राजनीति

मुलायम की सदन के बाहर लामबंदी के निहितार्थ

 सिद्धार्थ शंकर गौतम

कोल ब्लॉक आवंटन घोटाले पर कैग की रिपोर्ट से संसद में छिड़ी अस्मिता की लड़ाई के बीच समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव का लेफ्ट व टीडीपी का समर्थन लेकर संसद के बाहर धरने पर बैठना कई निहितार्थों की ओर संकेत करता है| केंद्र में कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के लिए संकटमोचक की भूमिका का निर्वहन कर रहे मुलायम सिंह २०१४ के आम चुनाव में दिल्ली की गद्दी का स्वप्न संजोए हैं| इस तथ्य की पुष्टि इस बात से भी होती है कि उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी को मिले स्पष्ट जनादेश के बावजूद भी मुलायम सिंह ने स्वयं मुख्यमंत्री बनने के बजाए अपने पुत्र को राजनीतिक विरासत सौंपते हुए दिल्ली का रुख कर लिया| कांग्रेस व सरकार से दोस्ती निभाते-निभाते मुलायम सिंह का यूँ अचानक धरने पर बैठना तीसरे मोर्चे को जिन्दा करने की कवायद बतौर भी देखा जा रहा है| तो क्या एक बार पुनः आम चुनाव से पूर्व तीसरे मोर्चे के गठन हेतु सुगबुआहट शुरू हो गई है? क्या सरकार की गिरती साख तथा विपक्ष में पड़ती दरार के मद्देनज़र मुलायम की तीसरे मोर्चे को जिन्दा करने की कोशिश परवान चढ़ेगी? यहाँ यह भी देखना होगा कि यदि तीसरा मोर्चा अस्तित्व में आता भी है तो उसमें कौन से दल शामिल होंगे, उनकी विभिन्न विचारधाराओं के बीच किस प्रकार सामंजस्य बैठेगा, फिर राष्ट्रीय पार्टियों से इतर उसमें मौजूद क्षेत्रीय दल किस नीति के तहत जनता के पास वोट मांगने जायेंगे, आदि| यहाँ एक सवाल और प्रमुखता से आता है कि क्या तीसरे मोर्चे का संभावित गठन राजनीति में चौथे मोर्चे के गठन का मार्ग प्रशस्त नहीं करेगा? इसकी संभावनाओं को इसलिए भी नकारा नहीं जा सकता क्योंकि क्षेत्रीय नेताओं में वैचारिक रूप से इतने मतभेद हैं कि उनका एक मंच पर आना असंभव जान पड़ता है| और यदि वे साथ मिलकर मंच साझा भी कर लें तो उसका अस्तित्व कितने दिन चलेगा, इसमें संदेह है? गौरतलब है कि माया-मुलायम का एक मंच पर आना वर्तमान सियासी परिदृश्य में कठिन ही है वहीं ममता कांग्रेस छोड़ यदि मोर्चों की राजनीति में आईं तो जयललिता व अब काफी हद तक उनकी मुलायम सिंह के साथ पटरी नहीं बैठने वाली| फिर मुलायम के पाले में लेफ्ट पार्टियां तो हैं ही|

 

मुलायम सिंह को यह भी उम्मीद है कि कांग्रेस-भाजपा के साथ गठबंधन कर रही पार्टियां भी सियासी नफा-नुकसान के चलते उनका साथ देगीं| इस फेरहिस्त में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है जो एनडीए गठबंधन में भावी प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में नरेन्द्र मोदी का नाम प्रमुखता से उछाले जाने से नाराज हैं| वैसे नीतीश की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी मुलायम सिंह के सपने जैसी हैं और इस बात की संभावनाएं कम ही हैं कि नीतीश मुलायम का साथ देंगे, हाँ इतना जरूर हैं कि जिस चौथे मोर्चे के गठन की आशंका जताई है, कहीं नीतीश उसी का नेतृत्व का करने लगें| इस लिहाज से देखा जाए तो भावी लोकसभा चुनाव में विकल्पों की भरमार होने वाली है और इतिहास गवाह है कि जब-जब जनता को अधिक विकल्प मिले हैं, उसने जनादेश भी उतना ही बिखरा हुआ दिया है| यह भी साबित हो चुका है कि अब वह राजनीतिक दौर नहीं रहा जबकि गठबंधन धर्म निभाने की खातिर नेता स्वहित को तिलांजलि दें| सभी जानते हैं कि दिल्ली की गद्दी पर किसी का भी भाग्य चमक सकता है और ऐसी स्थिति में तो सभी अपने राजनीतिक कौशल का भरपूर इस्तेमाल करेंगे| वैसे तीसरे मोर्चे से लेकर चौथे मोर्चे के गठन की कवायद अभी संशय के घेरे में है किन्तु यदि ऐसा होता है तो मोर्चों का यह संभावित गठन देश में राजनीतिक अस्थिरता के दौर को अधिक लंबा कर देगा| जहां तक मुलायम सिंह यादव की राजनीति की बात है तो वह इन दिनों जो सियासी करवट ले रही है उससे यह स्पष्ट है कि मुलायम जल्द से जल्द आम चुनाव के पक्ष में हैं ताकि कांग्रेस-भाजपा विरोध की देशव्यापी लहर में उनका सपना पूरा हो सके| वैसे भी मुलायम सिंह यह स्वीकार कर चुके हैं कि भावी लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी यदि ४० से अधिक सीटें लाने में कामयाब होती है तो निश्चित तौर पर भावी सरकार का गठन उनके बिना नहीं होगा और यदि वर्तमान परिस्थितियों में उत्तरप्रदेश के लिहाज से देखें तो पार्टी इस वक़्त इतनी सीटें निकालने की सूरत में तो है ही| कुल मिलाकर मुलायम सिंह कांग्रेस से दोस्ती रखते हुए परदे के पीछे से राजनीति को जो दिशा देना चाहते हैं, यदि उसमें कामयाब होते हैं तो निश्चित रूप से यह कांग्रेस के लिए सदमा होगा परन्तु मुलायम सिंह के लिए स्वर्णिम असवर| अतः कांग्रेस जितना जल्दी हो मुलायम के सियासी पैंतरों को भांप लें ताकि उसे भी राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार चुनते वक्त ममता की तरह भौचक न होना पड़े|