भारतीय फौजें काबुल नहीं जाएंगी

अमेरिका के रक्षा मंत्री जेम्स मेटिस भारत क्यों आए? इसीलिए कि अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजें हटा ली जाएं और उनकी जगह भारतीय सेनाएं अड़ा दी जाएं। 1981 के जनवरी माह में मैं अपने पुराने मित्र बबरक कारमल से काबुल में मिला था तो उन्होंने ढाई-तीन घंटे की पहली मुलाकात में जो बात मुझसे सबसे पहले कही, वह यही थी कि रुसी फौजों के बदले अगर भारत की फौजें अफगानिस्तान आ जाएं तो बड़ी कृपा  होगी।

बबरक कारमल लगभग साल भर पहले ही अफगानिस्तान के प्रधानमंत्री बने थे। हफीजुल्लाह अमीन की हत्या के बाद रुसी फौजें अफगानिस्तान में घुस गई थीं और उन्होंने कारमल के हाथों सत्ता सौंप दी थी। बबरक कारमल भारत के पुराने मित्र थे। वे थे तो कम्युनिस्ट (परचम पार्टी) लेकिन जवाहरलाल नेहरु और इंदिरा गांधी के बड़े प्रशंसक थे। उन्होंने ज्यों ही भारतीय फौजें काबुल भेजने की बात उठाई, मैंने उनको कई कारण बताए, जिनकी वजह से हम वहां फौज नहीं भेज सकते थे।

अब अफगानों ने अमेरिका और नाटो की फौजों को पिछले 15 साल में इतनी मार लगा दी है कि वे भी रुसियों की तरह अपनी बला भारत के माथे टालना चाहते हैं लेकिन मुझे खुशी है कि हमारी नई रक्षामंत्री निर्मला सीतारमन ने अमेरिकी रक्षा मंत्री को दो-टूक शब्दों में कह दिया कि भारतीय फौजें काबुल नहीं जाएंगी लेकिन हम सैनिकों को प्रशिक्षण, हथियार और उपकरण देंगे।

भारत अभी तक 5000 अफगान सैनिकों को प्रशिक्षण दे चुका है। उसने चार एम-आई-25 हेलिकाप्टर भी दिए हैं। भारत की लगभग 3 बिलियन डालर की सहायता से पिछले 50 साल में कई अस्पताल, स्कूल, बांध, बिजलीघर, सड़कें और पुल बन चुके हैं। भारत ने अफगान संसद भवन और जरंज-दिलाराम सड़क बनाकर ऐतिहासिक काम किए हैं।

आज अफगानिस्तान के सीईओ (प्रधानमंत्री) डा. अब्दुल्ला अब्दुल्ला एक व्यापार-प्रदर्शनी (भारत-अफगान) का उद्घाटन करेंगे। वे भारतप्रेमी नेता हैं। लगभग 250 अफगान व्यापारी दिल्ली आ गए हैं। भारत-अफगान व्यापार आजकल जितना है, उससे दस गुना बढ़ सकता है, बशर्ते कि पाकिस्तान भारतीय माल को अपनी सीमा में से जाने दे लेकिन ईरान के जरिए जरंज-दिलाराम सड़क का इस्तेमाल व्यापार-वृद्धि के लिए अब जोरों से होगा। पाकिस्तान खुश होगा कि भारतीय फौजें अफगानिस्तान नहीं जा रही हैं।

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