भारत की पलायन करती अर्थव्यवस्था यानी मज़दूरों को सादर समर्पित

गर लौट सका तो जरूर लौटूंगा, तेरा शहर बसाने को।
पर आज मत रोको मुझको, बस मुझे अब जाने दो।।
मैं खुद जलता था तेरे कारखाने की भट्टियां जलाने को,
मैं तपता था धूप में तेरी अट्टालिकायें बनाने को।
मैंने अंधेरे में खुद को रखा, तेरा चिराग जलाने को।
मैंने हर जुल्म सहे भारत को आत्मनिर्भर बनाने को।
मैं टूट गया हूँ समाज की बंदिशों से।
मैं बिखर गया हूँ जीवन की दुश्वारियों से।
मैंने भी एक सपना देखा था भर पेट खाना खाने को।
पर पानी भी नसीब नहीं हुआ दो बूंद आँसूं बहाने को।
मुझे भी दुःख में मेरी माटी बुलाती है।
मेरे भी बूढ़े माँ-बाप मेरी राह देखते हैं।
मुझे भी अपनी माटी का कर्ज़ चुकाना है।
मुझे मां-बाप को वृद्धाश्रम नहीं पहुंचाना है।
मैं नाप लूंगा सौ योजन पांव के छालों पर।
मैं चल लूंगा मुन्ना को रखकर कांधों पर।
पर अब मैं नहीं रुकूँगा जेठ के तपते सूरज में।
मैं चल पड़ा हूँ अपनी मंज़िल की ओर।
गर मिट गया अपने गाँव की मिट्टी में तो खुशनसीब समझूंगा।
औऱ गर लौट सका तो जरूर लौटूंगा, तेरा शहर बसाने को।
पर आज मत रोको मुझको, बस मुझे अब जाने दो।।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,510 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress