भारतीय राजनीति को ‘तिलक’ चाहिए

tilak2आगामी 1 अगस्‍त को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की 89वीं पुण्यतिथि पड़ रही है। ‘प्रवक्‍ता डॉट कॉम’ के विशेष आग्रह पर युवा पत्रकार राकेश उपाध्याय ने समकालीन राजनीति और तिलक की प्रासंगिकता विषय पर तीन कड़ियों में आलेख लिखा है। ये आलेख आज की परिस्थिति के अनुकूल विचारोत्तेजक है और लोकमान्य तिलक के प्रति एक भावभीनी श्रद्धांजलि भी। लोकमान्य के जीवन का विहंगावलोकन करती ये श्रृंखला हमारे युवा पाठकों का आज की राजनीतिक परिस्थिति में अत्यंत महत्वपूर्णा मार्गदर्शन करेगी, इसका हमें विश्‍वास है। इस श्रृंखला की पहली और दूसरी किश्त हम प्रकाशित कर चुके हैं। प्रस्‍तुत है तीसरी एवं अंतिम किश्त- –संपादक

आज भारत के कुछ नेता जब ये कहते हैं कि स्वराज आ गया है उसे सुराज में बदलना है तो उन्हे सत्य के दिग्दर्शन कराने के लिए तिलक के समान प्रखर मुद्रा में कोई सामने नहीं आता। क्या यही हिंदुस्तान का वास्तविक स्वराज है। और अगर यही स्वराज है तो अंग्रेजीराज क्या था? वही संसद, वही विधानसभाएं, वही पुलिस, वही पटवारी और वही कलेक्टर और वही सरकारी, प्रशासनिक षडयंत्र, आखिर क्या बदल गया हिंदुस्तान में? यही न कि गोरे की जगह कालों ने सारी जगहें भर दीं। लेकिन वो घाव हिंदुस्तान की धरती से मिट तो नहीं सके जिन्हें भरने की खातिर तिलक जैसे नेता ने देश में आजादी का जोश जगाया था।

आज के कथित राष्ट्रीय राजनीतिक नेताओं से कोई पूछे कि क्या वो तिलक के स्वराज की परिभाषा बता सकते हैं नई पीढ़ी को? क्या वो ब्रिटिश भारत सरकार और वर्तमान भारत सरकार के राज का अंतर समझा सकते हैं नई पीढ़ी को? और यदि नहीं तो उन्हें गिरंबां में झांककर वह करने और बनने का प्रयास करना चाहिए जिसे करके तिलक भारतीय इतिहास के स्वर्णिम हस्ताक्षर बन गए।

1947 के पहले की भारत सरकार और 1947 के बाद की भारत सरकार में यदि कोई मूलभूत अंतर हो सकता है तो सिर्फ यही कि 47 के पहले अंग्रेजों के हाथों में भारत सरकार की कमान थी और आज भारतीयों के हाथ में। सिर्फ गोरे और काले का फर्क आया है बाकी तो ये वही सरकार है जिसने हिंदुस्तान की दशा रंक कर डाली। और आज भी हिंदुस्तान की दशा में कोई विशेष फर्क नहीं आया है।

इस सरकार की रिपोर्टों की ही मानें तो स्थिति की गंभीरता का पता लग जाता है। अर्जुन सेनदास गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट सन् 2008 में संसद पटल पर रखी गई थी। उस रिपोर्ट ने बताया कि देश की तकरीबन 77 फीसद आबादी रोजाना 10 से 20 रूपये में गुजारा करने को मजबूर है।

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट हमारी सरकारी मशीनरी पर छाए भ्रष्टाचार के संकट को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है तो दूसरी ओर किसानों की आत्महत्याओं के सिलसिले का न रूक पाना और देश में तेजी से पैर पसारते नक्सली आतंक से स्पष्ट है कि देश में सब कुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है। पिछले एक दशक में लगभग एक लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हैं? क्या कोई द्रवित हो रहा है? देश के 150 जिले नक्सली आतंक की जद में आ चुके हैं, क्या सिर्फ बंदूक की गोली ही इस समस्या के समाधान का रास्ता है? ये जो नक्सली हैं कहीं विदेश से नहीं आए हैं, इसी माटी में वे भी जन्मे हैं, लेकिन आज ऐसे हालात कैसे पैदा हो गए कि उन्होंने हाथों में बंदूकें ले ली हैं? संभव हो कि उन्हें समर्थन और शक्ति देने के पीछे किसी विदेशी ताकत का हाथ हो लेकिन उनकी भावनाएं तंत्र के खिलाफ विद्रोही क्यों हो गईं इसके कारणों पर किसी ने कभी सोचा है? छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक पिछले दिनों दिल्ली में कुछ प्रमुख पत्रकारों के बीच बैठे थे और वहां उन्होंने डॉ. विनायक सेन के संबंध आतंकवादियों से होने की बात कही। उन्होंने कहा कि ये डॉक्टर नक्सली आतंकियों को रणनीतिक सहायता उपलब्ध कराता है, उनके लिए खुफियागिरी करता है? इसलिए इसे गिरफ्तार किया था, सर्वोच्च न्यायालय के सामने हम पूरे प्रमाण नहीं रख सके, ये बात अलग है और इसे जमानत मिल गई लेकिन ये आदमी देश की सुरक्षा को खतरा है।

अब इस स्थिति पर क्या टिप्पणी की जा सकती है? हालात की गंभीरता का अंदाजा न तो इस पुलिस महानिदेशक को है और ना ही हमारे हुक्मरानों को। जब जनता भूखी और नंगी हो, उसके सामने ही देश के शहरों में अय्याशी करने वाला एक वर्ग अपनी सुख सुविधाओं पर पैसा पानी की तरह बहा रहा हो और जनता दो जून की रोटी को मोहताज होने लगे तब प्रकृति के सत्य के अनुसार क्या होना चाहिए, इसे जानने में किसी बुध्दिमान को भला कितनी देरी लग सकती है?

न्यायपालिका, कार्यपालिका जिस देश में उसकी अपनी भाषाओं में काम नहीं करते वह सरकारें और उसका तंत्र भला अपनतत्व कैसे पैदा कर सकता है? जहां 24 से 30 साल के छोरे एक परीक्षा पास कर शासन का ऐसा एकाधिकार हासिल कर लेते हैं कि उनकी उपस्थिति में बुजुर्ग और उम्रदराज जनता भेड़-बकरियों की तरह ढकेली और जमीन पर बिठा दी जाती हो, जहां लेखपाल से लेकर न्यायालय और चपरासी, संतरी से लेकर मंत्री तक सिर्फ धन और ताकत की भाषा ही समझते हैं वहां प्रकृति के सिध्दांतों के अनुरूप क्या न्याय होना चाहिए, इसे समझना कितना कठिन हो सकता है? ऐसी व्यवस्था और सरकारों को उलटने के लिए ही प्रकृति तिलक, गांधी, जेपी, दीनदयाल और लोहिया जैसे रत्नों को पैदा करती है।

सवाल है कि इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर कोई विश्वास कैसे करे जबकि हम जानते हैं कि यदि हम ही प्रधानमंत्री बन जाएं तो कुछ भी न कर सकेंगे सिवाय संसद में विधायी कार्यों को निपटाने के। और प्रधानमंत्री भी हमारे देश में कौन बनेगा यदि यह भी कहीं दूर सागरपार बैठी कोई ताकत तय करेगी तो परिस्थिति क्या बन सकती है? किसी की ईमानदारी और देशभक्ति पर शक करना बेमानी बात है, निर्णय प्रक्रिया पारदर्शी हो या गोपनीय लेकिन उसके पीछे की मानसिकता क्या है, ये उस निर्णय के परिणाम बता देते हैं। हिंदुस्तान की जो आज हालत है, देश अपनी बुध्दि और मन से सोच पाने में कुंठित हो चला है तो हालत समझ पाना किसी भी स्वतंत्रचेता व्यक्ति के लिए असंभव नहीं है। प्रश्न है कि ये हालत पैदा करने के लिए जिम्मेदार कौन है? बचपन से ही एक विशेष मानसिकता में जिंदा रहने, पलने और बढ़ने के लिए जहां आम अवाम को मजबूर कर दिया गया है। आज हकीकत समझ-देख पाने में हम असमर्थ हैं क्योंकि हमने देखने और समझने के अपने पैमाने बना लिए हैं।

हमारे राजनीतिक दलों की हालत क्या है? इन दलों में आंतरिक अनुशासन के नाम पर ऐसा सन्नाटा पसरा पड़ा है कि किसी में हिम्मत ही नहीं हो रही है कि वो बिगड़ते हालात और हमारे नेताओं और व्यवस्था की लाचारी पर सवालिया निशान खड़ा कर सकें। हिम्मत आए भी तो कैसे क्योंकि बहुतांश राजनीतिज्ञ देश के भले की सोचने की बजाए अपने व्यावसायिक और बेटे-बेटियों-रिश्तेदारों के साम्राज्य को बनाए रखने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों पर येन-केन प्रकारेण अपना एकाधिकार बनाए घूम रहे हैं। वे भ्रष्टाचार में स्वयं इतने आकंठ डूबे हैं कि कोई इनसे किसी परिवर्तन की क्या उम्मीद करे?

आखिर कौन नहीं जानता कि हमारे चुनाव किस प्रकार लड़े और लड़ाए जा रहे हैं? अगर इसी कसौटी पर हम अपने लोकतंत्र को कस लें तो देश की संसद में बैठे अधिकांश निर्वाचित प्रतिनिधि जेल की सलाखों के भीतर होने चाहिए। क्योंकि इनमें से कोई ये दावा नहीं कर सकता कि उसने चुनाव जीतने के लिए चुनाव आयोग द्वारा बांधी गई खर्च सीमा के दायरे में रहकर चुनाव लड़ा है, अनैतिक हथकंडों का इस्तेमाल नहीं किया है? और इन्हें रूपया कहां से मिलता है? इसका क्या कोई ऑडिट होता है? चुनावी गणित फिट करने के लिए पंचायती चुनावों से लेकर संसदीय चुनावों तक सुरा और सुंदरियों को जो मायाजाल खड़ा किया जा रहा है, आज कौन नेता है जो खम ठोंक कर इस सड़ रही व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिए आगे आए। किसी पार्टी के राष्ट्रीय कार्यालय से करोड़ों रूपए उठा लिए जाते हैं लेकिन प्राथमिक सूचना रिपोर्ट तक दर्ज करने का साहस कोई नहीं करता है। आखिर क्यों? क्योंकि हमारे राजनीतिक दल और नेता खुद ही अवैध धंधों में लिप्त हैं। उनमें सच का सामना करने का साहस ही नहीं है।

वैसा ही देश का प्रशासन तंत्र बन गया है। हाल ही में देश में तकनीकी शिक्षा को संचालित करने वाली देश की सबसे बड़ी संस्था एआईसीटीई के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों की असलियत देश को पता चली। पंजाब में आयकर विभाग के शीर्ष अफसरों के बारे में रिपोर्टें प्रकाशित हुईं, जम्मू-कश्मीर में राजनीतिज्ञ-अफसर गठजोड़ किस प्रकार रातें रंगीन कर रहा था इसका खुलासा हुआ, उ.प्र. के एक पूर्व मुख्य सचिव की असलियत देश के सामने आई इन उदाहरणों से पता चलता है कि हम कितने पानी में हैं। ये उबलते चावल की हांडी के वो दाने है जिन्हें छूकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारा तंत्र किस हालत में पहुंच गया है? यहां ये दावा भी किया जा सकता है कि आखिर ये पकड़े भी तो जा रहे हैं लेकिन ये स्वीकार करने में भी संकोच किसी को नहीं होना चाहिए कि देश का वर्तमान प्रशासन भ्रष्टाचार के खतरनाक दलदल में धंस चुका है। इसके पहले कि वो सारे देश को अपने हाथों में लेकर ध्वस्त हो हमें फौरी तौर पर उपाय खोज लेने चाहिए।

समस्याओं का अंतहीन सिलसिला है, फेहरिस्त दर फेहरिस्त है किंतु समाधान क्या है। यह समाधान पाने के लिए ही हमें तिलक महाराज की ओर लौटना होगा। 1905 में उन्होंने हमें जो चतुस्सूत्री मंत्र दिया था उसे फिर से खंगालना होगा। उस चतुस्सूत्री का पहला मंत्र था -स्वराज्य की स्थापना। हमें हिंदुस्तान में वास्तविक स्वराज्य की स्थापना में जुटना होगा। आज जो कथित स्वराज है ये तो उसी सभ्यता का हिस्सा है जिसे गांधी ने हिंद स्वराज में चंडाल सभ्यता कहकर लताड़ा था। इस कथित स्वराज के रूप में चल रहे ब्रिटिश राज्य को हमें पूरे तौर पर अलविदा कहना होगा। दूसरा मंत्र दिया था तिलक महाराज ने-स्वदेशी। स्वदेशी सिर्फ विदेशी या देशी कंपनियों की वस्तुओं तक का मामला नहीं है इससे भी अधिक ये जीवनमूल्यों से जुड़ा मामला है। तो अपने स्वदेशी जीवनमूल्यों और व्यवहार के तरीकों को अपने आचरण में उताने की दिशा में हमें आगे बढ़ना होगा। फिर से उसी प्राकृतिक जीवन की शरण लेनी होगी जिस पर चलकर हजारों साल तक हम स्वावलंबी रहे और आगे भी रह सकते हैं। विकास और जीवन की धुरी गांव को बनाना होगा। ऐसे गांव जहां लौकिक और पारलौकिक शिक्षा के साथ स्वस्थ जीवन से जुड़ी हर चीज मौजूद रहे। विश्व का वर्तमान परिदृश्य भी यही कह रहा है कि हम प्रकृति के पास चलें। वैश्विक तापमान वृध्दि का संकट सारी दुनिया को अपनी जीवनशैली बदलने के लिए मजबूर कर रहा हैं। हमारे पास तो वो थाती है कि हम अपनी जीवनशैली को और विकसित कर सारी दुनिया को इस संदर्भ में दिशा दिखा सकते हैं।

तीसरा मंत्र था-बहिष्कार। तो जो-जो बातें हमारे समाज की मनोरचना के विपरीत हैं, भारतीय जीवन दर्शन को अवहेलित करती हैं, उन सभी चीजों का बहिष्कार और परिष्कार हमें करना होगा। ठीक है हमारे पास कमाने और संचय करने की बुध्दि भगवान ने कुछ ज्यादा दे दी है लेकिन हमें सोचना होगा कि सारी वसुधा हमारे उपभोग के लिए तो नहीं बनी। इस लिहाज से ऐसी व्यवस्था निर्मित करनी होगी कि कोई कमाए कितना ही क्यों ना, उसके उपभोग की एक निश्चित सीमा रहनी चाहिए। संतुलित उपभोग के बाद शेष बचत से उसे सिर्फ नए उद्यम खड़े करने का हक होगा जहां समाज का धन समाज के कल्याण के लिए फिर से नियोजित कर दिया जाएगा। इसलिए अमर्यादित और असंयमी उपभोग का बहिष्कार कर हम पश्चिम की सभ्यता को सिरे से खारिज कर सकते हैं।

चौथा मंत्र है-राष्ट्रीय शिक्षा का। हमारा देश विविध भाषा और पांथिक बहुलता से समृध्द देश है। यहां की शिक्षा प्रणाली भी ऐसी होनी चाहिए कि जो व्यक्ति को आजीवन तमाम कुंठाओं से दूर रख कर मुनष्यजीवन की बेहतरी के लिए कुछ करना को हौसला दे सके। इसलिए शिक्षा रोजगार परक होने के साथ साथ संस्कारप्रद भी बननी चाहिए । इसमें इस राष्ट्र के जीवनोद्देश्य का सार समाहित रहना चाहिए।

कलियुग का सत्य है यथा राजा तथा प्रजा। इसलिए शुरूआत नेतृत्व के स्तर से होनी चाहिए। हमारा नेतृत्व पवित्र भाव से युक्त और जुझारू होना चाहिए। तिलक महाराज ने आजीवन इस पवित्रता को भंग ना होने दिया। उनके समय आजादी की बात करना कल्पनालोक में उड़ने जैसा था लेकिन अपने पराक्रम से उन्होंने अपने जीवित रहते ही आजादी को देश का केंद्रीय मुद्दा बना दिया। माण्डले कारावास से 6 साल बाद जब सन् 1914 में छूटकर वो आए तो उनके माथे पर तनिक भी शिकन नहीं थी। उनका स्वास्थ्य जरूर खराब हो चला था लेकिन उन्होंने कांग्रेस को फिर से स्वराज्य की मांग के लिए ललकारने में मिनट नहीं गंवाया। 5 जनवरी, 1915 को उन्होंने केसरी में संपादकीय लिखा- पिछले कुछ सालों में कांग्रेस पर एक बार फिर उदारवादियों का वर्चस्व बढ़ गया है। मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि इन उदारवादियों ने कांग्रेस को फिर से एक क्लब बना कर रख दिया है। एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस की भूमिका समाप्त हो गई है। कांग्रेस देश में अपनी प्रतिष्ठा और प्रभाव खो चुकी है। इसके लिए मैं सीधे तौर पर गोखले, वाचा और मेहता को जिम्मेदार ठहराता हूं। ये लोग किसी भी कीमत पर राष्ट्रवादियों को कांग्रेस में घुसने नहीं देना चाहते। ये राष्ट्रवादियों से भयभीत रहते हैं।

तिलक ने गोखले और मेहता पर कांग्रेस को कमजोर करने के लिए प्रहार दर प्रहार जारी रखे। इस बीच 19 फरवरी, 1915 को गोपाल कृष्ण गोखले का निधन हो गया। कुछ ही महीनों बाद 5 नवंबर, 1915 को फिरोजशाह मेहता भी चल बसे। तिलक विरोधियों ने इन मौतों के लिए भी तिलक के कठोर लेखन को जिम्मेदार ठहराया। लेकिन तिलक ने केसरी में प्रकाशित अपने संपादकीय और श्रध्दांजलि सभाओं में दिए गए वक्तव्यों से इसे झूठला दिया। उन्होंने कहा-मेहता और गोखले के साथ ब्रिटिशराज के सवाल पर मेरे मतभेद थे लेकिन इससे राष्ट्रजीवन के विकास के संदर्भ में उनका योगदान तो छोटा नहीं हो जाता। ये दोनों नेता भारत के भाल के मुकुट थे।

इन दोनों नेताओं के दिवंगत होते ही कांग्रेस में राष्ट्रवाद का परचम बुलंद हो गया। कांग्रेस की रगों में नया खून दौड़ने लगा था। तिलक महाराज ने इस नए खून के तेवरों को भांप लिया। उनके चेहरे पर मुस्कराहट दौड़ गई कि जिस उद्देश्य की खातिर उन्होंने धरा धाम पर जन्म लिया वह जीवनोद्देश्य पूरा हुआ। सारे देश में स्वराज्य प्राप्ति का स्वर धीरे धीरे बुलंद हो चुका था। उधर प्राची में तिलक का जीवन सूर्य अस्त हो चला था तो दूसरी ओर पूरब में गांधी के रूप में हिंदुस्तान की राजनीति में एक नए युग का सूर्योदय हो रहा था। समाप्त

नोटतिलक महाराज को समर्पित इस श्रध्दांजलि का मेरा मकसद किसी प्रकार से किसी भी व्यक्ति या संस्था की गरिमा को क्षीण करना नहीं है। हमारा नेतृत्व वर्ग अपने जीवनोद्देश्य की पहचान कर भारत राष्ट्र के शाश्वत जीवनोद्देश्य से उसका मिलान करे, महात्मा तिलक के समान अपनी भूमिका पहचान कर भारतीय राजनीति में व्याप्त जड़ता को दूर करने के लिए राष्ट्रीय राजनीतिक दलों में कुछ युवा सक्रिय हों, ऐसे युवा जो नैतिक और चारित्रिक रूप से अपने जीवन को सदा कसौटी पर कसने को तैयार हों, सिर्फ इसी भाव-भावना का प्रचार मेरा मकसद है। यदि इस मकसद में मैं रंच मात्र भी कामयाब हुआ तो समझूंगा कि मेरी लेखनी सफल है।

6 COMMENTS

  1. लोकमान्य तिलक के बहाने वर्तमान व्यवस्था की कमियां उजागर की गई हैं, लेकिन सिर्फ कमियों को बताने से क्या होने वाला है, विकल्प क्या है और उसकी व्यावहारिकता कितनी होगी। हिंदुस्तान कोई छोटा देश नहीं है और न ही यहां कोई नई बात तुरंत लागू हो सकती है। बडा मुल्क है हिंदुस्तान और वैसी ही उसकी जरुरतें भी हैं। हमें अमेरिका, चीन और यूरोप को टक्कर देनी है, आगे निकलना है तो इसके लिए उन रास्तों की ओर ध्यान देना होगा जो रास्ते विकसित देशों ने अपनाए। एकला चलो की नीति से तो आप कहीं के नहीं रहेंगे। तिलक जी के समय की बात और थी, अब भारत को दुनिया के अनुकूल खुद को ढालना है, और खुशी की बात है कि हम उस हिसाब से बदल भी रहे हैं, इसमें तिलक जी के जज्बे को यदि हम शामिल कर लें तो हम काफी आगे निकल सकते हैं लेकिन अब यदि आप दुनिया से अलग किसी तीसरे रास्ते की बात करना चाहेंगे तो काफी कठिनाइयां हमारा रास्ता रोककर खडी हो जाएंगी।

  2. बदलाव लाना है तो तिलक को हमेशा याद रखना होगा…कोई बात नहीं कि जिंदगी जूझते जूझते ही बीत जाए…तिलक को क्या मिला…अंग्रेजों से मिलकर चले होते तो शायद आराम से जिंदगी कट जाती…जैसे आजकल हमारे नेता आराम से जिंदगी बिताने के लिए कुछ न कुछ तिकडम रचते रहते हैं…उन्हें परवाह नहीं है कि देश किधर जा रहा है…परवाह यही है कि हमारी कुर्सी न हिले…तिलक तो जूझते जूझते 65 की उम्र में संसार से चले गए और हमारे आज के नेता…पूछिए नहीं…85 साल की उम्र में भी गाल पके टमाटर की तरह लाल लाल…देश के हालात से ये कितने चिंतित हैं…उनकी सेहत ही सब बयॉ कर देती है…

  3. लॊकमान्य तिलक कॆ समय कॆ भारत और आज कॆ भारत मॆ बुनियादी अन्तर आ चुका है. यॆ अन्तर सॊच का है, मानसिकता का है..नई पीढी को प्रेरणा देने के लिए क्य़ा कोई नेता भारत में जिंदा है। और यदि नहीं है तो तिलक के सपनों को पूरा करने की उम्मीद कोई किससे रखे। आप स्वराज की बात कर क्या पाएंगे जबकि हमारे नेता खुद ही हमें अमेरिकी और यूरोपीय गुलामी में कैद रखने के समझौतों पर दस्तखत कर आए हैं।

  4. Aapka alekh aaj ke naujawano sarkar ka wah rup dikha raha hai jise sub dekhkar b aaj chup hai….. aur pratikriya karne se piche hatte huye apne niji swarth ko banane mein lage huye hai..

  5. राकॆश जी का भारतीय राजनीति को ‘तिलक’ चाहिए” लॆख् अच्छा ल‌गा ,यॆह् वर्तमान राजनीति को दर्शाता
    है

  6. राकेशजी ने स्‍वतंत्रता सेनानी लोकमान्‍य बालगंगाधर तिलक को याद करते हुए वर्तमान समय की विद्रूपता को कुशलतापूर्वक रेखांकित किया है। जिस तरह भारतीय नेता समझौतापरस्‍त व्‍यवहार करने लगे हैं, क्षेत्रवाद की गिरफ्त में फंसे हुए हैं, वंशवाद की विषवेल को बढाए जा रहे हैं, ऐसे समय में तिलक जैसे प्रखर राष्‍ट्रवादी नेता की हमें जरूरत है।

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