायक हो सकते हैं, साफ है, सत्ता की चाबी वहां महिलाओं ने अपने हाथों में ले ली है और वे धार्मिक व जातिगत आग्रहों से अधिक लैंगिक हितों से प्रेरित हैं। बिहार उन शुरुआती राज्यों में एक है, जिसने पंचायत और स्थानीय निकायों में आधी आबादी के लिए पचास फीसदी सीटें आरक्षित की हैं। इस कदम ने यहां की स्त्रियों में जबर्दस्त राजनीतिक जागरूकता पैदा की है। चुनावों की दशा एवं दिशा बदलने में महत्वपूर्ण एवं निर्णायक किरदार निभाने के कारण ही हरेक राजनीतिक दल महिला वर्ग को आकर्षित करने में जुट गया है। राजद-कांग्रेस-वाम दलों का महागठबंधन ‘माई-बहिन मान योजना’ के तहत महिलाओं को प्रतिमाह 2,500 रुपये देने का वायदा कर चुका है, तो राजद नेता तेजस्वी यादव बेरोजगारी और डोमिसाइल के मुद्दे को जोर-शोर से उठा रहे हैं। ऐसे में, नीतीश सरकार के इस नीतिगत दांव को समझा जा सकता है। जातिगत और स्थानीय समीकरण भुनाने के लिए निश्चित ही यह एक संगठित चाल है, जहां जाति और आवासीयता दोनों को आधार बनाया गया।
यह सर्वविदित तथ्य है कि भारत में शैक्षिक क्षेत्र में लैंगिक खाई लगातार सिमट रही है। बिहार की बेटियां देश के अनेक महानगरों में अपनी योग्यता और मेहनत के दम पर पहचान बना चुकी हैं। सूचना क्रांति, बढ़ती अपेक्षाओं और सामंती बंधनों के ढीले पड़ते जाने के कारण अब ग्रामीण बिहार की बेटियां भी ऊंचे सपने संजो रही हैं। हाल ही में बिहार में शिक्षकों की नियुक्ति के दौरान यह देखा गया कि देश के विभिन्न प्रदेशों की योग्य लड़कियां इंटरव्यू देने आईं, जिनमें से अनेक ने सफलता प्राप्त की और अब बिहार के सरकारी स्कूलों में अध्यापन कर रही हैं। निस्संदेह, यह एक सैद्धांतिक रूप से प्रगतिशील और समावेशी समाज का प्रतीक है, जहाँ महिलाएं सीमाओं से परे जाकर अपनी पहचान बना रही हैं। लेकिन व्यावहारिक धरातल पर देखें, तो महिला सुरक्षा, सामाजिक असमानता, आवास व पारिवारिक बाधाएं, और प्रवास की मजबूरियाँ अब भी मौजूद हैं। ऐसे में यदि सरकारें योग्य महिलाओं को उनके घर के आस-पास ही रोजगार के अवसर उपलब्ध कराएं, तो यह न केवल महिला सशक्तिकरण की दिशा में सार्थक कदम होगा, बल्कि सामाजिक संरचना में स्थिरता और पारिवारिक सहूलियत का भी कारण बनेगा। यही कारण है कि नीतीश कुमार सरकार महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए एक के बाद एक योजनाएं ला रही है। साइकिल योजना, पोशाक योजना, कन्या उत्थान योजना, वृद्धावस्था पेंशन में वृद्धि, पिंक टॉयलेट, महिला पुलिस भर्ती में आरक्षण जैसे कई कदम इस सिलसिले में पहले ही उठाए जा चुके हैं। यह मान्यता कि बेटियां अब सिर्फ अपने घरों की शोभा नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण की भागीदार हैं, नीति निर्माण में स्पष्ट झलकने लगा है। यह न केवल बिहार की महिलाओं को उनके अधिकार का अनुभव कराएगा, बल्कि बेरोजगारी से जूझते प्रदेश में स्थानीय प्रतिभा के पलायन को भी रोकेगा। इस फैसले से खास तौर पर निम्न और मध्यमवर्गीय महिलाओं को फायदा होगा, जिनके लिए दूसरे शहरों में जाकर नौकरी करना एक बड़ा पारिवारिक और सामाजिक संकट बन जाता है। घर के पास नौकरी मिलने से न केवल सुरक्षा की भावना बढ़ेगी, बल्कि समाज में महिलाओं की स्थायी उपस्थिति और भूमिका भी मजबूत होगी।
हालांकि इस फैसले को लेकर विपक्षी दलों की मिश्रित प्रतिक्रिया सामने आई है। राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने इसे नीतीश कुमार की चुनावी चाल बताया है और आरोप लगाया है कि सरकार महिलाओं की वास्तविक समस्याओं को दूर नहीं कर पा रही, बल्कि सिर्फ भावनात्मक मुद्दों को उछालकर वोट बटोरने की कोशिश कर रही है। तेजस्वी यादव का कहना है कि “महिला आरक्षण सही है, लेकिन रोजगार के अवसर कब हैं? सरकारी नियुक्तियों की प्रक्रिया वर्षों से लटकी रहती है, परीक्षा की तारीखें टलती हैं, नियुक्ति पत्र देर से आते हैं, ऐसे में आरक्षण का लाभ कब और किसे मिलेगा?” उनकी बातों में सच्चाई भी है, क्योंकि प्रक्रियाओं की पारदर्शिता और समयबद्धता भी उतनी ही आवश्यक है जितनी आरक्षण की नीति। यह महिला आरक्षण अब केवल बिहार के स्थायी निवासियों अर्थात डोमिसाइल महिलाओं के लिए ही होगा। यानी जो महिलाएं राज्य की स्थायी निवासी नहीं हैं, उन्हें इस आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा-उन्हें सामान्य श्रेणी में आवेदन करना होगा। इसलिये इसे केवल घरेलू हितों को साधने वाला प्रत्यक्ष प्रचार माना जा रहा है, जिसमें गैर-स्थायी निवासियों को अवसरों से वंचित किया जा रहा है। विपक्ष इस कदम को डोमिसाइल नीति के अनुरूप बताते हुए सवाल उठा रहा है कि क्या इससे सामाजिक न्याय और समान अवसर की भावना नहीं बिगड़ जाएगी?
बिहार में बेरोजगारी चुनावी चर्चा का मुख्य मुद्दा है। युवा खासकर उच्चशिक्षित वर्ग नौकरी की तलाश में है। 35  प्रतिशत आरक्षण के साथ-साथ सरकार ने वेकेंसी क्रिएशन, युवा आयोग गठन, कृषि व सड़क इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च जैसे उपाय किए है। 2025 के बिहार चुनाव बहुआयामी लड़ाई से परिपूर्ण है, जातिगत समीकरण, युवा और ग्रामीण विकास, मतदाता सूची संशोधन जैसे मुद्दों ने चुनावी माहौल को गहराई दी है। सरकार ने पिछले बजट में ‘महिला हाट’, ‘पिंक बस’, ‘पिंक टॉयलेट’, स्कूल जाने वाली लड़कियों के लिए साइकिल योजनाएं, दिव्यांग उम्मीदवारों के लिए “संबल” वित्तीय सहायता जैसी महिलाओं को लुभाने वाली योजनाओं के प्रावधान किये हैं। नीतीश सरकार ने चुनावों को देखते हुए सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना के तहत मिलने वाली राशि में भारी बढ़ोतरी की घोषणा की है। अब वृद्ध, दिव्यांग और विधवा महिलाओं को प्रतिमाह 400 रुपए की बजाय 1100 रुपए पेंशन मिलेगी। इस घोषणा के बाद पूरे बिहार में पेंशन के 1 करोड़ 9 लाख 69 हजार लाभार्थियों में हर्ष का माहौल दिखाई दे रहा है।
यह कहना उचित होगा कि बिहार की राजनीति इस बार स्थानीयता, जातिगत समीकरण और सामाजिक कल्याण के मिश्रित आरोपणों के बीच गंभीर मुठभेड़ के दौर से गुजर रही है। चुनाव नतीजे यह तय करेंगे कि क्या यह रणनीतियाँ सचमुच सतत परिवर्तन की ठोस बुनियाद रखेंगी, या चुनावी भाषण के बाद हवा में खो जाएँगी। नवीनतम ओपिनियन पोल बताते हैं कि एनडीए फिर सत्ता में लौट सकता है, खासकर महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों के बीच मजबूत समर्थन के चलते। वहीं, महागठबंधन (आरजेडी, कांग्रेस, अन्य) जातीय समीकरण (ईबीसी-ओबीसी) का आधार लेकर मुकाबले में है।

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