भारत के लिए मानव संस्कृति का विकास बहुत जरुरी है-विवेकानंद

vivekanandस्वामी विवेकानंद(जन्म: 12 जनवरी,1863 – मृत्यु: 4 जुलाई,1902)
शैलेन्द्र चौहान
“जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो। उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो। दुर्बलता को कभी प्रश्रय मत दो।’ जो बातों का बादशाह नही, बल्कि उसे करके दिखाता है। वही प्रेरक इतिहास रचता है।“ विवेकानन्द स्‍वप्न‍दृष्‍टा थे। उन्‍होंने एक ऐसे समाज की कल्‍पना की थी जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्‍य-मनुष्‍य में कोई भेद न रहे। उन्‍होंने वेदान्त के सिद्धान्तों को इसी रूप में रखा। यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धान्त का जो आधार विवेकानन्‍द ने दिया उससे सबल बौद्धिक आधार शायद ही ढूँढा जा सके। विवेकानन्‍द को युवकों से बड़ी आशाएँ थीं।  विवेकानन्द पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। उनका हिन्दू धर्म अटपटा, लिजलिजा और वायवीय नहीं था। उन्होंने यह विद्रोही बयान दिया था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मन्दिरों में स्थापित कर दिया जाये और मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये। उन्होंने धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढ़ियों की खिल्ली उड़ायी और लगभग आक्रामक भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ युद्ध भी किया। 1897  में उन्होंने ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की थी। उसके साथ ही जगह जगह रामकृष्ण मिशन की शाखाओं की स्थापना हुई।  दुनिया के सभी धर्म एक ही ध्येय की तरफ जाने के अलग अलग रास्ते हैं। ऐसी  रामकृष्ण मिशन की मान्यता थी। रामकृष्ण मिशन ने धर्म के साथ-साथ सामाजिक सुधार लाने हेतु विशेष प्रयत्न किये। इसके अलावा मिशन की तरफ से जगह-जगह अनाथाश्रम, अस्पताल, छात्रावास आदि की स्थापना की गई। अंधश्रध्दा, कर्मकांड और आत्यंतिक ग्रंथ प्रामाण्य छोड़ो और विवेक बुद्धि से मानवता का अभ्यास करो। इन्सान की सेवा ही सच्चा धर्म है। ऐसी शिक्षा उन्होंने भारतीयों को दी। उन्होंने जाति व्यवस्था पर प्रहार किया एवं  मानवतावाद और विश्वबंधुत्व का प्रसार किया। वे हिंदू धर्म की दुरावस्था से आहत थे। हिंदू धर्म में तरह तरह की बुराइयों, अन्धविश्वास और संकीर्णता उन्हें कतई स्वीकार्य नहीं थी। एक प्रार्थना सभा में विवेकानंद ने कहा था- भाइयों! कहो कि नंगा भारतीय, अशिक्षित भारतीय, हरिजन भारतीय मेरा भाई है। बहनों! अपनी आवाज और ऊंची उठाकर कहो कि भारत में सिर्फ मानव ही आराध्य है। भारत के लिए मानव संस्कृति का विकास बहुत जरुरी है। आज वर्तमान समय में विवेकानंद के विचारों पर ध्यान देना अधिक प्रासंगिक है, उनका कहना था कि `नया भारत किसानों के हल, मजदूरों की भट्टी, झोपड़ियों, जंगलों, किसानों और मजदूरी से जन्म लेगा ।’ किंतु वर्तमान में इसके विपरीत ही हो रहा है। जंगल नष्ट हो रहे हैं और मजदूर भूखे पेट सो रहे हैं। ऐसे में नया भारत कैसे जन्म लेगा ? हरे-भरे जंगल सीमेंट कांक्रीट के जंगलों में तब्दील हो रहे हैं। फूलों की महक का स्थान चिमनियों के धुएं एवं रसायनों की गंध ने ले लिया है। एकतरफा फसल उत्पादन की ओर भागता किसान न केवल फसल का उचित मूल्य प्राप्त् करने से वंचित रहा है बल्कि अपना अस्तित्व ही मिटाता जा रहा है। भारतीय राजनीति में वोट बैंक की तरह उसका इस्तेमाल भी होता आया है । बहुआयामी चुनौतियों का सामना करता ऋणग्रस्त किसान आखिर मनुष्य ही है। मुसीबत में वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भुलावे में फंस जाता है। किसान इन परिस्थितियों में रेडिमेड कृषि संसाधनों जैसे रासायनिक खाद, तथाकथित उन्नत बीज, कीटनाशकों और यहां तक कि ग्रोथ प्रमोटर एवं अधिक उत्पादन दिलाने वाले कई उत्पादों के चक्कर में फंस जाता है, परिणाम हमारे सामने है। । क्योंकि जब एक बार निर्जीव मिट्टी सजीव को जाएगी तो निश्चित है उत्पादन एवं उत्पादक्ता बढ़ने के साथ किसानो की समृद्धि भी बढ़ेगी ही । इससे न केवल रसायनोंपर होने वाला व्यय एवं ऊर्जा का अपव्यय बचेगा, बल्कि कई बहुआयामी लाभ, जैसे मानव स्वास्थ्य के लिए उत्तम कृषि उत्पाद, फल, सब्जियाँ आदि प्राप्त् होगी जिससे मानव में रोग प्रतिरोध क्षमता भी निश्चित ही बढ़ेगी। औषधियों पर खर्च में कमी आएगी साथ ही बायो एनर्जी का सदुपयोग मिट्टी की सजीवता के लिए संजीवनी सिद्ध होगा । कृषि लागत में कमी से किसानों के लिए सुकून से जीने का अवसर प्राप्त हो सकेेेेगा । कृषि पर लागत अनाप-शनाप बढ़ती गई एवं कर्ज में डूबते किसान सामाजिक पारिवारिक जिल्लतों को न झेल पाने के कारण आत्महत्या कर रहे हैं। देश को विकसित करने के लिए जरूरी है कि गांवों का भी विकास हो । देश को विकसित राष्ट्र की पंक्ति में खड़ा करने के हमारे प्रयासों का केन्द्र बिंदु ये गांव ही होने चाहिए । अधिकांश गांवों में मूलभूत सुविधांए उपलब्ध नहीं है । जंगलों के कट जाने तथ अत्यधिक कुपोषण के चलते आदिवासी तो पलायन कर गुलामों जैसा स्थिति में काम कररने पर मजबूर हैं लेकिन क्या गांवो को मूलभूत सुविधाएं जैसे पक्के मकान, पक्की सड़कें उपलब्ध करा देने मात्र से गा्रमीणो के जीवन स्तर में आमूल चूल परिवर्तन आना संभव है? समय-समय पर विचारक व चिंतक समस्याओ  से रुबरु कराते हुए विकल्प भी प्रस्तुत करते हैं । किंतु ये  सब एकांगी या आंशिक विकास को प्रतिपादित करते हैं । सर्वप्रथम हमें विकास को देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुरुप सही स्वरुप में परिभाषित करने की पुरजोर आवश्यकता है । हम जब तक एकात्म विकास को नही समझेंगे, स्वीकार नहीं करेंगे एवं अपनाएगे नहीं तब तक सर्वागीण विकास नही होगा । एकात्म विकास वस्तुत: सर्वागीण विकास ही है । ग्रामीण विकास पर आर्थिक विश्लेषकों, चिंतको, चिंतको, समाजिक कार्यकर्ताओ  व राजनेताओ  द्वारा अपने-अपने स्तर पर एवं समय-समय पर चिंतन प्रस्तुत किए गए । प्रथम हरित क्रांति का असर अब लगभग समाप्त् सा हो गया है और रासायनिक उर्वरकों के साथ कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग की वजह से हाल ही के वर्षो में भूमि की उर्वरा शक्ति अत्यधिक क्षीण होने से गेहूं उत्पादन और उत्पादकता दोनों में भारी कमी आई है। सिंचित क्षेत्रों के साथ कृषि ऋणों का दायरा बढ़ाने पर भी जोर दिया जाने लगा है । कृषि ऋण ही तो किसान को पथभ्रष्ट कर रहे हैं और यें ही आत्महत्या के लिए उत्तरदायी भी हैं । बीटी कपास एंव बीटी धान की तरह ही गेहूं में भी ऐसा ही कोई प्रयोग करने की वकालत की जाने लगी है । किंतु बीटी प्रजाति अथवा जीएम प्रजाति से आसन्न खतरों की तरफ से जान बूझकर आँखें मूंद ली गई है। मर्ज कुछ और है और दवा कुछ और दी जा रही हैं । वस्तुत: इस विकराल समस्या का हल सिंचित कृषि क्षेत्र बढ़ाना, कृषि ऋण का दायरा बढ़ाना, बीटी प्रजाति, मेक्सिकन ड्वार्फ वेराईटी गेंहू अथवा रासायनिक उर्वरकों के चलन को बढ़ाना बिल्कुल नहीं है । ये सभी विकल्प तो इस समस्या को बढ़ाएगे ही । साथ ही इससे कभी न सुलझाने वाली समस्या का जन्म होगा । मेरे विचार से इस समस्या का एक हल है। नेच्युको कृषि । गेंहू की जिन प्रजातियों से हरित क्रांति संभव हुई है वह भरपूर पेट्रोलियम ऊर्जा, पानी, रासायनिक खाद एवं विद्युत आपूर्ति पर निभर है । एक बार में ही मिट्टी की समूची ऊर्जा का दोहन कर मिट्टी को निर्जीव बना डालने के बाद हमें यह सफलता प्राप्त् हुई है। हरित क्रांति  के चमत्कारिक परिणामों, मशीनीकरण एवं रासायनिक खेती से जितना आर्थिक लाभ किसान को मिला उससे कहीं अधिक उसने खोया है । इतना ही नहीं किसान ने इस दौरान अपनी संवेदनशीलता भी खोई है । कृषि को आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक नए वैज्ञानिक चिंतन की आवश्यकता है जिसमें जीवन के मूलभूत सिद्धांतोंकी अवहेलना न हो । स्थायित्व देने वाली सदाबहार कृषि क्रांति की बात हम तभी कर सकते हैं जब किसानों का संसाधनों, ऊर्जा भंडारण एवं बाजार पर नियंत्रण हो और यह तभी संभव हो सकता है जब प्रोज्यूमर (उत्पादक – उपभोक्ता) सोसायटी अस्तित्व में आ जाए । प्रथम हरित क्रांति के चालीस साल बाद आज भारतीय खेती विचित्र संकट के दौर से गुजर रही है । हरित क्रांति के सभी व्यावहारिक उद्देश्य आज ध्वस्त हो चुके है । एक ओर किसानो द्वारा आत्महत्याओ  का दौर जारी है वहीं योजनाकार और कृषि वैज्ञानिक दूसरी हरित क्रांति की नीव रखने में व्यस्त हैं । लेकिन यह नींव किस और कैसी जमीन पर रखी जा रही है ? नींव रखने के संसाधनों की रुपरेखा में वही तत्व निहित हैं जो प्रथम हरित क्रांति में थे । बल्कि वे तत्व अब और  अधिक विराट रुप में सामने आने वाले हैं । हमारे देश में एक ओर कृषि भूमि को बचांए रखना मुश्किल होता जा रहा है, वही सबसे बड़ी चुनौती यह है कि छोटे और सीमांत किसानों के लिए कृषि के कैसे ज्यादा से ज्यादा आकर्षक बनाया जाए ताकि उनका रुझान खेती की ओर बढ़े । भारत के संदर्भ मेंयह एक सर्वमान्य तथ्य है कि कृषि पर बाजार कभी हावी नहीं रहा । ऐसे में कृषि पर नियंत्रण हासिल कराणे  के लिए जैव तकनीक का सहारा लिया गया । जैव तकनीक अब बहुत तेजी से कृषि का बाजारीकरण तो कर ही रही है परंतु अतिरिक्त चिंताजनक तथ्य यह है कि इससे संपूर्ण मानवता पर ही संकट छा रहा है । तथ्यों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि हमारी अर्थव्यवस्था के स्त्रोत एवं दृंढ़ स्तंभ कृषि एवं काश्तकार दोनों का ही अस्त्वि खतरे में है । हमारी कृषि एवं कृषि संस्कृति पर आधुनिक रासायनिक खेती का बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माध्यम से जो हमला हुआ है, का सामना करने के लिए हमें बाहरी विशेषज्ञों की कतई आवश्यकता नहीं है। जो घातक तत्व इस हमले में सम्मिलित हो गए हैं उन्हें हम अपने स्तर पर ही संस्कृति के विकास, सामग्री चेतना एवं जनजागृति के द्वारा बिना विशेष प्रयासों एंव निवेश के दूर कर सकते है। भूमि अधिग्रहण के उद्योग को किसानों के विकास का पर्याय बताया जा रहा है। ऐसी स्थितियों में किसानों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों और देशी पूंजीपतियों के प्रलोभनों से बचकर रहने की आवश्यकता है।

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