राजनीति

चुनावी लोकतंत्र में मतदाता की बढ़ी भागीदारी

संदर्भ-बिहार विधानसभा चुनाव में बढ़ा मतदान का प्रतिषत

प्रमोद भार्गच
इस बार बिहार विधानसभा चुनाव के प्रथम चरण में जिस बड़ी संख्या में लोगों ने मतदान किया, वह पहली बार देखने में आया है। 64.66 प्रतिषत हुए इस मतदान में लोगों की सजगता तो दिखी ही, जंगलराज के लिए बदनाम रहे बिहार में निर्भीक मतदान कराने में निर्वाचन आयोग की भी अहम् भूमिका रही है। प्रषांत किषोर की सुराज पार्टी को कितने प्रतिषत वोट मिलते हैं, यह तो परिणाम के बाद ही तय होगा, लेकिन उन्होंने पूरे बिहार में स्वच्छ व निडर मतदान के लिए जो अभियान चलाया, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। प्रवासी मतदाताओं के मुद्दे को न केवल प्रषांत ने उठाया, बल्कि स्थानीय स्तर पर रोजगार के उपाय भी बताए। इस कारण प्रवासी मतदाताओं ने देषभर से बिहार आकर चुनाव में बढ़-चढ़कर भागीदारी की। इसीलिए यह मतदान राज्य में हुए अब तक के चुनावों में एक कीर्तिमान माना जा रहा है। पहले चरण में राज्य के 18 जिलों की 121 विधानसभा सीटों पर मतदान हुआ है। शेष सीटों पर दूसरे चरण में 11 नवंबर को मतदान होगा। अब संभावना है कि वोट का प्रतिशत 65 से भी ऊपर जा सकता है ?      
  अंदाजा लगाया जा रहा है कि इतनी भारी संख्या में मतदान के लिए लोगों का निकलना सत्ता विरोधी रुझान का संकेत है। कांग्रेस और राजद इसे बदलाव के रूप में देख रही हैं। वहीं दूसरी तरफ राजग गठबंधन का दावा है कि मत प्रतिषत बढ़ने से राजग की सीटों में इजाफा होगा।

पारंपरिक नजरीए से मतदान में बड़ी रूचि को सामान्यतः एंटी-इन्कंबेंसी का संकेत, मसलन मौजूदा सरकार के विपरीत चली लहर माना जाता है। इसे प्रमाणित करने के लिए 1971,1977 और 1980-2014 के आम चुनाव में हुए ज्यादा मतदान के उदाहरण दिए जाते हैं। लेकिन यह धारणा कुछ चुनावों में बदली है। 2010 के चुनाव में बिहार में मतदान प्रतिषत बढ़कर 52 हो गया था, लेकिन नीतीष कुमार की ही वापिसी हुई। जबकि पष्चिमी बंगाल में ऐतिहासिक मतदान 84 फीसदी हुआ और मतदाताओं ने 34 साल पुरानी मार्क्सवादी कम्युनिश्ट पार्टी की बुद्धदेव भट्रटाचार्य की सरकार को परास्त कर, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को जीत दिलाई। गोया लगता है मतदाता पारंपरिक जड़ता और प्रचालित समीकरण तोड़ने पर आमदा हैं।
बावजूद मत प्रतिषत का सबसे अह्म, सुखद व सकारात्मक पहलू है कि यह अनिवार्य मतदान की जरूरत की पूर्ति कर रहा है। हालांकि फिलहाल हमारे देष में अनिवार्य मतदान की संवैधानिक बाध्यता नहीं है। मेरी सोच के मुताबिक ज्यादा मतदान की जो बड़ी खूबी है, वह है कि अब अल्पसंख्यक व जातीय समूहों को वोट बैंक की लाचारगी से छुटकारा मिल रहा है। इससे कालातंर में राजनीतिक दलों को भी तुश्टिकरण की मजबूरी से मुक्ति मिलेगी। क्योंकि जब मतदान प्रतिषत 75 से 85 होने लगता है, तो किसी धर्म, जाति, भाशा या क्षेत्र विषेश से जुड़े मतदाताओं की अहमियत कम हो जाती है।  नतीजतन उनका संख्याबल जीत या हार की गारंटी नहीं रह जाता। लिहाजा सांप्रदायिक व जातीय आधार पर ध््रावीकरण की राजनीति नगण्य हो जाती है। क्योंकि कोई प्रत्याषी छोटे मतदाता समूहों को तो लालच का चुग्गा डालकर बरगला सकता है, लेकिन संख्यात्मक दृश्टि से बड़े समूहों को लुभाना मुष्किल होगा ? लेकिन 2023 में मध्यप्रदेष विधानसभा के चुनाव में तबके मुख्यमंत्री षिवराज सिंह चौहान ने लाडली बहना सम्मान निधि योजना को अमल में लाकर महिलाओं को रिझाकर अपनी जीत पक्की कर ली थी। इसी तर्ज पर बिहार में भी बड़ी संख्या में महिलाओं को एक मुष्त 10,000 रुपए मुख्यमंत्री नीतीष कुमार ने देकर भाजपा-जदयू की जीत की ओर कदम बढ़ा दिया है। अतएव यह कहना उचित नहीं लगता कि मतदान का बढ़ा प्रतिषत सत्ताविरोधी रूझान है।
इस बढ़े प्रतिषत का कारण मतदान के लिए बनाई गईं वे अनुकूल स्थितियां भी हैं, जिन्हें चुनाव आयोग ने अंजाम तक पहुंचाने का काम किया है। चुनाव से पहले मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण की कार्यवाही हुई। इसके चलते बांग्लादेषी और रोहिंग्या घुसपैठियों पर षिकंजा कसा और बड़ी संख्या में मतदाता बाहर हुए। चुनाव प्रक्रिया के दौरान बिहार का प्रमुख छठ पर्व पड़ा, जिसके कारण बिहार के जो लोग दूसरे राज्यों में काम कर रहे थे, वे त्योहार के बहाने बिहार पहुंचे और मतदान भी किया। दूसरे चरण के मतदान के लिए भी प्रवासी रुके हुए हैं। इंडिया गठबंधन ने भी महिलाओं के लिए माई-बहन योजना और प्रत्येक परिवार में से एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी देने का वादा करके जो बड़ा दांव चला है, वह भी वोट-प्रतिषत ब्रढ़ने का एक कारण रहा है। मतदाता पुनरीक्षण प्रक्रिया ने सबसे ज्यादा मुस्लिम मतदाताओं को प्रभावित किया है। इस कारण एक समय जो वोट प्रशांत किशोर की सुराज पार्टी की तरफ झुकता दिखाई दे रहा था, वह राजग के विरुद्ध ध्रुवीकृत हुआ और उसने षत-प्रतिषत मतदान में भागीदारी की। राजद अपनी जीत का आधार यादव और मुस्लिम वोटों के बने समीकरण को मानकर चल रहा है।
इधर बड़े मतदान में रेलवे ने दावा किया है कि 13 हजार से अधिक रेलें चलाकर 3 करोड़ से भी ज्यादा मतदाताओं को बिहार की धरती पर पहुंचाकर उसने मतदान में बड़ी भागीदारी कराई है। बिहार आने-जाने वाले लोगों को बीस प्रतिषत किराए में छूट भी दी गई है। दूसरी तरफ बिहार राज्य परिवहन निगम की बसों में भी बीस से तीस प्रतिषत तक की छूट के साथ दिल्ली, उप्र, पंजाब, हरियाणा एवं अन्य राज्यों के लिए विषेश बसें चलाई गई हैं। साफ है, डबल इंजन की सरकार का यह फार्मूला क्या परिणाम देता है, यह तो वोटों की गिनती के बाद ही पता चलेगा, किंतु मतदान प्रतिषत बढ़़ाने का काम इस प्रक्रिया ने फिलहाल कर दिया है।  
लोकतंत्र की मजबूती के लिए आदर्श स्थिति यही है कि हरेक मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करे। इस नाते 2005 में भाजपा के एक सांसद लोकसभा में ‘अनिवार्य मतदान’ संबंधी विधेयक लाए भी थे। लेकिन बहुमत नहीं मिलने के कारण विधेयक पारित नहीं हो सका था। कांग्रेस व अन्य दलों ने  इस विधेयक के विरोध का कारण बताया था  कि दबाव डालकर मतदान कराना संविधान की अवहेलना है। क्योंकि भारतीय संविधान में अब तक मतदान करना मतदाता का स्वैच्छिक अधिकार तो है, लेकिन वह इस कर्तव्य-पालन के लिए बाध्यकारी नहीं है। लिहाजा वह इस राष्ट्रीय दायित्व को गंभीरता से न लेते हुए, उदासीनता बरतता है। हमारे यहां आर्थिक रूप से संपन्न सुविधा भोगी जो तबका है, वह अनिवार्य मतदान को संविधान में दी निजी स्वतंत्रता में बाधा मानते हुए इसका मखौल उड़ाता है। बिहार के मतदाता के समक्ष चुनावी प्रलोभनों की कसौटी जरूर है, लेकिन मतदाता अपने दायित्व के प्रति भी सजग हुआ है। इस कारण भी मत-प्रतिषत बढ़ा है।

प्रमोद भार्गव