भारत के नये पर्व 

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मेरे घर के पड़ोस में कक्षा नौ का एक छात्र चिंटू रहता है। वह शरारती तो है ही; पर हिन्दी माध्यम के स्कूल के पढ़ने के कारण बुद्धिमान भी है। कल उसके अध्यापक ने पूरी कक्षा को ‘भारत के पर्व’ विषय पर निबंध लिखने को दिया। चिंटू के पिताजी को अपनी नौकरी से फुर्सत नहीं मिलती और मां को घरेलू कामों से। जब चिंटू ने अपनी मां से निबंध लिखवाने को कहा, तो उन्होंने उसे मेरे पास भेज दिया।

सबसे पहले तो मैंने उससे ही पूछा कि वह इस विषय में क्या जानता है ? उसने वही रटी-रटायी बातें बता दीं, जो पुस्तकों में लिखी हैं। यानि भारत पर्वों का देश है। हिन्दू लोग होली, दीवाली, रक्षाबंधन, मकर संक्रांति, भैया दूज जैसे त्योहार मनाते हैं, तो मुसलमान साल में दो बार ईद मनाकर खुश हो जाते हैं। ईसाइयों के लिए गुड फ्राई डे तथा क्रिसमस है, तो कुछ लोग बैसाखी, बुद्ध पूर्णिमा और महावीर जयंती मनाते हैं। हर धर्म की तरह अलग-अलग जाति, बिरादरी और प्रांत वालों के भी अपने पर्व हैं।

मैंने बात को नया मोड़ देते हुए कहा कि जो पर्व तुम्हारी किताब में लिखे हैं, वे तो सदियों से मनाये जा रहे हैं और आगे भी मनाये जाते रहेंगे; लेकिन कुछ पर्व और भी हैं, जो हर पांच साल बाद आते हैं। इनकी विशेषता यह है कि ये दो-चार महीने के शोर के बाद फिर बस्ते में बंद हो जाते हैं।

– क्या ऐसे पर्व भी होते हैं चाचा जी ?

– हां, बिल्कुल होते हैं। इनमें सबसे बड़ा है चुनाव पर्व।

– चुनाव पर्व.. ? मेरी किताब में तो इसका वर्णन नहीं है ?

– तुम अभी छोटे हो। जब 18 साल के हो जाओगे, तो कुछ लोग खुद आकर तुम्हें इस पर्व के बारे में बताएंगे।

– अरे वाह। ये तो बहुत अच्छी बात है।

– हां, फिर इस बड़े पर्व के साथ कुछ छोटे पर्व और भी जुड़े हैं। चुनाव की आहट आते ही ये भी शुरू हो जाते हैं। राजनीतिक दल और उनके नेता घोषणाएं करने लगते हैं कि सत्ता में आकर हम ये करेंगे और वो करेंगे। कुछ लोग तो आकाश से तारे तोड़ लाने की बात करने लगते हैं, भले ही उनकी झोली में घर के वोट भी न हों। इसे ‘घोषणा पर्व’ कहते हैं। इससे मिलता हुआ ‘उद्घाटन पर्व’ है। सत्ताधारी नेता आधी हो या अधूरी, पर हर सप्ताह किसी न किसी योजना का उद्घाटन कर देते हैं। जैसे उ.प्र. के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनके पिताश्री ने अधूरे आगरा-लखनऊ महामार्ग और लखनऊ में मैट्रो के परीक्षण का ही उद्घाटन कर दिया। रेलमंत्री जी ने ऋषिकेश से कर्णप्रयाग रेल लाइन के सर्वेक्षण का उद्घाटन किया। यद्यपि ऐसे सर्वेक्षण का उद्घाटन दस साल पहले देहरादून में भी हुआ था।

– चाचा जी, ये तो बड़ी मजेदार बात है ?

– और क्या ? फिर व्यापारी हों या कर्मचारी, किसान हों या मजदूर, सब जानते हैं कि इसी समय नेता जी का टेंटुआ दबाकर कुछ माल निकाला जा सकता है। इसलिए ये लोग भी ‘धरना और प्रदर्शन पर्व’ में जुट जाते हैं। कभी सड़क रोकते हैं, तो कभी नेता जी का काफिला। कहीं भूख हड़ताल है, तो कहीं रैली।

चिंटू बड़े गौर से यह सब सुन रहा था। मुझे लगा कि अभी तो उसे भारतीय प्रजातंत्र का हिस्सा बनने में कई साल हैं। फिलहाल उसे इतना जानना ही काफी है। इसलिए मैंने उसे टमाटर सूप पिलाकर विदा कर दिया।

उसके जाने के बाद मुझे अपने गांव का एक किस्सा याद आया। दो साल पहले वहां विधायक निधि से एक सार्वजनिक मूत्रालय बना था। प्रधान जी उसका उद्घाटन विधायक जी से ही कराना चाहते थे। इस चक्कर में दो महीने बीत गये। आखिर विधायक जी को समय मिला और उद्घाटन की तारीख तय हो गयी; लेकिन उनके आने से कुछ देर पहले एक कुत्ता फीते के नीचे से अंदर घुस गया और अपनी टांग उठा दी। कुछ लोगों ने उसकी फोटो भी खींच ली। अब आप समझ सकते हैं कि प्रधान जी पर कैसी बीती होगी ? सारा मजा किरकिरा हो गया। उन्होंने इसे अपने विरोधियों का षड्यंत्र बता दिया। अखबारों ने भी यह खबर खूब चटखारे लेकर छापी।

चुनाव और उसके साथ चलने वाले इन अस्थायी पर्वों की महिमा निराली है। आजकल कई राज्यों में इनका जोर है। इनमें सुहाने वादे और झूठे आश्वासनों के साथ कभी-कभी कुछ ठोस माल भी हाथ लग जाता है। यदि आपके आसपास कहीं ऐसे पर्व का आयोजन हो रहा हो, तो जो भी मिले, समेट लें। क्योंकि फिर तो ये नेता पांच साल बाद ही मुंह दिखाएंगे।

– विजय कुमार

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