भारतीय संस्कृति और आस्थाओं के सरोकार 

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अनिल अनूप 

वाह…! क्या गर्मजोशी थी, क्या उत्साह था, जज्बा और जुनून था! एक तरफ ‘जय-जय श्रीराम’ के नारे, तो दूसरी ओर भारत माता की जय, वंदे मातरम् के फौजी स्वर…! यही हैं भारतीय संस्कृति और आस्थाओं के सरोकार…! अद्वितीय, अतुलनीय, अजीब, आत्मिक स्वर-लहरियां और आत्माओं के अडिग विश्वास…! सवाल अयोध्या में राम मंदिर को लेकर भी हैं और देश के प्रधानमंत्री की 56 इंच की छाती पर भी दागे जाते रहे हैं। राम मंदिर पर हमारी लगातार टिप्पणियां आप पढ़ रहे होंगे। अयोध्या में राम की वापसी, दिवाली के उजालों और सरयू नदी के तट पर 3 लाख 1000 से भी ज्यादा दीयों को एक साथ प्रज्वलित करने के विश्व कीर्तिमान की सौगंध लेकर हम कहना चाहते हैं कि अब राम मंदिर का मुद्दा तभी उठाएंगे, जब कोई निर्णायक कार्रवाई सामने आएगी या जब 2019 शुरू होने से पूर्व साधु-संत भव्य राम मंदिर के निर्माण की शुरुआत कर देंगे। अथवा अदालत, अध्यादेश के जरिए कोई फैसला लिया जाएगा। उससे पहले इस मुद्दे को राजनीतिक असमंजस, असहमति के तौर पर हम छोड़ रहे हैं, लेकिन उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ‘मुगलिया गुलामी’ के प्रतीक नाम फैजाबाद का नाम बदल कर अयोध्या करने की घोषणा की है। उसके लिए साधुवाद और भारतीय सोच का अभिनंदन करते हैं। अयोध्या के समानांतर हमारे प्रधानमंत्री मोदी लगातार पांचवीं दिवाली पर भी फौजियों के बीच मौजूद रहे। ज्योतिर्लिंग केदारनाथ मंदिर के पड़ोस में ही वह थे, लिहाजा मंदिर आना, रुद्राभिषेक करना वह कैसे भूल सकते थे? सबसे बड़े त्योहार के दिन भी प्रधानमंत्री बर्फीले पहाड़ों में हों, तमाम आकर्षणों और चकाचौंध को छोड़ कर क्या यह 56 इंच का साहस नहीं है? प्रधानमंत्री मोदी दिवाली के संदर्भ में एकमात्र प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने अपने कार्यकाल की पांचों दिवालियां सैन्य जवानों के साथ मनाईं। 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली दिवाली पर ही बर्फीली फिजाओं वाले, दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धक्षेत्रों में एक सियाचिन पहुंच गए। 2015 में अमृतसर की पंजाब सीमा, 2016 में हिमाचल के किन्नौर में इंडो-तिब्बत बॉर्डर पर और 2017 में कश्मीर के गुरेज क्षेत्र में पहुंच कर हमारे जांबाज योद्धाओं के साथ दिवाली मनाई। इस वर्ष उत्तराखंड में हर्षिल पोस्ट, यानी चीन बॉर्डर की बगल में पहुंच कर जवानों के संग दीप-पर्व साझा किया। एक-एक फौजी को अपने हाथों से लड्डू खिलाए मानो कोई पिता, बड़ा भाई या अपना ही परिजन खुशियां बांट रहा हो! यह भावुकता की अतिरेकता का विश्लेषण नहीं है। राजनीति अपनी जगह है, सरकार की नीतियों का विरोध या समर्थन भी अलग मुद्दा है, लेकिन सीमाओं पर तैनात रक्षक भी देश के अदद नागरिक हैं। वे हिफाजत करते हैं, तो देश निडरता का भाव महसूस करता है। सेना के जवान खुद को कष्ट देकर हमें उजाला देते हैं। हमारे जांबाज लड़ाकों का योगदान देश और विदेश में अतुलनीय रहा है। एक औसत नागरिक और प्रधानमंत्री का जुड़ाव, मिलन, संवाद, स्नेह भी हमारी राष्ट्रीयता को जोड़ता है। प्रधानमंत्री मोदी ने न केवल फौजियों को मिठाई खिलाई, मिठाई बांटी, बल्कि रणबांकुरों के माता-पिता को भी नमन किया। जय श्रीराम से लेकर जय जवान और जय केदार तक का यह दौर अविस्मरणीय रहेगा। ऐसा नहीं है कि कोई अन्य राजनेता सैनिकों के बीच जाकर दिवाली नहीं मना सकता। हर्षिल के अलावा देश में कई और भी सैन्य चौकियां, रणक्षेत्र हैं। कितने नेताओं ने वहां के लिए वक्त खर्च किया और जवानों के साथ दिवाली मनाई!! भगवान राम का मंदिर एक विवादास्पद मुद्दा माना जा सकता है, हालांकि हम नहीं मानते, लेकिन सेना और सैनिक तो देश के साझा रक्षक हैं। उनका हाल-चाल पूछने में भी क्या राजनीति है? सरयू की सांस्कृतिक नदी के तट पर दीयों की झिलमिल के बीच दक्षिण कोरिया की प्रथम महिला किंग जुंग सूक की उपस्थिति और आरती करना भी हमारी सांस्कृतिक व्यापकता का प्रतीक है। भारत और कोरिया के रिश्ते भी सदियों पुराने हैं। अयोध्या की राजकुमारी के वंशज आज कोरिया की सत्ता पर काबिज हैं। विडंबना है कि जय जवान, जय केदार, जय श्रीराम पर भी राजनीतिक भंगिमाएं बनाई जाती रहीं। बहरहाल देश सब कुछ देख रहा है, देशप्रेम भी स्पष्ट हो रहा है, आस्थाओं के सरोकार भी सामने हैं। यह लोकतंत्र है, जनता को जो निर्णय करना होगा, कर लेगी, कमोबेश हमें उसकी चिंता नहीं है।

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