इंडिया क्लब में एंडरसन

3
198

– आशुतोष

वॉरेन एंडरसन। गोरी चमड़ी और भूरी आंखों वाला अमेरिकी बूढ़ा। उम्र 89 वर्ष। 2-3 दिसम्बर 1984 की रात को गैस रिसाव ने भोपाल में जिस त्रासदी को जन्म दिया उसकी गुनहगार अमेरिकी यूनियन कार्बाइड कंपनी का तत्कालीन चेयरमैन। राज्य की तत्कालीन अर्जुन सिंह सरकार ने जिसे औपचारिक गिरफ्तारी के बाद अपने सरकारी विमान में सुरक्षित दिल्ली तक पहुंचाने की जिम्मेदारी बखूबी निभायी और पूरे मामले पर लीपा-पोती कर उसका बच निकलना सुनिश्चित किया।

घटना में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 15 हजार 274 लोगों की मृत्यु हुई और 5 लाख 74 हजार से अधिक लोग प्रभावित हुए। घटना के बाद जन्म लेने वाले बच्चे तक अनेक गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं और उन्हें यह बीमारियां विरासत में मिलीं हैं।

दिसंबर की उन सर्दियों में निर्दोष-निरपराध लोगों की आहों को नजरअंदाज कर दोषियों को बचाने का आपराधिक खेल भोपाल से दिल्ली तक जारी था। भारत सरकार ने एक विशेष अध्यादेश जारी कर पीड़ितों की ओर से स्वयं मुकदमा लड़ने का अधिकार अपने हाथ में ले लिया। अमेरिका की अदालत में मुकदमा दाखिल कर भारत सरकार ने 3 अरब 30 करोड़ रुपये मुआवजे की मांग की। लेकिन अमेरिकी अदालत ने इसके लिये भोपाल में ही मुकदमा चलाये जाने की बात कही।

फरवरी 1989 में भोपाल के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने एंडरसन के खिलाफ अदालत में पेश नहीं होने पर गैर-जमानती वारंट जारी कर दिया। भारत सरकार ने अमेरिका से औपचारिक रूप से उसके प्रत्यर्पण की मांग की किन्तु अमेरिकी सरकार ने उसके लापता होने की बात कह कर पिंड छुड़ा लिया। भारत की जांच एजेंसियों ने भी इस दलील पर आंख मूंद कर भरोसा कर लिया। हालांकि एक ब्रिटिश अखबार के संवाददाता द्वारा न्यूयार्क के बिजहैम्टन स्थित आवास पर गोल्फ खेलते एंडरसन का फोटो प्रकाशित कर दिया गया । सीबीआई के एक जांच अधिकारी के अनुसार विदेश मंत्रालय ने एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिये ज्यादा जोर न देने के निर्देश दिये थे।

सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए एम अहमदी ने दोनों पक्षों को समझौते के लिये न सिर्फ प्रेरित किया बल्कि उच्चतम न्यायालय की मध्यस्थता में सरकार और कंपनी के बीच समझौता हुआ। अंततः उन्होंने ही 330 करोड़ डॉलर के मुआवजे की अपील के विरुद्ध 4 करोड़ 70 लाख डॉलर (भारतीय मुद्रा में लगभग 713 करोड़ रुपये) की क्षतिपूर्ति का आदेश दिया। इस सौदेबाजी में यूनियन कार्बाइड समूह की सभी कंपनियों तथा चेयरमैन वॉरेन एंडरसन के खिलाफ चल रहे सारे आपराधिक मुकदमों को समाप्त मान लिया गया ।

गैस पीड़ितों की ओर से इस फैसले पर पुनर्विचार के लिये ढ़ेरों याचिकाएं दायर की गयीं किन्तु अहमदी ने उन्हें कचरे की टोकरी में डाल दिया। यह अहमदी ही यूनियन कार्बाइड द्वारा बनाये गये भोपाल हॉस्पिटल ट्रस्ट के अध्यक्ष बनाये गये। 25 साल बाद आये फैसले पर टिप्पणी मांगने पर उन्होंने कहा कि- ‘ऐसे मामलों में सरकार ही जिम्मेदार होती है और वे आरोप-प्रत्यारोप के इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते ’।

25 साल बाद मंत्री समूह की बैठक में यह महसूस किया गया कि पीड़ितों को न्याय नहीं मिला है। इस बीच पीडितों में से अनेक दुनियां छोड़ चुके हैं। तब की जवान पीढ़ी अब बुढ़ापे की ओर बढ़ रही है और तब के बच्चे अपनी तमाम बीमारियों और विकृतियों के साथ जवान हो चुके हैं। मंत्री समूह ने लगभग 1265 करोड़ रुपये का मुआवजा दिये जाने की सिफारिश की जिसे सरकार ने स्वीकार भी कर लिया है।

जाहिर है मुआवजे की अतिरिक्त राशि भारत सरकार ही चुकायेगी। अर्थात एक विदेशी कंपनी सारे नियम-कानूनों को ताक पर रख कर भारत में घनी बस्ती के बीच बिना पुख्ता सुरक्षा इंतजामों के विषैले कीटनाशकों के उत्पादन का लाइसेंस ही नहीं प्राप्त करती बल्कि उसका नवीनीकरण भी होता है, आधा दर्जन दुर्घटनाएं होने के बावजूद भी वह संयंत्र की सुरक्षा संबंधी खामियों के प्रति घोर लापरवाही का प्रदर्शन करती है, भीषण दुर्घटना होने पर भी राज्य और केन्द्र की सरकारें उसको सहायता देने की मुद्रा में बनी रहती हैं, सर्वोच्च न्यायालय उस पर त्वरित निर्णय देने के बजाय समझौते का रास्ता दिखाता है और अंततः मंत्री समूह की मानवीयता से लबालब सिफारिशों का निहितार्थ यही है कि मुआवजे की बढ़ी हुई सैकड़ों करोड़ रुपये की रकम उसी करदाता की जेब से निकाली जायेगी जो इस त्रासदी का भुक्तभोगी है।

बात आ ही गयी है तो यह उल्लेख भी प्रासंगिक है कि संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल के अंतिम दिनों में बिना देश को विश्वास में लिये जो नाभिकीय सुरक्षा विधेयक पारित किया गया उसमें ऐसी ही किसी दुर्घटना की स्थिति में जिम्मेदार कंपनी पर क्षतिपूर्ति की राशि की सीमा 500 करोड़ रुपये तय की गयी है।

इस विधेयक को पास करने वाली कैबिनेट में भी प्रायः वही लोग शामिल थे जो भोपाल गैस त्रासदी पर मुआवजे आदि के संबंध में पुनर्विचार के लिये हाल ही में बनाये गये मंत्री समूह में भी हैं। जो मंत्री समूह 1989 में, यूनियन कार्बाइड द्वारा दिये गये 713 करोड़ रुपये की राशि को कम बताते हुए 1265 करोड़ रुपये दिये जाने की सिफारिश करता है, उसी मंत्री समूह के सदस्य 2009 में, कैबिनेट में बैठ कर भविष्य में होने वाली किसी नाभिकीय दुर्घटना की स्थिति में दी जाने वाली क्षतिपूर्ति की राशि 500 करोड़ रुपये निर्धारित करते हैं। अब कुछ कोनों से यह भी चर्चा उठनी शुरू हुई है कि आगे ऐसी पेचीदा स्थिति न उत्पन्न हो इसके लिये कंपनियों को जिम्मेदारी के दायरे से पूरी तौर पर निकाल दिया जाय और सारी जवाबदेही भारत सरकार ओढ़ ले। आखिर यह किस को फायदा पहुंचाने की कोशिश है।

प्रश्न है कि अपने राष्ट्रीय हितों को दरकिनार कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को लाभ पहुंचाने का यह खेल किसके इशारे पर खेला जा रहा है ? उनके लाभ में क्या इन निर्णायकों का भी कोई लाभ शामिल है ? और क्या इन ज्ञात-अज्ञात निर्णायकों का लाभ इतना महत्वपूर्ण है कि उसके लिये अपने नागरिकों के जीवन को भी दांव पर लगाया जा सकता है ?

देश के प्रख्यात वकील और राज्यसभा के सदस्य रह चुके श्री फाली एस नरीमन यूनियन कार्बाइड के अधिवक्ता बने। नरीमन की योग्यता के सभी कायल हैं। एक वकील के नाते जब वे किसी के साथ जुड़ते हैं तो प्रायः फैसला उनके मुवक्किल के हक में ही जाता है। यूनियन कार्बाइड के मामले में तो फैसला आने का भी इन्तजार नहीं करना पड़ा। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर सरकार और कम्पनी के बीच न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही समझौता हो गया।

यद्यपि मंत्री समूह ने यूनियन कार्बाइड के खिलाफ मामले को फिर से खोलने और एंडरसन के प्रत्य़र्पण के प्रयास करने की बात कही है किन्तु सीएनएन-आईबीएन पर करन थापर को दिये साक्षात्कार में फाली नरीमन विश्वासपूर्वक कहते हैं कि अब ऐसा बिल्कुल असंभव है और एंडरसन अथवा यूनियन कार्बाइड को एक ही मामले में दोबारा न्यायालय में नहीं घसीटा जा सकता। यह नरीमन की आलोचना नहीं है बल्कि उच्च व्यावसायिक मूल्यों के प्रति उनकी निष्ठा को प्रणाम करते हुए निवेदन है कि कि उन मूल्यों की रक्षा के लिये उन्होंने लाखों पीड़ितों की चीखों-चीत्कारों को अनसुना कर अपने मुवक्किल के बचाव में इतने पुख्ता कानूनी इंतजाम किये कि भारत जैसे शक्तिशाली देश की संप्रभु सरकार भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती।

नरीमन और उन जैसे अनेक जाने-माने अधिवक्ता अपने पेशे पर नैतिकता, राष्ट्रीय भावना, अच्छे-बुरे और सही-गलत के बोध जैसी दकियानूसी बातों को हावी नहीं होने देते। स्व. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी के पुत्र अभिषेक मनु सिंघवी को बड़े वकील होने का दर्जा विरासत में मिला है। वे राष्ट्रीय कांग्रेस के केन्द्रीय प्रवक्ता भी हैं। यूनियन कार्बाइड के नये मालिक डॉउ केमिकल्स ने उन्हें अपना वकील नियुक्त किया है।

सिंघवी का कहना है कि अधिग्रहण की जिम्मेदारी डाउ पर नहीं लादी जानी चाहिये और यह कंपनी का दायित्व नहीं था कि वह बाद की सफाई करे। डाउ केमिकल्स के प्रतिनिधियों की सत्ता के गलियारों पर कितनी पकड़ थी इसका पता चलता है डाउ के निदेशक राकेश चितकारा द्वारा 6 जून 2006 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मुख्य सचिव टी के ए नायर को लिखे पत्र से। चितकारा ने लिखा- ‘जैसी बात हुई थी, हम अभिषेक मनु सिंघवी से जल्द मिल कर उनका निर्देश प्राप्त करेंगे’। सिंघवी ने भी प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव को छः पृष्ठ का पत्र लिख कर भोपाल गैस त्रासदी की किसी भी तरह की जिम्मेदारी डाउ केमिकल्स पर होने को गलत बताया।

एक अन्य बड़े वकील अरुण जेटली ने अपने मंत्री रहते हुए एंडरसन को लगभग क्लीन चिट ही दे दी। द हिन्दू में प्रकाशित एक खबर के अनुसार जेतली ने सरकारी फाइल पर टिप्पणी करते हुए लिखा- ‘एंडरसन ने ऐसा कोई कृत्य नहीं किया जिसके कारण प्रत्यक्ष रूप से गैस का रिसाव हुआ हो अथवा जान-माल की हानि हुई हो। साथ ही इस बात के भी सबूत नहीं हैं कि एंडरसन को संयंत्र की डिजाइनिंग के दोषों अथवा सुरक्षा खामियों के बारे में जानकारी थी जिनका निराकरण उसने न किया हो’। जेटली का भी मत था कि मूल कंपनी दैनंदिन कामों में हस्तक्षेप नहीं करती इसलिये एंडरसन पर गैस त्रासदी की सीधी जिम्मेदारी नहीं डाली जा सकती।

मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के कार्यालय से मिले निर्देशों के अनुसार ही लाल बत्ती लगी सरकारी एम्बेसडर कार को तत्कालीन पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी स्वयं चला कर एंडरसन को एयरपोर्ट तक छोड़ने गये। कलेक्टर मोती सिंह ने उसे हाथ हिला कर विदा किया। राज्य सरकार का विमान उसे लेकर दिल्ली आया जहां कथित रूप से उसने राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से भेंट की। जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी कहते हैं कि इस सेवा के लिये अर्जुन सिंह को बाद में पारितोषिक भी मिला जब यूनियन कार्बाइड ने उनके द्वारा संचालित चुरहट चिल्ड्रन वेलफेयर ट्रस्ट को तीन करोड़ रुपये दिये।

यूनियन कार्बाइड का अर्जुन सिंह से रिश्ता इस बात से भी जाहिर होता है कि एक बड़े स्थानीय पत्र के मालिक रमेश चंद्र अग्रवाल और संपादक महेश श्रीवास्तव को अपने बंगले पर बुला कर खबरों का तीखापन कम करने के लिये कहा। संपादक को संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि- ‘केवल कलम चलाने से खबर नहीं चला करती, उसके लिये और भी चीजों की जरूरत होती है’।

एक अन्य किरदार हैं केशव महिन्द्रा, जो दुर्घटना के समय यूनियन कार्बाइड इंडिया के चेयरमैन थे। न्यायालय ने उन्हें दो साल की सजा सुनाई है। महिंन्द्रा भारत के जाने-माने उद्योगपति हैं। आजादी से पहले महिन्द्रा एण्ड मुहम्मद के नाम से प्रारंभ उद्योग के साझेदार मलिक गुलाम मुहम्मद विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये और वहां के वित्तमंत्री बने। यहां कंपनी का नाम महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा हो गया। अपनी औद्योगिक हैसियत के चलते वे सरकार की अनेक समितियों के सदस्य और पदाधिकारी हैं। वर्ष 2002 में, जब भोपाल गैस त्रासदी के मुकदमे में केशव महिन्द्रा आरोपी थे, वाजपेयी सरकार ने उन्हें पद्मभूषण पुरस्कार से नवाजा था।

भारत में आम आदमी की जान की कोई कीमत नहीं, यह आपसी बात-चीत में बार-बार कहा-सुना जाता है। किन्तु जब सप्रमाण तथ्य सामने आते हैं तो ध्यान में आता है कि स्थिति कहीं ज्यादा भयावह है। उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह स्थापना दी जा सकती है कि देश पर जनता के प्रतिनिधियों का नहीं बल्कि एक क्लब अथवा समूह का शासन चल रहा है। इनके बीच बाहरी मतभिन्नता दिखती है किन्तु वस्तुतः वे समान हितों के आधार पर एक-दूसरे से बंधे होते हैं।

अपने इस ‘इंडिया क्लब’ की सुरक्षा और समृद्धि के लिये वे सभी एकजुट रहते हैं। उनके लिये थैलियां खोलने वाला एंडरसन इस क्लब का सम्माननीय अतिथि है। उसकी आव-भगत महत्वपूर्ण है और नागरिकों की लाशें गौण। जनता से उनका सरोकार तभी तक है जब तक कि वह उनके इस क्लब की मान्यताओं को पुष्टि देने का काम करती है। मतभेद की स्थिति में जनता की आकांक्षाएं उनके लिये फिजूल हैं, अपनी प्रथमिकताएं अहम्। भोपाल त्रासदी और ऐसे अनेक अवसरों पर साफ नजर आता है कि आर्तनाद करती जनता उनके लिये कीड़े-मकोड़े से ज्यादा हैसियत नहीं रखती। देश की संप्रभुता के मूलाधार ‘हम भारत के लोग’ यदि समय रहते नहीं चेते तो इस घिसटते हुए लोकतंत्र को समर्थ भारत बनाने की राष्ट्रीय आकांक्षा फलित नहीं हो सकेगी।

3 COMMENTS

Leave a Reply to sunil patel Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here