भारतीय राष्ट्रीय सेना का गठन

1
743

अरविंद पथिक

नज़रबंदी से फरार होकर अफगानिस्तान ,रुस और फिर ज़र्मनी पहुंचने के लिए सुभाष ने उसी रणनीति का प्रयोग किया जिसका प्रयोग प्रवासी क्रांतिकारी काफी पहले से करते रहे थे।अफगानिस्तान से रूस और फिर बर्लिन पहुंचकर उन्होने वहां ‘इंडियन लिज़न’ (भारतीय सैन्य दल ) का गठन किया।वे गुप्त रूप से सिंगापुर आये और आज़ाद हिंद फौज़ का नेतृत्व अपने हाथ में लिया।यह सारी प्रक्रिया बडी रोमांचक और रहस्य के आवरण में लिपटी हुई है।आइये इस पर से सिलसिलेवार ढंग से पर्दा हटाने का प्रयास करते हैं———

२२अप्रैल १९२१ को इंडियन सिविल सर्विस छोडकर सुभाष महात्मा गांधी के आव्हन पर असहयोग आंदोलन में कूद पडे।देशबंधु चितरंजनदास ने उन्हें नेशनल कालेज़ के प्रिंसिपल पद का प्रस्ताव दिया जिसे उन्होनें स्वीकार कर लिया।चौरी-चौरा कांड के कारण महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो सुभाष ने कडी आपत्ति दर्ज़ करायी।

राष्ट्रीय आंदोलन के कई पडावों से गुज़रते हुए अंततः जनवरी १९३२ में सरकार ने सुभाष को घर में ही नज़रबंद कर दिया।जनवरी१९३२ से मार्च १९३३ के नज़रबंदी के काल में वेग गंभीर रूप से बीमार हो गये।सरकार ने उन्हे सशर्त रिहा किया और वे विएना सेनोटेरियम में इलाज़ के लिए भर्ती हो गये।

जब गांधीजी ने दूसरे असहयोग आंदोलन को भी वापस ले लिया तो सुभाज़ ने विएना सेनेटोरियम से ही लिखा—–“हम पिछले तेरह वर्षों से अपने को अधिकतम कष्ट देने और शत्रु को कम से कम कष्ट देने की रणनीति पर काम कर रहे हैं।पर यह रणनीति सफल नहीं हो सकी है।यह आशा करना बेकार है कि हम कष्ट उठाकर या प्यार करके अपने शासकों का ह्रदय परिवर्तन कर सकते हैं।”

सुभाष को यूरोप प्रवास के समय रूस जाने कीअनुमति नही मिली।दिसंबर १९४१ में दूसरे विश्वयुद्द में जापान भी शामिल हो गया।१४ पंजाब रेज़ीमेंट के जनरल मोहनसिंह अपने साथियों के साथ जंगली क्षेत्र में लगभग २४ घंटे तक पानी में घिरे रहे।जापानी हवाई जहाज पर्चे गिरा रहे थेः”एशिया-एशिया वासियों के लिऐ,गोरे राक्षसों को पूर्व से लात मारकर भगाओ।””भारत ,भारतीयों के लिए।”जनरल मोहनसिंह ने लिखा ,’इससे हमारी देशभक्ति की भावना जग गई।मुझे लगा कि वे हमारी भावनाओं को ही अभिव्यक्ति दे रहे हैं।ब्रिटेन ने युद्ध के बाद भारत को आज़ादी देने का थोथा वायदा भी नहीं किया।सौ बरसों से भारतीय सैनिक भाडे के सैनिकों का रोल अदा कर रहे थे।”

ऐसी परिस्थिति में जनरल मोहनसिंह ने मलाया की लडाई में बिखरे हुए भारतीय सैनिकों को संगठित करके राष्ट्रीय सेना बनाने का संकल्प लिया।उन्हें उनके साथी अकरम दस सैनिकों के साथ मिले।असैनिक प्रवासी भारतीयों ने भी उनके विचारों का समर्थन किया ।मोहनसिंह ने सौदागर दीन नामक प्रवासी भारतीय ज़ापानी सेना के मुख्यालय में संदेश भिज़वाकर कहा कि वे ब्रिटेन से युद्ध करके भारत को आज़ाद कराना चाहते हैं।केवल एक शर्त है कि उनके साथ जो ब्रिटिश कर्नल है उसे ना मारा जाय।शुरू मे मोहनसिंह ने अपने साथ के ५० सैनिकों को जिनमें कर्नल एल०यू०फित्ज़पैट्रिक भी थे,भारतीय राष्ट्रीय सेना के गठन के लिए सहमत कर लिया।१५ दिसंबर १९४१ को दो कारों में चार व्यक्ति आये।इनमें मेज़र फूज़ीवारा के साथ दो ज़ापानी और एक भारतीय प्रीतमसिंह थे। फूज़ीवारा ने मोहनसिंह से कहा कि वे अपने को तथा अपनी कमान के अंतर्गत सभी सैनिकों को स्वतंत्र समझें।युद्धबंदी नहीं।मोहनसिंह को सरकारी भवन अपने कार्यालय तथा आवास के लिए मिल गया।लगभग ३००भारतीय सैनिक मोहनसिंह के साथ हो गये।तीन दिन में यह संख्या एक हज़ार हो गयी।मेज़र फूज़ीवारा ने मोहनसिंह को आश्वस्त किया किया कि ज़ापान भारत पर बुरी नज़र नहीं रखता।मोहनसिंह ने फूज़ीवारा से अनुरोध किया कि भारतीयों के इस संघर्ष का नेतृत्व के लिए सुभाषचंद्र बोस को मलाया लाया जाये।फूज़ीवारा ने कहा कि ज़ापानी सुभाष को दो बार कांग्रेस अध्यक्ष रहने के कारण विश्वसनीय नहीं मानते।

३१ दिसंबर १९४१ को जनरल यामाशिता ने सभी भारतीय युद्धबंदियो को मोहनसिंह के हवाले कर दिया।मोहनसिंह ने भारतीय सैनिकों को लेकर विधिवत इंडियन नेशनल आर्मी का विधिवत गठन किया।उन्होने अधिकारियों के क्लास खत्म कर दिये।देशभक्ति, सांप्रदायिक सौहार्द ,आत्मनिर्भरता,ड्रिल, शारीरिक प्रशिक्षण का नया कार्यक्रम शुरू किया गया।सामूहिक भोजनालय बनाये गये।आई०एन०ए० की भाषा रोमनलिपि में हिंदुस्तानी निश्चित की गयी।

मोहनसिंह ने पुनः सुभाष को बुलाने पर जोर दिया।उन्होने आई०एन०ए० को ज़ापानी सेना के समान स्वतंत्र दर्ज़ा देने की भी मांग की और केवल भारतीय सीमा पर लडने की इच्छा ज़ाहिर की।आई०एन०ए० का मुख्यालय कुआलालम्पुर में स्थापित किया गया।आज़ाद हिंद फौज़ के गठन की कहानी

बाबू बुद्धसिंह जो बाद में मलाया के गांधी कहलाये आई०एन०ए० कैंप के सिविलियन क्वार्टर मार्शल नियुक्त किये गये।कुआलालमपुर में मुख्यालय खुलने के एक सप्ताह के भीतर आई०एन०ए० की पांच ब्रिगेड गठित कर एक रेज़ीमेंट बनायी गयी। ——-(क्रमशः)

जापानियों ने १६ फरवरी १९४२ को सिंगापुर पर कब्ज़ा कर लिया।उसी दिन शाम को सिंगापुर के फारेट पार्क में४५ हज़ार भारतीय सैनिकों को लेफ्टिनेंट कर्नल हंट ने युद्धबंदी के रूप में ज़ापान सरकार को सौंप दिया।जापान ने इन्हें जनरल मोहनसिंह को सौंपने की घोषणा की तो भारतीय सैनिक खुशी से नाचने लगे।१९४२ के प्रथम सप्ताह में टोकियों मे प्रमुख भारतीयों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया।इससे पूर्व सिंगापुर में हुई मीटिंग में मोहनसिंह,स्वामी सत्यानंद पुरी और बाबा अमरसिंह जो बैंकाक से आये थे शामिल हुए।

दो विमानों भरकर प्रवासी भारतीयों का प्रतिनिधिमंडल टोकियो रवाना हुआ ।जिस विमान में प्रीतमसिंह।स्वामी सत्यानंदपुरी,नीलकंठ अय्यर मुहम्मद अकरम शामिल थे।,वह ज़ापान के पर्वतीय क्षेत्र मे दुर्घटनाग्रस्त हो गया।२४ मार्च १९४२ को वे महान देशभक्त असमय काल-कवलित हो गये और इस कृतघ्न भारत देश ने उन्हे कभी याद करने की आवश्यकता तक नहीं समझी।टोकियो सम्मेलन २८ मार्च से ३० मार्च १९४२ तक टोकियो के सान्नी होटल में आयोजित किया गया।इस सम्मेलन की अध्यक्षता रासबिहारी बोस ने की।इस सम्मेलन में प्रवासी भारतीयों का एक बडा सम्मेलन रंगून या बैंकाक में करने का निर्णय लिया गया।बाद में सिंगापुर में २४ अप्रैल को बैठक कर भारतब की स्वतंत्रता के लिये काम करने का निर्णय लिया गया।ज़ापान,ज़र्मनी,इटली के राजदूतों ने तथा थाईलैंड के विदेशमंत्री ने भाग लिया।रासबिहारी बोस,आनंदमोहन सहाय,देवनाथदास,राघवन मेनन,नरूला,एन०एस०गिल,गिलानी और मोहनसिंह ने भाषण दिये।इस सम्मेलन में भारत की पूर्ण स्वतंत्रता को लक्ष्य घोषित किया गया तथा अविभाज़्य भारत को प्राप्त करने का संकल्प लिया गया।कार्यक्रम को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीतियों के अनुसार चलाने का निर्णय लिया गया।आंदोलन को इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का गठन कर उसके अंतर्गत चलाने का भी निर्णय लिया गया।१५ जून से २३ जून तक बैंकाक में प्रवासी भारतीयों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया

इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का पहला अध्यक्ष रासबिहारी बोस को चुना गया।जनरल मोहनसिंह इंडियन नेशनल आर्मी के सुप्रीम कमांडर नियुक्त किये गये।ज़नरल मोहनसिंह को ज़र्मन राजदूत ने एक दिन खाने अपने घर पर बुलाया।ज़ापान ने इसे पसंद नहीं किया।ज़ापानी जनरलों ने मोहनसिंह को विश्वास में लेकर कहा कि ज़ापान ब्रिटन की अपेक्षा ज़र्मनी को प्रथम शत्रु समझता है।आंग्ल -अमेरिकी शक्तियां शीघ्र समाप्त हो जायेंगी अंततः जापान और ज़र्मनी में संघर्ष होगा।

ज़नरल मोहनसिंह ने जापानियों से बैंकाक सम्मेलन के प्रस्तावों को मानने का अनुरोध कियापर ज़ापानियों ने इसे स्वीकार नहीं किया।ज़नरल मोहनसिंह ने लिखा–“ज़ापानियों ने इस मामले में रासबिहारी बोस को अपने साथ कर लिया।ज़ापानियों ने जो उत्तर भेजा था उसे रासबिहारी बोस ने अन्यों को नहीं दिखाया।रासबिहारी बोस ज़ापानियों के प्रति अधिक निष्ठावान रहे।”

बैंकाक सम्मेलन के प्रस्तावों पर जोर देने के कारणजनरल मोहनसिंह और मेज़र ओगावा में काफी वाद-विवाद हुआ।मोहनसिंह ने यहां तक कहा कि ज़ापान ने हमें धोखा दिया है।वह साम्राज्यवादी तथा रंगभेद करने वाली शक्तियों के रूप में कार्य कर रहा है।यदि ज़ापान ने भारत में ब्रिटेन की जगह लेने की कोशिश की तो हम उसके विरूद्ध भी लडेंगे।जनरल मोहनसिंह का कर्नल इवाकुरू से भी तीव्र वाद-विवाद हुआ।जनरल मोहनसिंह ने स्पष्ट कहा कि ज़ापान ने चीन और मंचूरिया में साम्राज़्यवादी नीति अपनायी है।भारतीयों ने ज़ापान सरकार को पत्र लिखकर भी अपनी मांगें रखीं पर अंत तक ज़ापान ने भारत की स्वाधीनता,आई० एन०ए० की भूमिका तथा भारतीयों की संपत्तिआदि से संबंधित मांगों और बैंकाक सम्मेलन में पारित प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया।

ज़ापानी सैनिकों ने ८दिसंबर १९४२ को आई०एन०ए० के कर्नल गिल को गिरफ्तार कर लिया।उन पर ब्रिटिश गुप्तचर होने का अभियोग लगाया गया।इसके विरोध में कर्नल मेनन,कर्नल गिलानी,और जनरल मोहनसिंह ने कौंसि आफ एक्शन से त्यागपत्र दे दिया।अध्यक्ष रासबिहारी बोस ने उनके इस्तीफे मंज़ूर कर लिये।जनरल मोहनसिंह ने १४ दिसंबर १९४२ को कर्नल इवाकुरू को पत्र लिखा कि वर्तमान परिस्थितियों में आई०एन०ए० अपनी मातृभूमि की आज़ादी के लिऐ कोई लाभप्रद कार्य नहीं कर सकता अतएव मैं उसे भंग करता हूं।२१दिसंबर १९४२ को मोहनसिंह ने आई०एन०ए० को विधिवत भंग कर दिया।इससे ज़ापानी बहुत नाराज़ हुए।ज़ापान की सेना के असैनिक सलाहकार सेंडा ने मोहनसिंह से कहा- ” ज़ापानी बहुत ईमानदार होते हैंऔर वे अपने वचन का पालन करते हैं ।वे कोई बात कागज़ के टुकडे पर लिखने और फिर उस पर अमल न करने में विश्वास नहीं करते आप ज़ापान के निर्देशन में काम करने को तैयार हैं या नहीं।”

ज़नरल मोहनसिंह ने उत्तर दिया—“भारत की स्वतंत्रता पाना हमारा काम है ,ज़ापान का नहीं।विश्व की कोई भी शक्ति या धमकी या भय मुझे ज़ापानियों के निर्देशन में काम करने के लिए विवश नहीं कर सकता।”

इसके बाद रासबिहारी बोस ने जनरल मोहनसिंह को कौंसिल आफ एक्शन से बर्खास्तगी का पत्र सौंप दिया।ज़नरल मोहनसिंह ने कहा -“बोस महोदय मैं आपकी मज़बूरी समझता हूं।मैं आपके निर्णय को सहर्ष स्वीकार भी करता हूं।“कर्नल इवाकुरू ने मोहनसिंह का उत्तर सुनने के बाद कहा कि ज़ापानी पक्ष अध्यक्ष रासबिहारी बोस के निर्णय से सहमत है,ज़ापानी आपको फांसी नहीं देंगे पर अब आपका आई०एन०ए० से कोई संबंध नहीं रहेगा।

इस वार्ता के बाद को मोहनसिंह जनरल फूज़ीवारा के घर ले जाया गया।वहां मोहनसिंह से पूंछा गया कि वे बतायें कि ज़ापानियोंमसे किन शर्तों पर सहयोग करेंगे।इस पर मोहनसिंह ने कहा कि मेरा पहला प्रस्ताव है कि सुभाष को ज़र्मनी से ज़ापान लाया जाये।सुभाष को ज़ापान लाकर ज़ापानी उन्हें अपनी ईमानदारी का विश्वास दिलायें हम सुभाष पर विश्वास करने को तैयार हैं ज़ापानियों पर नहीं।मोहनसिंह ने यह भी कहा कि सुभाष के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति इस आंदोलन पर नियंत्रण नहीं कर सकता।गुर्गों का कभी सम्मान नहीं होता ,यदि सुभाष को नहीं लाया ज़ा सकता तो आई० एन०ए० की संख्या बढाना ही एकमात्र विकल्प है।यह संख्या कम से कम तीन लाख होनी चाहिये।”

मोहनसिंह को नौसेना के अड्डे पुंगल भेज़ दिया गया।वहां वे एक झोपडी में रहे।उनके ए०डी० सी० वी०रतन और इकबाल तथा अंगरक्षक पोहलो राय को उनके साथ की अनुमति दे दी गयी।आई०एन०ए० के कम से कम चार हज़ार सैनिकों को भीषण यातनायें दी गयीं।आई०एन०ए० के ४५ हजार सैनिकों मे से केवल ८हजार आई०एन०ए० में रहने को सहमत हुए।सी० एन० नाम्बियार को ज़र्मनी का चार्ज़ देकर सुभाष आबिद हुसैन के साथ ८फरवरी १९४३ को एक ज़र्मन पनडुब्बी में बैठकर केल से रवाना हुए।ज़र्मन पनडुब्बी मेडागास्कर में एक निर्धारित स्थान पर ज़ापानी पनडुब्बी से मिली।सुभाष ज़ापानी पनडुब्बी में बैठ गये।ज़ापानी पनडुब्बी केप आफ गुड होप का चक्कर लगाती हुई ६मई १९४३ को सुमात्रा के उत्तरी भाग में स्थित सबाना द्वीप लाई।

नेताजी मत्सुदा के छद्म नाम से ज़ापानी नौसेना के एक अड्डे पर ठहरे।वहांसे पेनांग,सैगोन,मनीला,ताइपे,हमामात्सु मे एक-एक रात रूकते हुए१६ मई १९४३ को टोकियो पहुंचे।१०जून १९४३ को ज़ापान के प्रधानमंत्री तोज़ो से सुभाष की मुलाकात करायी गयी।१४ जून को उनकी तोजो से दूसरी बार मुलाकात हुई।१६ जून को सुभाष को ज़ापानी संसद में आमंत्रित किया गया।१८ जून को सुभाष के टोकियो पहुंचने की घोषणा की गयी।१८ जून १९४३ को टोकियो रेडियो से नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने टोकियो रेडियो सरे भारतवासियों के नाम अपील प्रसारित की।२जुलाई १९४३ को सुभाष सिंगापुर पहुंचे।आई०एन०ए०व इंडियन इंडिपेंडेंस लीग ने उनका भव्य स्वागत किया।४जुलाई को सुभाष ने कैथाई सिनेमा हाल में हुए समारोह में मुक्ति-संघर्ष का ऐलान किया।नेताजी ने अपने ओजस्वी भाषण में कहा -‘मैं,जीवन भर यह महसूस करता रहा हूं कि भारत हर दृष्टि से आज़ादी के लिए तैयार ।उसके पास केवल मुक्ति-वाहिनी नहीं है।आपने आज़ादी के मार्ग में खडे एक मात्र अवरोध को भी आज तोड दिया।”

सुभाष सिंगापुर से रंगून पहुंचे उन्होने वहां अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह ज़फर की कब्र पर फूल चढाये।जुलाई १९४३ के अंतिम सप्ताह में बहादुरशाह ज़फर की कब्र के समक्ष आई०एन०ए० की शानदार परेड हुई।२६ अगस्त १९४३ को सिंगापुर वापस आकर सुभाष ने आई०एन०ए० के सुप्रीम कमांडर का पद संभाल लिया।२४ अक्तूबर १९४३ को सिंगापुर के कैथाई सिनेमा हाल में इंडियन इंडिपेंडेस लीग की कांफ्रेंस में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार(आर ज़ी हुकूमते आज़ाद हिंद) के गठन की घोषणा की गई।यहीं आई०एन०ए० का नाम आज़ाद हिंद फौज़ रखने की घोषणा की गई।

नेताज़ी और उनके मंत्रिमण्डल के सदस्यों ने भारत को स्वाधीन कराने की शपथ ली।उनके मंत्रिमंडल के सदस्य थे—

लेडी डाक्टर कैप्टन लक्ष्मी स्वामिनाथन,ले०कर्नल ए०सी० चटर्ज़ी,एस० ए० अय्यर,ले० कर्नल अज़ीज़ अहमद खां,एन० एस०भगत,जे०के० भोंसले,गुलज़ारासिंह,एम०ज़ेड०कियानी,ए०एन० सहाय,करीम घानी, देवनाथ दास,डी०एम० खां,ज़े० थिकी,ईश्वरसिंह,ए० येलप्पा,रासबिहारी बोस,एन०एन० सरकार,और डा० डी०एस०राजू(आई०सी०एस०)।———ज़ापान, ज़र्मनी,इटली,स्याम,बर्मा ,फिलीपींस,नासिक,नानकिंग,और मोनचुकों की सरकारों ने इस अस्थायी सरकार को मान्यता दे दी।अस्थायी सरकार ने २३अक्तूबर १९४३ की रात में ब्रिटेन व अमेरिका के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

नेताज़ी ने दिसंबर १९४३ के प्रथम सप्ताह में ज़ापानियों द्वारा मुक्त कराये अंज़मान व निकोबार द्वीप समूहों की यात्रा की और इनका नाम शहीद और स्वराज द्वीप रखा।मेज़र जनरल ए०डी०लोगनाथन को इन द्वीपों का मुख्य आयुक्त नियुक्त किया गया परंतु जब वे इन द्वीपों का चार्ज़ लेने पहुंचे तो ज़ापानियों ने ने उन्हें चार्ज़ नहीं दिया।

ज़ापानियों ने मोहनसिंह को पुलाऊ उविन द्वीप के नौसेनिक अड्डे एक मकान में कैद कर रखा था।उन्हें कोई सुविधा नहीं दी गयी।तीन सिखों ने जान का खतरा उठाकर गुपत रूप से मोहनसिंह से भेंट कीऔर वापस आकर नेताज़ी के निजी चिकित्सक डा० डी०एस० राजू से भेंट की।मोहनसिंह मलेरिया से पीडित थे और नरकंकाल से दीख रहे थे।

डा०राजू और मेज़र ओगावा मोहनसिंह से मिलने गये।डा०राजू प्रयासों से नेताज़ी की मोहनसिंह से मुलाकात हुई।मोहनसिंह ने नेताज़ी को सारी कथा सुनाई और कहा ज़ापानी आज़ाद हिंद फौज़ को आधुनिक हथियार नही देंगे।

मोहनसिंह ने नेताज़ी को बताया कि भारतीय सेना में ७० प्रतिशत नेहरू जी के प्रशंसक हैं।नेताज़ी ने कहा –“ज़ापानियों के बारे में आपके विचार सही हैं।मैं रोज़ाना अनेक कठिनाइयों का सामना कर रहा हूं।मैं अपनी स्वतंत्र शक्ति भी विकसित कर रहा हूं।हम कुछ समय बाद ज़ापानियों पर निर्भर नहीं रहेंगे।नेताज़ी ने मोहनसिंह से कहा लार्ड वावेल जो विशाल सेना

खडी कर रहा है वह आज़ाद हिंद फौज़ के भारत में घुसते ही हमारे साथ हो जायेगी।

गुजरात में पालमपुर रियासत के नाथालाल पारिख फारवर्ड ब्लाक के खजांची थे।पालमपुर में नेताजी से बात करने के लिये गुप्त वायरलेस सेट लगाया गया था।फारवर्ड ब्लाक के नेता शीलभद्र याजी से इस वायरलेस द्वारा नेताजी ने नवंबर १९४३ में बात की ।याजी को सिंगापुर बुलाया गया।उडीसा की चिल्का झील और समुद्र टत के बीच पनडुब्बी पहुंची।साढे सात दिन में याजी ज़ापानी पनडुब्बी से सिंगापुर पहुंचे।वहां उनकी नेताज़ी से ढाई घंटे बात हुई।नेताजी ने विस्तार से भारत की परिस्थितियों की जानकारी ली।याज़ी उसी पनडुब्बी में बैठकर भारत वापस आ गये।बंबई में उन्होने भूमिगत लोगों की बैठक बुलायी।याज़ी ने डा०राममनोहर लोहिया,साने गुरूजी,मुकुंदीलाल आदि के सामने एक विस्तृत योजना प्रस्तुत की ।इस पर लोहिया ने कहा कि मैं सुभाष की मदद नहीं करूंगा।बल्कि उनसे लडूंगा।सुभाष की मदद करने से पावर फारवर्ड ब्लाक के हाथ में चला जायेगा।इस पर शीलभद्र याजी ने कहा कि आज़ादी देश की होगी व्यक्तिगत नहीं। याज़ी लोहिया से लडने को तैयार हो गये।साने गुरूज़ी ने उन्हें पकड लिया।इस पर शीलभद्र याज़ी ने कहा आज से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से कोई समबमध नहीं रहेगा।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का चरित्र और आचरण भी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से भिन्न ना था।त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता केशवराव बलिराम हेडेगेवार से भेंट की और उनसे आग्रह किया कि वे अपने ६०हजार स्वयंसेवकों को क्रांति के इस महासंग्राम में उतारें परंतु हेडेगेवार ने उत्तर दिया —-‘ इनमें शिशु और अनाडी लोग भी हैं जो क्रांति का सही मतलब नहीं जानते।” कुल मिलाकर वे किसी भी कीमत पर अपने स्वयंसेवकों को क्रांति के लिये उतारने को तैयार नहीं हुए।

केवल कीरत पार्टी ने हर तरह का सहयोग देने का वचन दिया।कांगरेस,कम्यूनिस्ट सोशलिस्ट व आर०एस०एस० ने नेताजी को कोई सहयोग नहीं दिया।

आज़ाद हिंद फौज़ का गठन

1 COMMENT

  1. Mukul Shrivastava
    इंदिरा गाँधी पे 100 करोड़ रुपयों के विज्ञापन में खर्च करने से तो अच्छा होता की देश के 100 जिला अस्पतालों को एक एक करोड़ दे के उनकी हालत सुधारी जाती….ये सब कब तक चलेगा….हमारे टेक्स का पैसा कब तक बर्बाद होता रहेगा….????
    कितना बचकाना सवाल है भाई …..भैया ये सब तब तक चलता रहेगा.. जब तक आप और हम घरो में बैठकर भ्रष्टाचार और गन्दी राजनीती का रोना रोते रहेगे ……संसद और विधान सभाओ के चुनाव लड़कर वहा नहीं पहुचेगे ……जितना टाइम नेट पर बर्बाद किया है …उतने टाइम में ५०००० वोट पक्के होते , यदि जनता के बिच उनका सुख बढ़ाते और दुःख बटाते तो……..इन हरामखोर नेताओं की असलियत उन्हें बताते ….

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here