भारतीय शिक्षा व्‍यवस्‍था की चुनौतियां

2
533

-केशव आचार्य

काफी लंबे समय बाद फिल्म पाठशाला में शिक्षा के वर्तमान स्तर और कार्यशैली को लेकर जो चिंता की गई है वह जायज लग रही है। देर से ही सही मगर लोगों के सामने इस विषय का आना इस बात का संकेत है कि समाज के बुद्धजीवियों ने आखिरकार इस ओर सोचना शुरू तो किया है। मुझे बहुत अच्छी तरह से याद है कि 2000 आबादी वाले मेरे छोटे से गांव में जब मैंने शहरी माहौल की तर्ज पर विज्ञान विषय लेकर पढ़ाई करने की बात कही तो परिवार तो खुश था लेकिन पहले ही दिन हमारे विज्ञान शिक्षक ने एक बात कह कर लगभग सारे सपनों में पानी फेर दिया बात तो छोटी थी लेकिन हमेशा के लिए दिल में बैठ गई, शिक्षक का कहना था कि इस स्कूल से आज तक ना तो कोई इंजीनियर निकला है औऱ ना ही ड़ाक्टर, बात आई और चली गई, मैं जिस स्कूल में पढ़ता था वह एक छोटे से गांव का एकमात्र सरकारी स्कूल था. आज इस फिल्म ने एक बार फिर उस डर को पैदा कर दिया है।

भारत गांवों का देश है आज भी देश की आधी आबादी से भी ज्यादा लोग गांव में रहते हैं और उनका मूल व्यवसाय खेती ही है। देश में शिक्षा का जितना भी प्रचार और प्रसार शहरों में हुआ है उसका 1 प्रतिशत भी इन गांवो में नहीं हुआ है। भारतीय सामाजिक वर्ण व्यवस्था की तरह ही शिक्षा में भी वर्ण व्यवस्था लागू है, मैं अच्छी शिक्षा के विरोध में नहीं हूं लेकिन मैं महंगी शिक्षा व्यवस्था, शिक्षा के साथ हो रहे भेदभाव और उसके बाजारीकरण के विरूद्ध हूं, जिस तेजी से देश में मंहगे और इंटरनेशनल स्कूलों का चलन बढा है उस व्यवस्था ने हमारी शिक्षा व्यवस्था को विभाजित कर दिया है, एक तरफ मंहगे दून और कान्वेंट स्कूल से निकलने वाले वो बच्चे हैं जिन्हें इस दौर वो शिक्षा दी जारही है जिसके बलबूते पर यह तय होता है कि उनके लिए मल्टीनेशनल कंपनी के उच्च वेतनमान के पद खाली है(या सिर्फ वे ही इस पद के लिए गढ़े गये है)जिनमें उन्हें मिलना वाला मासिक वेतन गांवों के स्कूलों से निकलने वाले बच्चों की साल भर की कमाई से भी ज्यादा है. इन स्कूलों,कालेजों से निकलने वाले युवाओं के लिए यह तय होता है कि भविष्य के सीईओ और एमडी वही हैं.तो वही दूसरी तरफ वे लोग है जो इन सरकारी स्कूलों से निकल इस आस में भटकते रहते हैं कि शायद उनके नसीब में भी कुछ उन अभिजात्य लोगों की तरह की कुछ लिखा है लेकिन हकीकत तो यह कि इन सरकारी स्कूलों में उन्हें जो शिक्षा दी जाती है वह सिर्फ उन्हें बाबू या पानी पिलाने वाले तक ही सीमित रखती है हालांकि मैं इस बात से भी इंकार नहीं करता हूं कि कई ऐसे लोग भी हैं जो इस मुकाम तक पहुंचने क़ामयाब भी रहें हैं, लेकिन महज चंद ऊंगलियों में गिने जाने वाले इन लोगों के बलबूते पर हम विजय पताका फहराने की बात नहीं कह सकते हैं।सरकार भले ही लाखों करोड़ो रूपये खर्च करके शिक्षा के मौजूदा हालात को बदलने के दावे कर रही हो पर हकीकत आज भी यही है बढे वेतनमान पर काम रहे सरकारी स्कूलों के शिक्षक भी अपने बच्चों को इन सरकारी स्कूलों में पढाने के बजाये निजी स्कूलों में भेज रहे हैं। कारण भी स्पष्ट है एक तो इन सरकारी स्कूलों में संसाधनों का अभाव होता है, पढाई के स्तर की बात हम ऊपर कर चुके हैं.दूसरा कारण है निजी स्कूलों में जिस तकनीक से भविष्य की योजनाओं को ध्यान में रखकर पढ़ाई का महौल तैयार किया जाता है, उस स्तर की कार्ययोजना सरकारी स्कूलों में मिल पाना (फिलहाल तो) असंभव है।जहां एक तरफ अभिजात्य वर्ग के स्कूलों में कोर्स का विभाजन, साल भर के टाइम टेबल के तहत तय होते उसकी तुलना में चौथे दर्ज के इन स्कूलों में इन्हीं कोर्सेस को पूरा करने के लिए कई साल लग जाते हैं साल भर में कोर्स पूरा करना तो बहुत दूर की बात है।

हालांकि सरकार ने एक अप्रेल से शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू कर दिया है, वैश्वीकरण की नवउदारवादी नीति की तर्ज पर बने इस सरकारी बिल के पैरोकार सरकार के बाहर भी हैं। उनका कहना है कि यह बिल निजी स्कूलों की भी जवाबदेही तय करता है। उनका इशारा उस प्रावधान की ओर है, जो निजी स्कूलों में कमजोर वर्गो और वंचित समुदायों के बच्चों के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित करता है। इनकी फीस सरकार की ओर से दी जाएगी। इससे बड़ा फूहड़ मजाक और क्या हो सकता था। एक, आज 6-14 आयु समूह के लगभग 20 करोड़ बच्चों में से ४ करोड़ बच्चे निजी स्कूलों में हैं। इनके 25 फीसदी यानी महज एक करोड़ बच्चों के लिए यह प्रावधान होगा। शेष बच्चों का क्या होगा? दूसरा, सब जानते हैं कि निजी स्कूलों में ट्यूशन फीस के अलावा अन्य कई प्रकार के शुल्क लिए जाते हैं, जिसमें कम्प्यूटर, पिकनिक, डांस आदि शामिल है। यह सब और इन स्कूलों के अभिजात माहौल के अनुकूल कीमती पोशाकें गरीब बच्चे कहां से लाएंगे? इनके बगैर वे वहां पर कैसे टिक पाएंगे? तीसरा, यदि किसी तरह वे 8वीं कक्षा तक टिक भी गए, तो उसके बाद उनका क्या होगा? ये बच्चे फिर सड़कों पर आ जाएंगे जबकि उनके साथ पढ़े हुए फीस देने वाले बच्चे १२वीं कक्षा पास करके आईआईटी व आईआईएम या विदेशी विश्वविद्यालयों की परीक्षा देंगे। मैं आपको ध्यान दिलाना चाहूंगा कि सुप्रीम कोर्ट के उन्नीकृष्णन फैसले (1993) के अनुसार अनुच्छेद ४१ के मायने हैं कि शिक्षा का अधिकार 14 वर्ष की आयु में खत्म नहीं होता, वरन सैकंडरी व उच्चशिक्षा तक जाता है। फर्क इतना है कि 14 वर्ष की आयु तक की शिक्षा के लिए सरकार पैसों की कमी का कोई बहाना नहीं कर सकती, जबकि सैकंडरी व उच्चशिक्षा को देते वक्त उसकी आर्थिक क्षमता को ध्यान में रखा जा सकता है।

जनता को उम्मीद थी कि यह बिल उच्चशिक्षा के दरवाजे प्रत्येक बच्चे के लिए समानता के सिद्धांत पर खोल देगा। तभी तो रोजगार के लिए सभी समुदायों के बच्चे बराबरी से होड़ कर पाएंगे और साथ में भारत की अर्थव्यवस्था में समान हिस्सेदारी के हकदार बनेंगे। यकीकन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। मैं बहुत दूर या फिर बड़ी बात नहीं कह रहा हूं यह वास्तविकता है प्रतियागिता से भरे इस दौर मे हम सिर्फ औपचारिकताओं से ही काम नहीं चला सकते हैं, हमें कोई ठोस और सकारात्मक कदम उठाने पडेंगे.महंगाई अपने चरम पर है और इसके और अधिक विकराल होने की आशंका से हम मुकर भी नहीं सकते हैं.ऐसे मैं किसी निम्न औऱ काफी हद तक मध्यमवर्गीय परिवार पालकों की बच्चों के भविष्य को लेकर की जाने वाली चिंताओं से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है.ठीक है हमने शिक्षा का अधिनियम भी लागू कर दिया है लेकिन इस नियम के लिए क्या कोई ठोस रणनीति बनाई गयी है पहले से ही देश में कई तरह की शिक्षा योजना के तहत हर किमी में स्कूल खोल दिये गये हैं, जिसमें पढने वाले बच्चों को क्या शिक्षा मिल रही है यह हम सब जानतेहैं,इन एक कमरे में चलने वाले स्कूल मे आने वाले बच्चों का मुख्य उद्देश मध्यान भोजन है या फिर पढ़ाई यह एक अलग से सोचने का विषय है, यदि इन स्कूलों की तुलना अभिजात्य वर्ग के स्कूलों की नर्सरी के बच्चों से की जाये तो अंतर खुद ब खुद हमारे सामने आ जाता है। आज भी 12 वीं पास करने के बाद युवाओं का पहला लक्ष्य रोजगार होता है ताकि कर्ज के बोझ तले दबे अपने खेतीहर परिवार के लिए रोटी रोजी का इंतजाम हो सके। आखिर क्यों इतने लंबे समय से चले आ रहे कई सरकारी योजनाओं के बाद भी गांवो के छात्रों का सर्वांगिक विकास रूका हुआ है.जैसे तैसे अपनी उच्च शिक्षा पूरी करने के बाद आज का युवा शहरी अंधानुकरण के चपेट में आकर सिर्फ और सिर्फ किसी भी तरह से हासिल होने वाली नौकरी तक ही सिमट कर रह जाता है. कहीं ना कहीं कमी हमारी शिक्षा व्यवस्था और उसके संचालन में ही है। निजी और सरकारी स्कूलों के दो पाटो के बीच फंसी भारतीय शिक्षा को आज भी किसी चत्मकार की प्रतीक्षा है।

2 COMMENTS

  1. 1 अप्रैल से लागू हुआ है शिक्षा का अधिकार. देखना केशव कही वो भी अप्रैल फूल जैसा ही ना हो जाय….!

Leave a Reply to kaeshav Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here