राजनीति

आरक्षण के लिए ब्राह्मण बेटियों पर अभद्र टिप्पणी

संदर्भः एक आईएएस द्वारा आरक्षण के लिए ब्राह्मण बेटियों पर अभद्र टिप्पणी
आरक्षण के लिए ब्राह्मण-बेटियों की बेहूदी मांग
प्रमोद भार्गव
मध्य-प्रदेश में आईएएस अधिकारी का आचरण आदर्श व्यवहार के प्रति नितांत अभद्र बयान के रूप में सामने आया है। यह बयान केवल ब्राह्मणों की बेटियों के लिए ही नहीं, बल्कि समूचे देष की बेटियों के प्रति जातिसूचक अशोभनीय बयान है, जो कतई बर्दाश्त के लायक नहीं है। राजधानी भोपाल में कृषि विभाग में उपसचिव स्तर के आईएएस संतोश वर्मा ने आरक्षण का पक्ष लेते हुए विवादित बयान में ब्राह्मण समाज की बेटियों को लपेटा है। उन्होंने कहा कि जब तक मेरे बेटे को कोई ब्राह्मण अपनी बेटी दान न कर दे या उससे संबंध न बना ले तब तक आरक्षण जारी रहना चाहिए। केवल आर्थिक आधार की बात है तो जब तक रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं होता, तब तक सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण की पात्रता बनी रहनी चाहिए। वर्मा ने यह टिप्पणी मध्यप्रदेष अनुसूचित जाति एवं जनजाति अधिकारी तथा कर्मचारी संघ का प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद एक सभा में कही है। इस कथन का वीडियो बहुप्रसारित होने के बाद इसका विरोध न केवल ब्राह्मणों ने किया, बल्कि सभी जातियों के प्रभुत्व नागरिकों ने भी किया है। इस आक्रोश के बाद संतोष वर्मा को राज्य सरकार ने निलंबित कर दिया। लेकिन इस बयान के बाद संतोष वर्मा के राज्यसेवा में रहते हुए काले-चिट्ठे का सिलसिलेवार खुलना शुरू हो गया। अब सवाल यह उठ रहा है कि अनेक आपराधिक कृत्यों का आरोपी आखिरकार उस भाजपा सरकार में सेवा में कैसे है, जो नारियों के सम्मान की चिंता का दावा करने से अघाती नहीं है। उनकी आईएएस हेतु पदोन्नति पर भी सवाल उठ रहे हैं।
इस टिप्पणी के आद संतोष वर्मा बैकफुट पर तो है। उनके दुराचरण और फर्जीवाड़े की नई-नई परतें रोजाना खुल रही हैं। उन्होंने आईएएस की पदोन्नति के लिए विषेश न्यायाधीश विजय रावत के नाम से जाली आदेश व हस्ताक्षर तैयार कराए। इन दस्तावेजों और आदेश की सत्यापित प्रति के आधार पर उन्होंने खुद को बरी दिखाकर आईएएस कैडर और पदोन्नति हासिल कर ली। जबकि जिस दिन का यह आदेश है, उस दिन विजय रावत छुट्टी पर थे। जांच में यह आदेश फर्जी पाया गया। उन पर धोखाधड़ी की एफआईआर दर्ज हुई। 27 जून 2021 को पुलिस ने वर्मा को गिरफ्तार किया और राज्य शासन ने उन्हें निलंबित कर दिया। उनके विरुद्ध आईपीसी की धारा 420 (धोखाधड़ी), 467, 471, (कूटरचित दस्तावेज) और 120-बी (साजिश ) में मामला दर्ज है। इस प्रकरण की एसीपी सेंट्रल कोतवाली में अभी भी जांच चल रही है।
संतोष वर्मा पर इंदौर के लसूडिया थाने में एक महिला ने धोखाधड़ी और शारीरिक शोषण की एफआईआर दर्ज कराई थी। पीड़ित महिला का कहना था कि वर्मा ने शादी का झांसा देकर विश्वासघात किया। वह पहले से ही विवाहित था। जिसे उसने छिपाया और बाद में शादी से मना कर दिया। इस पर महिला ने एफआईआर के साथ कई जगह सरकार को शिकायती पत्र भी लिखे। लेकिन राज्य सरकार न केवल चुप्पी साधे रखी, बल्कि भारतीय प्रशासनिक सेवा संवर्ग के लिए पदोन्नत करने की अनुशंसा भी कर दी। सरकार का यह नितांत गैर-जुम्मेवाराना काम रहा था। इस पदोन्नति से संतोष वर्मा का अहंकार बड़ा और उन्होंने आरक्षण के बहाने ब्राह्मण बेटियों पर जिस तरह की निंदनीय टिप्पणी की, उसकी उम्मीद किसी समझदार व्यक्ति से कतई नहीं की जा सकती है ? यहां प्रश्न यह भी उठता है कि जिस अधिकारी को सेवा आचरण नियमावली तक का ज्ञान नहीं है, उसे कैसे सरकार ने आईएएस बना देने की अनुशंसा भारत सरकार को कर दी ? ऐसी दूषित मानसिकता के अधिकारियों से निष्पक्ष कार्यशैली की उम्मीद कतई नहीं की जा सकती है ? अतएव राज्य सरकार को निलंबन से आगे जाकर सेवा समाप्ति की कार्यवाही तो करने की जरूरत तो है ही, पुलिस एवं अदालत में लंबित प्रकरणों पर भी बस्ते में बंद जांच आगे बढ़ाने की भी जरूरत है।
मध्यप्रदेश में उच्चाधिकारियों के व्यवहार में उद्दंडता लंबे समय से बनी चली आ रही है। मुख्यमंत्री कमलनाथ की सरकार के दौरान राजगढ़ जिले के ब्यावरा नगर में संषोधित नागरिकता कानून के पक्ष में प्रदर्शन कर रहे भाजपा नेताओं को जिलाधीश और उप-जिलाधीश ने चांटे जड़ दिए थे। ये चांटे कलेक्टर निधि निवेदिता और डिप्टी कलेक्टर प्रिया वर्मा ने मारे थे। दोनों नौकरशाहों ने महज अहंकार तुश्टि के चलते कार्यकर्ताओं के साथ निरंकुशता बरती थी। इन दोनों अधिकारियों का यह आचरण नागरिक सेवा के विपरीत था। उनके द्वारा स्वयं भीड़ में पहुंचकर मारपीट करना दंडनीय अपराध है। जेएनयू से शिक्षित और ब्रिटिश हुकूमत के दंभ से प्रेरित यही निधी 2016 में सिंगरौली जिला पंचायत की सीईओ रहते हुए एक पंचायत सचिव को उठक-बैठक लगवा चुकी थी।
जिला प्रमुख के ‘कलेक्टर‘ नाम से वह अर्थ और ध्वनि नहीं निकलते हैं, जो उनकी कार्यषैली और कार्य क्षेत्र का हिस्सा है। कलेक्टर का सामान्य अर्थ, संग्राहक, संग्रहकर्ता, संकलनकर्ता, एकत्रित करने वाला अथवा कर उगाहने वाला होता है। जबकि हमारे यहां पदनाम का दायित्व जिले की कानून व्यवस्था और प्रषासनिक दायित्व से जुड़ा है। इसलिए कलेक्टर को डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट अर्थात जिला दण्डाधिकारी भी कहा जाता है। कलेक्टर को जिलाधिकारी अथवा जिलाधीश के पदनामों से भी जाना जाता है, किंतु कलेक्टर पदनाम इतना प्रचलित और प्रभावशील हो गया है कि जो भी आईएएस बनते हैं, उन्हें सबसे ज्यादा गौरव का अनुभव कलेक्टर बनने या कलेक्टर कहलाने में ही होता है। इस बीमार प्रशासनिक तंत्र को दुरुस्त करने के लिए उनकी सेवा-शर्तों को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि बीते दो दशकों के भीतर शासन-प्रशासन के स्तर पर कार्यशैली की गुणवत्ता में बहुत गिरावट आई है और हर क्षेत्र में प्रशानिक निरंकुषता बढ़ी है। षासन यानी सरकार का काम जन-हितैशी व चतुर्मुखी विकास संबंधी ठोस नीतियां बनाना है। स्वीकृत परियोजना के अनुरूप क्रियान्वयन का दायित्व प्रषासनिक अधिकारियों का होता है, जिनमें कलेक्टर जिला प्रमुख होने के साथ अधिकतम अधिकारों से संपन्न भी होता है। इसलिए 95 प्रतिशत कार्यों का संबंध ऐसे उचित क्रियान्वयन से है, जो पूरी तरह नागरिक सेवा के अधिकारियों के हाथ होता है। सच्चाई तो यह भी है कि विधायिका की बजाय अधिकांष नई नीतियों और नए कानूनों के निर्माण में भी अहम भूमिका इन्हीं अधिकारियों की रहती है। इसलिए ज्यादातर कानून इस तरह से परिभाषित किए जाते हैं कि उनमें अंतिम निर्णय का अधिकार अंततः अधिकारी के ही हाथ में रहे। पंचायती राज, सूचना का अधिकार, कानून और उपभोक्ता अदालतों से जनता का मोहभंग हो जाना यही प्रमुख वजह है।
जब शिक्षा-तंत्र पर निगरानी की पहल का दायित्व पंचायतों को सौंपने की बात उठी थी, तब शिक्षकों ने बौद्धिक दंभ दिखाते हुए कहा था कि एक निरक्षर सरपंच उन पर निगरानी कैसे कर सकता है ? यह प्रश्न अपनी जगह तार्किक हो सकता है, लेकिन इस परिप्रेक्ष्य में गौरतलब है कि शिक्षक रोजाना विद्यालय आता है अथवा नहीं ? आता भी है तो वह मटरगश्ती करता है या कुछ पढ़ाता भी है ? इसकी तस्दीक करने का संबंध निगरानीकर्ता के पढ़े-लिखे होने से कतई नहीं है ? आज सरकारी विद्यालयों में गुणवत्ता पूर्ण पढ़ाई से बड़ा सवाल षिक्षक का विद्यालय में उपस्थित नहीं होना है। अब भला शिक्षक की उपस्थिति की तस्दीक करने में निरक्षरता कहां बाधा बनती है ? यहां यह भी गौरतलब है कि एक अनपढ़ व्यक्ति का व्यावहारिक ज्ञान, पढ़े-लिखे से भी कहीं ज्यादा भी हो सकता है ?
कलेक्टर हो या कोई अन्य लोकसेवक उसकी गुणवत्ता का मापदण्ड, उसकी ईमानदारी, कार्यक्षमता और कार्य के प्रति प्रतिबद्धता से होती है। नीतियों व कार्यों पर यदि ठीक से अमल नहीं होता है तो गुणवत्ता ध्वस्त हो जाती है। प्रत्येक राज्य सरकार अनेक श्रेश्ठ नीतियां गरीब, वंचित और किसानों के हित में बनाती हैं, लेकिन प्रशासनिक अकुशलता और भ्रष्टाचार के चलते परिणाम के स्तर पर अमल दोषपूर्ण रहता है। यही वजह रही कि मध्य-प्रदेश में क्लर्क से लेकर आईएस तक जिन अधिकारियों के यहां लोकायुक्त पुलिस ने छापे डाले हैं, उनके यहां से करोड़ों की चल-अचल संपत्तियां बरामद हुई हैं। रंगे हाथों पकड़े जाने के बावजूद ये लोकसेवक धनबल व अपनी पहुंच के जरिए बेदाग बच निकलते हैं। इनका बच निकलना इसलिए भी आसान होता है, क्योंकि बचाव के पक्ष में अनेक कानून और अनुमोदन की कड़ियां हैं। किसी नौकरशाह को गिरफ्त में लेने से पहले इन कड़ियों से पार पाना टेढ़ी खीर होता है। बावजूद कोई भी संवेदनशील\ सरकार इतना तो कर ही सकती है कि भ्रष्टाचार के मामले में पकड़े गए और तकनीकी आधार के बूते छूटे लोकसेवकों को प्रशासनिक दायित्व से मुक्त रखे। लेकिन ऐसा होता नहीं है। यह संतोष वर्मा के मामले में भी साफ दिखाई दे रहा है।