डॉ. नीरज भारद्वाज
संस्कारों की अमृतधारा भारतवर्ष में बहती रही है और भविष्य में भी बहती रहेगी। हमारा ज्ञान ही हमें विश्व में अन्य देशों से अलग करता है। जहां तक हिंदू शब्द की बात है, हिंदू सनातन की आत्मा है। विश्व में जो भी भारतीय ज्ञान परंपरा को जानता है और सनातन संस्कृति को मानने वाला है, वह हिंदू है। सनातन संस्कृति में रिश्तों का तना-बना है, उसे निभाने की पूरी प्रक्रिया है, उसी के अनुसार जीवन जीने का सुंदर समभाव है। देवी-देवताओं की पूजा, प्रकृति प्रेम,हरक्षण में विश्व का कल्याण भाव, यही भाव व्यक्ति को हिंदू बनाता है। हिंदू शब्द को लेकर बहुत सारी परिभाषाएं और विचार हमारे सामने आते हैं। विचार करें तो मानवीय भाव से भरा, जो संवेदना की गहरी पैठ में बैठा सभी के विकास की बात सोच रहा है, वह हिंदू है।
हमारी सनातन संस्कृति तोड़ने की नहीं जोड़ने की रही है। हमने सभी के साथ अपना ताना-बाना जोड़ा है। विश्व का कोई देश नहीं कह सकता कि हमने कहीं लूटपाट की है। हमने किसी के साथ हृदयघात किया है। विचार करें तो हमारी दहलीज पर जो भी आया है, हमने उसका स्वागत किया है। तैत्तिरीय उपनिषद का यह मंत्र सभी को याद है अतिथि देवो भव अर्थात हमने सदा सभी का आदर-सत्कार किया है। गरूड पुराण का यह श्लोक ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्॥‘ सभी के सुख की बात करता है।
भारतीय ज्ञान परंपरा बहुत लंबी है। गीता में भगवान कहते हैं कि, इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्|विवस्वानमन्वे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।। अर्थात भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैंने इस अविनाशी योग (ज्ञान) को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा। इसके बाद भगवान दूसरे और तीसरे श्लोक में इसकी पूरी बात कहते हैं कि यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है। गीता ज्ञान का पुंज है, यहीं से मूल तत्व का बोध होता है। न हि ज्ञान सदृशं पवित्रमिह विद्यते। तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।। अर्थात इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने आप ही आत्मा में पा लेता है। आगे कहते हैं कि श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। अर्थात श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है।
ज्ञान शाश्वत और सत्य है। हमारे वेद, शास्त्र, ग्रंथ आदि ज्ञान के प्रतीक हैं। हमारा साहित्य ज्ञान विश्व की धरोहर है। जो भी आक्रमणकारी इस देश में आया उसने सबसे पहले हमारी ज्ञान परंपरा पर हमला बोला। उसे तोड़ा, हमारे शास्त्रों को जला दिया। हमारे लोगों को उस ज्ञान से वंचित रखा गया, कुछ को छोड़कर। समय के साथ-साथ साहित्य में परिवर्तन आया। विचार करें तो संस्कृत के बाद हिंदी भाषा भारतवर्ष की मजबूत कड़ी रही है। इसके समृद्ध साहित्य ने लोगों को जागृत किया। हिंदी साहित्य में आदिकाल से वर्तमानकाल तक समाज के हर एक पक्ष को देखा-समझा और उस पर चिंतन करके लिखा। साहित्य के बहुत सारे पक्ष और आयाम होते हैं। हम यहाँ हिंदू शब्द और परंपरा पर ही बात कर रहे हैं। आदिकालीन काव्य में ‘हिन्दू’ शब्द का प्रयोग पृथ्वीराज रासो (13वीं शताब्दी), जिसके रचियता चंदबरदाई रहे, उसमें ‘हिंदूवान’शब्द का प्रयोग मिलता है, जो ‘हिंदू’ से संबंधित है। भक्तिकाल के सभी कवियों ने हिंदू शब्द का प्रयोग किया है।
हमारे संतों, मुनियों, महात्माओं, समाज सुधारकों आदि ने समाज से जाति-पाति, ऊंच-नीच आदि सभी को मिटाया है। भारतीय ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ाया है। सभी को साथ लेकर चलने की बातकही है। वर्तमान में भी हमारे साधु, संत, महात्मा, कथा वाचक आदि सभी को साथ लेकर चलने की बात करते हैं और सभी को साथ लेकर चलते भी हैं। बाबा बागेश्वर धाम के महंत आचार्य धीरेंद्र शास्त्री जी की सनातन हिंदू एकता पदयात्रा दिल्ली से वृंदावन तक की रही। यह यात्रा समाज में एकता, भाईचारे, विश्वकल्याण का भाव लेकर चली। इस यात्रा में साधु, संत, महात्मा, आमजन, फिल्मी सितारे आदि कितने ही लोग जुड़ते चले गए।
इस पावन यात्रा में ऋषिकेश में परमार्थ निकेतन के संरक्षक परम श्रद्धेय स्वामी चिदानंद मुनि जी महाराज भी उपस्थित रहे। पूज्य मुनि जी रोजाना संध्या समय होने वाली गंगा आरती में समाज को सुंदर संदेश और भारतीय ज्ञान परंपरा की बातें बताते हैं। संतों का संदेश समाज को नई दिशा देता है। इस यात्रा में समाज के सभी लोगों को जोड़ना, उनमें आपसी भाईचारे का संदेश देना प्रमुख रहा है। हमारी संत परंपरा ने लोगों में ज्ञान, श्रद्धा, भक्ति, भाव आदि कितने ही गुणों को भरा है। हमारी पूरी ज्ञान परंपरा और संत, महात्मा परंपरा को सादर प्रणाम है।
डॉ. नीरज भारद्वाज