संकट में भारतीय ज्ञान परंपरा

 यद्यपि हमने 15 अगस्त, 1947 को तत्कालीन औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता प्राप्त की, किंतु अंग्रेजों की लगभग 200 वर्षों की दासता का दुष्प्रभाव हमारी संस्थाओं, व्यवस्थाओं, राजनीतिक-सामाजिक प्रतीकों एवं जीवनशैली में विद्यमान है। औपनिवेशिक प्रवृत्ति एवं परंपराओं, हमारी शासन व्यवस्था, भाषा, वास्तुकला एवं जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में अब भी मौजूद हैं। तत्कालीन भौगोलिक परतंत्रता अब मानसिक और सांस्कृतिक गुलामी में परिवर्तित हो रही है।

वर्तमान परिदृश्य में जब भारत एक वैश्विक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है, यह आवश्यक हो जाता है कि हम औपनिवेशिक मानसिकता एवं उसके प्रतीकों से मुक्त हों। आज विश्वभर के चिंतक इस बात से सहमत हैं कि गुलामी केवल शारीरिक रूप से किसी देश पर अधिकार जमाने तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह उस राष्ट्र के जीवन दर्शन एवं मूल्यों को भी प्रभावित करती है।

अंग्रेजों ने भारत पर शासन करते हुए सिर्फ भौगोलिक एवं आर्थिक शोषण ही नहीं किया, वरन सामाजिकता, परंपरा, इतिहास और सांस्कृतिक अस्मिता को भी विकृत करने का दुष्प्रयास किया। परिणामस्वरूप ऐसी मानसिकता का विकास हुआ जिसमें भारतीय नागरिक ‘स्व’ के अस्तित्व को भूलकर पश्चिमी सभ्यतागत विमर्श के अनुगामी बन बैठे।

जैसे कि भारत में आज भी अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व है। अंग्रेजी के मुकाबले अन्य भारतीय भाषाओं को हीनता की दृष्टि से देखा जाता है। उच्च शिक्षा, न्याय प्रणाली एवं प्रशासनिक कार्यों में अंग्रेजी का ही बोलबाला है। भारतीय भाषाओं का व्यवहार करने वालों को कमतर आंका जाता है एवं अंग्रेजी बोलने वालों को अधिक योग्य माना जाता है। कई माता-पिता इस बात पर गर्व करते हैं कि हमारा बेटा जिस स्कूल में पढ़ता है वहां एक भी शब्द हिंदी का बोलने नहीं दिया जाता।

युवा पीढ़ी न तो अपनी मातृभाषा में लिखने-पढ़ने में सक्षम है और न ही भारतीय साहित्य और ग्रंथों को समझने में। ऐसी स्थिति ने भारतीय ज्ञान परंपरा को संकट में डाल दिया है। अंग्रेजी से हमें परहेज नहीं होना चाहिए, परंतु उसे अपनी मातृभाषा से ज्यादा महत्व देना ठीक वैसे है जैसे अपनी मां के स्थान पर दूसरे की मां को अधिक श्रेष्ठ मानना।

आज संपूर्ण जीवनशैली में पश्चिमी बातों का अंधानुकरण करना एक ‘स्टेटस सिंबल’ सा बन गया है। परंपरागत व्यंजनों के प्रति हमारी रुचि कम हो रही है एवं पाश्चात्य व्यंजन हमारी थाली की शोभा बढ़ा रहे हैं। आज हम जो फादर्स-मदर्स-ब्रदर्स-सिस्टर्स-वैलेंटाइन डे आदि मनाते हैं, यह तो हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं, अपितु पाश्चात्य संस्कृति की भोंडी नकल हैं। हमारे लिए तो जीवन का प्रत्येक क्षण इन रिश्तों में आत्मीयता हेतु समर्पित था। हम अपनी प्रकृति-प्रेमी जीवनशैली से विरक्त होकर प्रकृति विरोधी पथ पर अग्रसर हो गए हैं। परिणामतः जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम झेलने को विवश हैं।

संपूर्ण व्यक्तित्व विकास सुनिश्चित करने वाली गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के बजाय भारतीय शिक्षा प्रणाली आज भी मैकाले द्वारा स्थापित ढांचे पर आधारित है, जिसका उद्देश्य भारतीयों को अंग्रेजी शासन के लिए ‘क्लर्क’ तैयार करना था। हमारी शिक्षा व्यवस्था आज पश्चिमी ज्ञान को श्रेय देती है एवं भारतीय ग्रंथों, विज्ञान और परंपराओं को हाशिये पर धकेल रही है।

इस हेतु हमें भारतीय ज्ञान प्रणाली का नए सिरे से अध्ययन एवं वर्तमान में उनकी उपादेयता पर सघनता से कार्य करना होगा। आज भी भारतीय न्याय प्रणाली एवं प्रशासनिक व्यवस्था ब्रिटिश माडल पर आधारित है। न्यायिक प्रक्रिया अंग्रेजी में होती है, जो आम जनमानस की समझ से परे है। इस दिशा में तेजी से परिवर्तन की आवश्यकता है। भला हो मोदी सरकार का जिसने पहली बार भारतीय न्याय संहिता लागू की।

अंग्रेजों ने भारतीयों में यह भावना विकसित की कि हम सभ्यता, ज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में पश्चिम से कमतर हैं। यहां तक कहा गया कि भारतीयों को सभ्य बनाना अंग्रेजों का अतिरिक्त कर्तव्य है। यह मानसिक गुलामी हमारे विकास में बाधा बन रही है। भारतीय परंपराओं, संस्कारों, रीति रिवाजों, कौशल-विकास परंपरा, ग्रामीण अर्थव्यवस्था आदि को आधुनिकता के नाम पर त्यागा जा रहा है। युवा पीढ़ी अपनी जड़ों और संस्कृति से अनभिज्ञ होती जा रही है।

हम अपने संसाधनों और प्रतिभा का संपूर्ण उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। विदेशी वस्तुओं, तकनीक और सेवाओं पर अत्यधिक निर्भरता आत्मनिर्भर भारत के मार्ग में अवरोध है। ऐसे में यक्ष प्रश्न है कि मानसिक गुलामी से मुक्ति कैसे पाई जाए? औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त होने के लिए देश को व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं आध्यात्मिक पुनर्जागरण की आवश्यकता है।

यह केवल सरकारी नीतियों तक सीमित नहीं हो सकता, अपितु समाज के प्रत्येक वर्ग को मनसा, वाचा, कर्मणा इस महायज्ञ में आहुति डालनी होगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में निहित सुधारों को संपूर्णता से लागू करके ही शिक्षा में भारतीय संस्कृति, परंपराओं, ज्ञान भंडार एवं गौरवशाली इतिहास को प्राथमिकता दी जा सकती है।

आवश्यकता है कि हम अपनी जड़ों की ओर लौटें एवं उन्हें सीचें। अपनी संस्कृति एवं जीवंत परंपरा पर गर्व करें और औपनिवेशिक मानसिकता को त्यागकर आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी, विकसित एवं ‘स्व’ के तंत्र वाले भारत का निर्माण करें। मानसिक गुलामी से मुक्त होकर ही हम वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बन पाएंगे। जब तक भारतीय समाज इस बीमारी से मुक्त नहीं होगा, हमारी स्वतंत्रता अधूरी रहेगी और इस लक्ष्य को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ कदम से कदम मिलाकर 2047 तक प्राप्त कर लेना होगा।

आचार्य राघवेंद्र पी. तिवारी

(लेखक पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा के कुलपति हैं)

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