इंडिया नाम कब बदलेगा?

5
173

शंकर शरण

हाल में पश्चिम बंगाल की विधान सभा ने सर्वसम्मति से अपने प्रदेश का नाम ‘वेस्ट बंगाल’ से बदल कर ‘पश्चिम बंग’ कर लिया। यद्यपि इसे तकनीकी कारण देकर बदला गया, किन्तु जबरन थोपे नामों को हटाने की चेतना सारी दुनिया में रही है। कम्युनिज्म के पतन के बाद रूस, उक्रेन, मध्य एसिया और संपूर्ण पूर्वी यूरोप में असंख्य शहरों, भवनों, सड़कों के नाम बदले गए। रूस में लेनिनग्राड को पुनः सेंट पीटर्सबर्ग, स्तालिनग्राड को वोल्गोग्राद आदि किया गया। पड़ोस में सीलोन ने अपना नाम श्रीलंका तथा बर्मा ने म्यानमार कर लिया। स्वयं ग्रेट ब्रिटेन को अपनी आधिकारिक संज्ञा बदलकर यूनाइटेड किंगडम करना पड़ा। इन नाम-परिवर्तनों के पीछे गहरी सांस्कृतिक, राजनीतिक भावनाएं रही हैं।

अतः यह दुखद है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यहाँ अनेक प्रांतों और शहरों के नाम तो बदले, किंतु देश का नाम यथावत विकृत बना हुआ है। समय आ गया है कि जिन लोगों ने ‘त्रिवेन्द्रम’ को तिरुअनंतपुरम्, ‘मद्रास’ को तमिलनाडु, ‘बोंबे’ को मुंबई, ‘कैलकटा’ को कोलकाता या ‘बैंगलोर’ को बंगलूरू, ‘उड़ीसा’ को ओडिसा तथा ‘वेस्ट बंगाल’ को पश्चिमबंग आदि पुनर्नामांकित करना जरूरी समझा – उन सब को मिल-जुल कर अब ‘इंडिया’ शब्द को विस्थापित कर भारतवर्ष कर देना चाहिए। क्योंकि यह वह शब्द है जो हमें पददलित करने और दास बनाने वाली संस्था ने हम पर थोपा था।

यह केवल भावना की बात नहीं। किसी देश, प्रदेश के नामकरण का गंभीर निहितार्थ होता है। दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण शिक्षाप्रद है। वहाँ विगत दस वर्ष में 916 स्थानों के नाम बदले जा चुके हैं! इन में शहर ही नहीं, नदियों, पहाड़ों, बाँधों और हवाई अड्डों तक के नाम हैं। आगे भी कई नाम बदलने का प्रस्ताव है। यह इस सिद्धांत के आधार पर किया गया कि जो नाम जनमानस को चोट पहुँचाते हैं, उन्हें बदला ही जाना चाहिए। वहाँ यह विषय इतना गंभीर है कि ‘दक्षिण अफ्रीका ज्योग्राफीकल नेम काउंसिल’ नामक एक सरकारी आयोग इस पर सार्वजनिक सुनवाई कर रहा है।

अतएव, हमारे देश का नाम सुधारना भी एक गंभीर मह्त्व का प्रश्न है। नामकरण बौद्धिक-सांस्कृतिक प्रभुत्व के प्रतीक और उपकरण होते हैं। पिछले आठ सौ वर्षों से यहाँ विदेशी आक्रांताओं ने हमारे सांस्कृतिक, धार्मिक और शैक्षिक केंदों को नष्ट कर उसे नया रूप और नाम देने का अनवरत प्रयास किया। अंग्रेज शासकों ने भी यहाँ अपने शासकों, जनरलों के नाम पर असंख्य स्थानों के नाम रखे। शिक्षा में वही काम लॉर्ड मैकॉले ने खुली घोषणा करके किया, कि वे भारतवासियों की मानसिकता ही बदल कर उन्हें स्वैच्छिक ब्रिटिश नौकर बनाना चाहते हैं, जो केवल शरीर से भारतीय रहेंगे।

वस्तुतः नाम, शब्द और विचार बदलने का महत्व केवल अंग्रेज ही नहीं समझते थे। जब 1940 में यहाँ मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के अलग देश की माँग की और अंततः उसे लिया तो उसका नाम पाकिस्तान रखा। वे चाहते तो नए देश का नाम ‘वेस्ट इंडिया’ या ‘मगरिबी हिन्दुस्तान’ रख सकते थे – जैसा जर्मनी, कोरिया आदि के विभाजनों में हुआ था, यानी पूर्वी जर्मनी, पश्चिमी जर्मनी तथा उत्तरी कोरिया, दक्षिणी कोरिया। पर मुस्लिम लीग ने एकदम अलग, मजहबी नाम रखा। इस के पीछे भी एक पहचान छोड़ने और दूसरी अपनाने की चाहत थी। यहाँ तक कि अपने को मुगलों का उत्तराधिकारी मानते हुए भी मुस्लिम नेताओं ने मुगलिया शब्द ‘हिन्दुस्तान’ भी नहीं अपनाया। क्यों?

क्योंकि नाम और शब्द कोई निर्जीव उपकरण नहीं होते। वह किसी भाषा व संस्कृति की थाती होते हैं। जैसा निर्मल वर्मा ने लिखा है, कई शब्द अपने आप में संग्रहालय होते हैं जिन में किसी समाज की सहस्त्रों वर्ष पुरानी पंरपरा, स्मृति, रीति और ज्ञान संघनित रहता है। इसीलिए जब कोई किसी भाषा को छोड़ता है तो जाने-अनजाने उसके पीछे की पूरी चेतना, परंपरा भी छोड़ता है। संभवतः इसीलिए अभी हमारे जो राष्ट्रवादी नेता, लेखक या पत्रकार पूर्णतः अंग्रेजी शिक्षा पर आधारित हैं, और जिन्होंने संस्कृत या भारतीय शास्त्रों का मूल रूप में अध्ययन नहीं किया है, वे प्रायः हिन्दू जनता की चेतना से तारतम्य नहीं रख पाते। कई विन्दुओं पर उनके विचार सेक्यूलरवादियों या हिन्दू-विरोधी ‘आधुनिकों’ से मिलने लगते हैं। क्योंकि उन विन्दुओं पर उनकी शिक्षा विदेशी भाषा तथा विदेशी अवधारणाओं के आधार पर हुई है। इसीलिए अपनी पूरी सदभावना के बावजूद वे चिंतन में अ-भारतीय, अ-हिन्दू हो जाते हैं।

वस्तुतः, सन् 1947 में हमसे जो सबसे बड़ी भूलें हुईं उन में से एक यह भी थी कि स्वतंत्र होने के बाद भी देश का नाम ‘इंडिया’ रहने दिया। टाइम्स ऑफ इंडिया के लब्ध-प्रतिष्ठित विद्वान संपादक गिरिलाल जैन ने लिखा था कि स्वतंत्र भारत में इंडिया नामक इस “एक शब्द ने भारी तबाही की”। यह बात उन्होंने इस्लामी समस्या के संदर्भ में लिखी थी। यदि देश का नाम भारत होता, तो भारतीयता से जुड़ने के लिए यहाँ किसी से अनुरोध नहीं करना पड़ता! गिरिलाल जी के अनुसार, इंडिया ने पहले इंडियन और हिन्दू को अलग कर दिया। उससे भी बुरा यह कि उसने ‘इंडियन’ को हिन्दू से बड़ा बना दिया। यदि यह न हुआ होता तो आज सेक्यूलरिज्म, डाइवर्सिटी, और मल्टी-कल्टी का शब्द-जाल व फंदा रचने वालों का काम इतना सरल न रहा होता।

यदि देश का नाम भारत रहता तो इस देश के मुसलमान स्वयं को भारतीय मुसलमान कहते। इन्हें अरब में अभी भी ‘हिन्दवी’ या ‘हिन्दू मुसलमान’ ही कहा जाता है। सदियों से विदेशी लोग भारतवासियों को ‘हिन्दू’ ही कहते रहे और आज भी कहते हैं। यह पूरी दुनिया में हमारी पहचान है, जिस से मुसलमान भी जुड़े थे। क्योंकि वे सब हिन्दुओं से धर्मांतरित हुए लोग ही हैं (यह महात्मा गाँधी ही नही, फारुख अब्दुल्ला भी कहते हैं)। यदि देश का नाम सही कर लिया जाता, तो आज भी मुसलमान स्वयं को हिन्दू या हिन्दवी ही कहते जो एक ही बात है।

इस प्रकार, विदेशियों द्वारा दिए गए नामों को त्यागना आवश्यक है। इस में अपनी पहचान के महत्व और गौरव की भावना है। ‘इंडिया’ को बदलकर भारत करने में किसी भाषा, क्षेत्र, जाति या संप्रदाय को आपत्ति नहीं हो सकती। भारत शब्द इस देश की सभी भाषाओं में प्रयुक्त होता रहा है। बल्कि जिस कारण मद्रास, बोम्बे, कैलकटा, त्रिवेंद्रम आदि को बदला गया, वह कारण देश का नाम बदलने के लिए और भी उपयुक्त है। इंडिया शब्द भारत पर ब्रिटिश शासन का सीधा ध्यान दिलाता है। आधिकारिक नाम में ‘इंडिया’ का पहला प्रयोग ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ में किया गया था जिसने हमें गुलाम बना कर दुर्गति की। जब वह व्यापार करने इस देश में आई थी तो यह देश स्वयं को भारतवर्ष या हिन्दुस्तान कहता था। क्या हम अपना नाम भी अपना नहीं रखा सकते?

वस्तुतः पिछले वर्ष गोवा के कांग्रेस सांसद श्री शांताराम नाईक ने इस विषय में संविधान संशोधन हेतु राज्य सभा में एक निजी विधेयक प्रस्तुत किया भी था। इस में उन्होंने कहा कि संविधान की प्रस्तावना तथा अनुच्छेद एक में इंडिया शब्द को हटाकर भारत कर लिया जाए। क्योंकि भारत अधिक व्यापक और अर्थवान शब्द है, जबकि इंडिया मात्र एक भौगोलिक उक्ति। श्री नाईक को हार्दिक धन्यवाद कि वह एक बहुत बड़े दोष को पहचानकर उसे दूर करने के लिए आगे बढ़े। पर जागरूक और देशभक्त भारतवासियों द्वारा इसके पक्ष में किसी अभियान का अभाव रहा है।

कवि अज्ञेय ने भी बहुत पहले हमें इसके लिए प्रेरित किया था। पर अभी तक इस पर ध्यान नहीं दिया गया है। यदि देश का नाम पुनः भारतवर्ष कर लिया जाए, तो यह हम सब को स्वतः इस भूमि की गौरवशाली सभ्यता, संस्कृति से जोड़ता रहेगा। जो पूरे विश्व में सब से अनूठी है। अन्यथा आज हमें अपनी ही थाती की रक्षा के लिए उन मूढ़ रेडिकलों, वामपंथियों, मिशनरी एजेंटों, ग्लोबल सिटिजनों से बहस करनी पड़ती है जो हर विदेशी नारे और एजेंडे को हम पर थोपने और हमें किसी न किसी बाहरी सूत्रधार का अनुचर बनाने के लिए लगे रहते हैं।

इसीलिए, देश का नाम भारत करने के प्रयास में ऐसे बौद्धिक मौन-मुखर विरोध करेंगे। क्योंकि उन्हें ‘भारतीयता’ संबंधी भाव से वितृष्णा है। यह उनकी मूल टेक है। इसीलिए चाहे वे मद्रास, कैलकटा, बांबे आदि पर विरोध न कर सके, पर इंडिया नाम बदलने की प्रक्रिया आरम्भ होने पर वे चुप नहीं बैठेंगे। यह इस का पक्का प्रमाण होगा कि नामों के पीछे कितनी बड़ी सांस्कृतिक, राजनीतिक मनोभावनाएं रहती हैं!!

समस्या यह है कि जिस प्रकार कोलकाता, चेन्नई और मुंबई के लिए एक स्थानीय जनता की भावना सशक्त थी, उस प्रकार भारत के लिए नहीं दिखती। इसलिए नहीं कि इसकी चाह रखने वाले कम हैं। वरन ठीक इसीलिए कि भारत की भावना स्थानीयता की नहीं, बल्कि राष्ट्रीयता की भावना है। अतः देशभक्ति से किसी न किसी कारण दूर रहने वाले, अथवा किसी न किसी प्रकार के ‘अंतर्राष्ट्रीयतावाद’ या ‘ग्लोबल’ भाव से जुड़ाव रखने वाले राजनीतिक और बौद्धिक इसके प्रति उदासीन हैं। इंडिया शब्द को बदल कर भारत करना राष्ट्रीय प्रश्न है, इसीलिए राष्ट्रीय भाव को कमतर मानने वाले हर तरह के गुट, गिरोह और विचारधाराएं इसके प्रति दुराव रखते हैं। वे विरोध करने के लिए हर तरह की संकीर्ण भावना उभारेंगे। उत्तर भारत या कथित हिन्दी क्षेत्र की मंद सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना उनके लिए सुभीता करती है। इस क्षेत्र में वैचारिक दासता, आपसी कलह, अविश्वास, भेद और क्षुद्र स्वार्थ अधिक है। इन्हीं पर विदेशी, हानिकारक विचारों का भी अधिक प्रभाव है। वे बाहरी हमलावरों, पराए आक्रामक विचारों, आदि के सामने झुक जाने, उनके दीन अनुकरण को ही ‘समन्वय’, ‘संगम’, ‘अनेकता में एकता’ आदि बताते रहे हैं। यह दासता भरी आत्मप्रवंचना है, जो विदेशियों से हार जाने के बाद “आत्मसमर्पण को सामंजस्य” बताती रही है। इसी बात की डॉ. राममनोहर लोहिया ने सर्वाधिक आलोचना की थी।

अतः उत्तर भारत से सहयोग की आशा कम ही है। इनमें अपने वास्तविक अवलंब को पहचानने और टिकने के बदले हर तरह के विदेशी विचारों, नकलों, दुराशाओं, शत्रुओं की सदाशयता पर आस लगाने की प्रवृत्ति हैं। इसीलिए उनमें भारत नाम की कोई ललक आज तक नहीं जगी। यह संयोग नहीं कि देश का नाम पुनर्स्थापित करने का प्रस्ताव कोंकण-महाराष्ट्र क्षेत्र से आया। जब इसे बंगाल, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश से प्रबल समर्थन मिलेगा तभी यहाँ के अंग्रेजी-परस्त भारत नाम स्वीकार करेंगे। अन्यथा उन की सहज प्रवृत्ति इस विषय को पूरी तरह दबाने की रही है। देशभक्तों को इस पर विचार करना चाहिए।

5 COMMENTS

  1. जो ध्वनि विज्ञान के अस्तित्व को नहीं मानते उनके लिए नाम का कोई महत्व नहीं. शंकर शरण जी का आलेख अपने राष्ट्रीय गौरव के प्रति लोगों का आह्वान करता है.
    पुस्तकों का अध्ययन उत्कृष्ट चिंतन क्षमता का प्रमाण नहीं है. पुस्तकें तो प्रेरक मात्र हैं ….यह पाठक पर निर्भर करता है कि उसमें पुस्तक के सन्देश को समझने की कितनी क्षमता है. विपिन कुमार सिन्हा की आपत्ति के पीछे दूरदर्शिता, राष्ट्रीयगौरव और स्वाभिमान का पूर्ण अभाव ही प्रतीत हो रहा है. ऐसी सोच अकल्याणकारी है. यदि वे कम्यूनिज्म के प्रशंसक हैं तो कोई और किसी दूसरे इज्म का प्रशंसक हो सकतता है …इसमें भूत बनके डराने की बात कहाँ से आ गयी?
    मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि भारत में किसी भी विदेशी …आयातित विचार या व्यवस्था के लिए कोई स्थान नहीं है. बलात जो स्थान बनाया गया है उसी के कारण सारी अव्यवस्थायें उत्पन्न हुयी हैं. विदेशी प्रणालियों के प्रशंसकों को तो यह भी नहीं पता कि लोकतंत्र (लिच्छिवियों का वज्जी संघ ) और कम्यूनिज्म ( जिसके जनक कृष्ण थे ) का सूत्रपात भारत में ही हुआ था. शेष विश्व ने तो इसे भारत से सीखा था. यदि कम्यूनिज्म का भूत हमें डरा रहा होता तो अब तक हम कृष्ण को रावण की श्रेणी में खडा कर चुके होते. कृषि और डेयरी उत्पादों का आम जनता में वितरण, दूध-दही-माखन एवं अन्य कृषि उत्पादों पर पर लगने वाले राजकीय कर का क्रांतिकारी विरोध करने वाले प्रथम जन-नायक कृष्ण के देश में लेनिन,स्टालिन,मार्क्स और माओ की अधकचरी विचारधाराओं की कोई आवश्यकता नहीं.

  2. सही सही लेख।
    (१) यदि इंडिया “भारत” कहा जाएगा, तो कम से कम, संसार में हमें, “You Bloody Indian ” तो नहीं सुनना पडेगा।
    (२) कुछ दशक पहले एक अफ्रिकन-अमेरिकन चल चित्र दूर दर्शन पर दिखाया गया था। उसमें एक अफ्रिकी गुलाम युवा को उलटा टांग कर, उसका नाम भुलाने के लिए पीठपर कोडे मार मार कर, उसका मालिक कहता है कि तेरा नाम “टॉबी” है।
    बोल तेरा नाम क्या है?
    कहो “टॉबी”।
    पर वह बालक कोडे सहता है, पर अपना नाम जो “कुंटे-कांटे”(उसका अफ्रिकी नाम) जोर जोर से चिल्ला कर कहता है।
    और ज्यादा कोडे पडते हैं।
    पर वह नाम बदलता नहीं है।
    हमको न कोई कोडे पडे हैं, ना कोई दंड दिया गया है। पर हम तो अपनी पहचान भूलने में ही, गौरव का अनुभव करते हैं।
    (३) यहां(अमरिकामें) कितने “अशोक” है, जो “ऍश” (राख) बने बैठे हैं। रवीन्द्र के “रॉबिन” बने हैं। हरी हैं, जो “हॅरी” बने हैं।
    एक सज्जन का गोत्र (कुल नाम) है, मार्कंडेय, पर अब वे अपने आप को “मार्कन” कहाने में संकोच नहीं करते।
    (४) हमारे पूरखे भी स्वर्गसे हमें पुकार कर कहेंगे “यु ब्लडी इंडियन्स”। हमने क्या अपराध किया था, जो आप हमारा नाम भुलना चाहते हो?
    यह है, ऋषियों की सन्तान?
    (५)पर ऐसा भी होता है। मेरे एक मित्र “बलराम” को पूछा गया कि उन्हें “बिल” नामसे बुलाए तो कोई आपत्ति है क्या?
    पूछनेवाले का नाम George था। बलराम जी ने उसे पूछा, कि तुम्हें “घसिटाराम” नामसे बुला सकता हूं क्या?
    उसे उसके प्रश्नका उत्तर मिल गया। जी हां ऐसे भी भारतीय हैं। और वैसे भी भारतीय हैं।

  3. बिपिन कुमार सिन्हा जी की टिप्पणी काफी मनोरंजक है श्रीमान जी विज्ञानं के छात्र रहे हैं पर उनका दावा है की अन्य विषयों पर भी उन्हों ने अनेक पुस्तकें पढ़ी है विचारणीय प्रश्न है की इतनी पुस्तकें पढने से लाभ क्या हुआ. भाई साहेब आप के अतिरिक्त पाठकों का एक बड़ा वर्ग भी है जो शंकर शरण और विपिन किशोर जी के लेखों को प्रबुद्ध पाठकों द्वारा देश की समस्यायों पर गंभीरता पूर्वक चिंतन मनन करने में सहायक साधन मानता है .यदि शंकर शरण जी या विपिन किशोर सिन्हा जी जो कहते हैं वह आप की समझ में नहीं आता.तो जाने दीजिये .दूसरों को तो सुन ने दीजिये .
    मैं शंकर शरण जी की बात समझाने का प्रयत्न इस प्रकार करूंगा;
    आप ने इक़बाल की कविता “सारे जहाँ से अच्छा “से उद्धृत यह अंश अक्सर सुना होगा;-
    “यूनानो मिस्र रूमां सब मिट गए जहाँ से
    बाकी मगर है अब तक नामों निशां हमारा
    कुछ बात है की हस्ती मिटती नहीं हमारी
    सदियों रहा है दुश्मन दौरे ज़मां हमारा “.
    यह इक़बाल क्या कह गए? यूनान(ग्रीस) मिस्र (ईजिप्त) रोम(इटली) तो अभी भी हैं तो मिट कैसे गए? और हमारा नामो निशान कैसे बाकी है? और वह “कुछ बात है’ वाली वह कौन सी बात है जो हमारी हस्ती को अभी तक बचाए हुए है ज़रा सोच कर बताइए

  4. श्री शंकर शरण जी और विपिन किशोर सिन्हा जी में आप दोनों से एक बात पूछना चाहता हूँ क़ि कम्युनिस्म आप लोगों को भूत क़ि तरह
    डराता हे क्या? लेख किसी भी विषय पर हो एक बार उस मंत्र का जप कर ही लेते हें आम या गाय पर भी लिखना हो तो कही न कही से इस मंत्र का जप स्वरुप प्रयोग कर ही लेते हें मेरी बातों से यह मत समझ लीजियेगा क़ि में कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बंधित हूँ में तो निहायत एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति हूँ साठ से ऊपर का हो चुका हूँ किताबे बहुत पढ़ी सिधहांत और वाद से सम्बंधित बहुत साडी पुस्तकों से परिचित होने का मौका मिला वैसे तो में विज्ञानं का विद्यार्थी रहा हूँ फिर भी विभिन्न विषयों का अध्यन का शौक रहा है
    जब से प्रवक्ता को ज्वाइन किया है में देख रहा हूँ कुछ गिने चुने नाम ही विभिन्न विषयों पर अपनी लेखनी का उपयोग करते है पर यह कोई बुरी बात भी नहीं है हाँ जब भी कुछ लिखना शुरू करते है तो उस मंत्र का जप करना नहीं भूलते है एक ही चीज को रटते रटते बोर नहीं होते में तो भाई बोर हो गया
    अरे कुछ कायदे क़ि बात लिखिए अब देखिये न राजनीतिज्ञों को पागलपन चढ़ा है राज्यों ,शहरों मुहल्लों का नाम बदलने का .इससे क्या हो जायेगा जरा ज्यादा रोटी मिलने लगेगी ? लोग तो अभी भी मुंबई क़ि जगह बोम्बे बोलने का मजा लेते है और चेन्नई तो जुबान पर चढ़ता ही नहीं मद्रास ही सब बोलते है है क़ि नहीं इससे क्या फर्क पद जायेगा क़ि कोई आपको भारतीय बोले या इंडियन या फिर हिन्दुस्तानी आप तो जो है वही रहेंगे न सोचिये उन तमाम लोगों के बारे में जिन्हें रोटी तो छोडिये साफ पानी भी नसीब नहीं है कोई भी मुद्दे को राजनितिक बना कर कबाड़ा किया जा सकता है और यही हो भी रहा है छमा कीजियेगा बहुत बक बक कर गया . बिपिन

  5. भारत का इंडिया नाम हृदय में शूल की तरह चुभता है। क्या व्यक्तिवाचक संज्ञा (Proper Noun ) का भी अनुवाद होता है? गुलाब सिंह को Rose Lion कहा जा सकता है क्या? जिस संविधान की महानता की नित्य ही दुहाई दी जाती है, उसको बनानेवालों की बुद्धि क्या घास चरने गई थी? उस समय इस देश का नाम भारतवर्ष रखा जा सकता था, अब कठिन है। वन्दे मातरम के विरोधी इसे सांप्रदायिक चश्मे से देखेंगे और वामपंथी इसे प्रतिक्रियावादियों की साज़िश करार देंगे। इन सबकी आड़ लेकर तुष्टिकरण को प्रश्रय देनेवाली हमारी सरकार इस विचार की भ्रूण हत्या करने के लिए पहले से ही तैयार बैठी है। सत्ता की मलाई खा रहे अंग्रेजी परस्त नौकरशाह और अंग्रेजी के बिके हुए पत्रकार भी मरते दम तक इंडिया को भारत नहीं होने देंगे। संघर्ष लंबा है, डगर कठिन है, लेकिन बिल्कुल असंभव नहीं है। क्यों नहीं इसके लिए एक विशेष हस्ताक्षर अभियान चलाया जाय, सभी सांसदों को पत्र लिखा जाय और अन्ना जी से भी आग्रह किया जाय कि इस आन्दोलन को अपना आशीर्वाद दें।

Leave a Reply to विपिन किशोर सिन्हा Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here