मन की गांठ

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friendsपिछले दिनों मैं रेलगाड़ी से हरिद्वार से दिल्ली आ रहा था। सर्दी के दिन थे। मेरे साथ बैठे यात्री के मफलर पर ‘नवभारत उद्योग, हरिद्वार’ का लेबल लगा था, जबकि मेरे मफलर पर ‘भारत उद्योग, हरिद्वार’ का। इस सुखद संयोग पर बात छिड़ी, तो उन्होंने ‘भारत’ और ‘नवभारत उद्योग’ की कहानी सुनायी। इसके मुख्य पात्र है शशि बाबू, यानि शशिकांत गुप्ता। उनके पिता श्री भारत भूषण जी 1930 में हरिद्वार आये थे। कुछ साल उन्होंने चाय-पकौड़ी बेची। फिर कुछ पैसे हो गये, तो बाजार में एक दुकान किराये पर लेकर वहां गरम कपड़े बेचने लगे। धीरे-धीरे यह काम जम गया।
हरिद्वार एक धर्मनगरी है। पूरे साल तीर्थयात्री यहां आते रहते हैं। चाय वाला हो या रिक्शाचालक, कपड़े बेचने वाला हो या पूजा सामग्री बेचने वाला, पंडित और साधु हो या भिखारी, सबकी रोटी-रोजी यात्रियों पर ही निर्भर है। हरिद्वार के दुकानदार भी बहुत समझदार हैं। जिस समय जहां के यात्री अधिक आते हैं, वे उसी भाषा के बैनर लगा लेते हैं। उधर की भाषा बोलने वाले एक-दो कर्मचारी भी रख लेते हैं। भारत बाबू भी शीघ्र ही ये सब तौर-तरीके सीख गये। धीरे-धीरे उनका कारोबार और परिवार बढ़ता गया। उनके दो बेटे थे। रविकांत और शशिकांत। रवि शुरू से ही पिताजी के साथ दुकान पर बैठ गया; पर शशिकांत ने बी.ए. तक पढ़ाई की। वह चाहता था कि या तो कोई सरकारी नौकरी मिल जाए, या फिर वह कोई और कारोबार करे।
आजादी के बाद नेहरू जी देश के प्रधानमंत्री बने। वे कई बातों में रूस से बहुत प्रभावित थे। वहां की ही तरह उन्होंने भारत में भी कई बड़े सरकारी उद्योगों की स्थापना की। उनमें से एक था ‘भारत हैवी इलैक्ट्रिकल्स लिमिटेड’ यानि ‘भेल’। हरिद्वार के पास मीलों लम्बी-चौड़ी भूमि अधिग्रहित कर इसे बनाया गया। आज भी यह सरकार के ‘नवरत्न’ उद्योगों में से एक है।
इससे प्रोत्साहित होकर उत्तर प्रदेश सरकार ने भी ‘भेल’ से लगी हुई हजारों एकड़ भूमि को ‘औद्योगिक क्षेत्र’ घोषित कर दिया। वहां उद्योग लगाने वालों को अनेक छूट दी गयीं। अतः शीघ्र ही वहां उद्योगों का जाल बिछ गया। जमीनें सस्ती मिलती देख भारत बाबू ने भी वहां जगह ले ली। वहां वे शशिकांत के लिए गरम कपड़े बनाने की फैक्ट्री लगाना चाहते थे। लुधियाना में यह काम काफी होता था। शशि की भी इसमें रुचि थी। अतः उन्होंने काम सीखने के लिए शशि को वहां भेज दिया। दो साल बाद लुधियाना से ही कुछ पुरानी मशीनें लेकर शशि बाबू ने ‘भारत वस्त्र उद्योग’ के नाम से अपनी फैक्ट्री लगा ली। शीघ्र ही ‘भारत वस्त्र उद्योग’ ने गरम कपड़ों के बाजार में अपनी जगह बना ली।
शशि बाबू ने कुछ सिद्धान्तों का सदा पालन किया। वे कर्मचारियों को परिवार का सदस्य मानकर उनके सुख-दुख का सदा ध्यान रखते थे। अतः कर्मचारी भी उन्हें अपने बड़े भाई जैसा सम्मान देते थे। शशि बाबू की कोशिश रहती थी कि वे कभी उधार न लें; फिर भी कभी-कभी जरूरत पड़ ही जाती थी; लेकिन हर हाल में उसे वे समय से चुका देते थे। ग्राहक को जो माल, जिस समय देने का वादा किया होता था, वह उसे हर हाल में भेज देते थे। एक बार मजदूरों की हड़ताल के कारण पैकिंग नहीं हो सकी। ऐसे में शशि बाबू पत्नी और बच्चों के साथ खुद पैकिंग में जुट गये। यह देखकर मजदूर भी काम पर लौट आये। एक बार लुधियाना से गरम कपड़े लेकर आ रही रेलगाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गयी। माल के अभाव में गरम कपड़ों के दाम बढ़ गये; पर शशि बाबू ने पूर्व निर्धारित मूल्य पर ही अपना सामान दकानदारों को दिया। इस प्रतिष्ठा के कारण वे कई बार ‘हरिद्वार उद्योग व्यापार मंडल’ के अध्यक्ष भी चुने गये।
कारोबारी सक्रियता के 20-30 साल में शशि बाबू ने अपनी तीनों बेटियों और एकमात्र बेटे पवन का विवाह कर दिया। धीरे-धीरे पवन ने फैक्ट्री संभाल ली। एकमात्र पुत्र होने के कारण वह कुछ अक्खड़ स्वभाव का था। शशि बाबू ने एक-दो बार उसे टोका भी, पर उसका स्वभाव नहीं बदला। अतः वे सामाजिक-धार्मिक कामों में अधिक रुचि लेने लगे। फिर भी वे दो घंटे फैक्ट्री में बैठते जरूर थे; लेकिन जीवन के संध्याकाल में उन्हें एक ऐसा झटका लगा, जिसके बारे में उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था।
हरिद्वार की ‘मां गंगा सेवा समिति’ हर साल 15-20 गरीब लड़कियों का विवाह कराती थी। लोग खुले दिल से इसमें सहयोग करते थे। हर बार कोई एक व्यक्ति ‘मुख्य संरक्षक’ बनकर सबके भोजन का खर्च उठाता था। इस बार समिति ने शशि बाबू से इसका आग्रह किया। लगभग एक लाख रु. का खर्च था। शशि बाबू ने इतना मोटा चंदा कभी नहीं दिया था; पर जब समाज के बड़े लोग आकर बैठ गये, तो उन्हें झुकना ही पड़ा।
इस बात से पवन भड़क गया और उसकी पिताजी से गरमा-गरमी हो गयी। शशि बाबू ने उसे शांत करने का बहुत प्रयास किया; पर उसका गुस्सा बढ़ता ही गया। उसने साफ कह दिया कि भविष्य में बिना उससे पूछे वे कोई चंदा नहीं देंगे। शशि बाबू हक्के-बक्के रह गये। उन्हें लगा कि अभी तो मकान और फैक्ट्री उनके ही नाम है। फिर भी पवन का दिमाग इतना गरम है, तो जब वे थक जाएंगे, तब क्या होगा ?
अगले कुछ दिन शशि बाबू बहुत शांत रहे। इस फैक्ट्री के साथ ही उनका एक प्लॉट और था। दस साल पहले इसे यह सोचकर उन्होंने लिया था कि भविष्य में कभी फैक्ट्री का विस्तार हुआ, तो यह जगह काम आएगी। शशि बाबू ने यहां एक नयी फैक्ट्री बनाने का काम शुरू कर दिया। ‘भारत वस्त्र उद्योग’ की जमीन उनके नाम थी; पर उसे उन्होंने नहीं छेड़ा। फैक्ट्री के बैंक खातों में भी उनका नाम था। वहां इतना धन छोड़कर, कि जिससे काम न रुके, बाकी धन उन्होंने निकाल लिया। बाजार में उनकी भारी प्रतिष्ठा थी। अतः उन्हें मनचाहा उधार मिल गया। कुछ ही दिन में नयी मशीनें और कच्चा माल भी आ गया। इस प्रकार साल भर के अंदर-अंदर ‘नवभारत वस्त्र उद्योग’ के नाम से फैक्ट्री चालू हो गयी। पुरानी फैक्ट्री को उन्होंने पूरी तरह पवन को ही सौंप दिया।
पवन खुद को बहुत तीसमारखां समझता था; पर साल भर में ही उसे जमीनी सच समझ में आ गया। शशि बाबू की अनुपस्थिति से फैक्ट्री का अनुशासन बिगड़ गया। अतः दुकानदारों तक माल देरी से पहुंचने लगा। कई पुराने कर्मचारियों ने उससे नाराज होकर फैक्ट्री छोड़ दी। पवन ने नये कर्मचारी भर्ती किये; पर उन्हें काम सीखने में काफी दिन लग गये। जल्दीबाजी के चक्कर में माल की गुणवत्ता घटने लगी। दूसरी ओर ‘नवभारत उद्योग’ तेजी से बढ़ रहा था। दुकानदार ‘भारत उद्योग’ की बजाय ‘नवभारत उद्योग’ से माल मंगाने लगे। शशि बाबू ने अपने भतीजे कमल को भी साथ लगा लिया। इसका परिणाम ये हुआ कि दो साल में ही ‘भारत उद्योग’ घाटे में आ गया।
शशि बाबू का मकान काफी बड़ा था। बैठक कक्ष, रसोई तथा सबके आवास नीचे ही थे। प्रथम तल पर भी दो कमरे थे। उसके साथ एक छोटी रसोई भी थी। अलग काम के बावजूद वे सब एक साथ ही रहते थे। शशि बाबू और पवन में तो बोलचाल बंद थी; पर उसकी पत्नी और बच्चे घर में घुलमिल कर रहते थे। विवाद के बावजूद पवन की पत्नी ने सास-ससुर की सेवा में कोई कमी नहीं आने दी। एक दिन घर में पवन किसी बात पर अपने पिताजी से उलझ़ रहा था। इस पर उसकी मां ने भी उसे डांट दिया। बस फिर क्या था। पवन गुस्से में आकर नीचे की बजाय ऊपर ही रहने लगा। यहां तक कि उसने रसोई भी अलग कर ली।
कारोबार का अलगाव घर में पहुंचता देख शशि बाबू ने अपने घनिष्ठ मित्र और ‘हरिद्वार उद्योग व्यापार संघ’ के अध्यक्ष आहूजा जी से मिलकर एक योजना बनायी। आहूजा जी से उनके घरेलू सम्बन्ध थे। पवन भी उन्हें चाचा जी कहता था। एक दिन जब पवन किसी काम से उनके पास गया, तो इस बारे में बात छिड़ गयी।
– सुना है बेटा, आजकल तुम्हारा काम ढीला चल रहा है ?
– हां चाचा जी। जब पेड़ लगाने वाला ही जड़ काटने लगे, तो फिर पेड़ कैसे बचेगा ?
– मैं समझा नहीं बेटा ?
– चाचा जी, आपको तो सब मालूम ही है। पिताजी ने नयी फैक्ट्री लगा ली है, और अब वे मेरी फैक्ट्री बंद कराने के चक्कर में हैं।
– लेकिन कोई पिता अपने बेटे की फैक्ट्री बंद क्यों कराएगा ?
– ये तो आप उनसे ही पूछिए चाचा जी ?
– उनसे तो पूछ ही लेंगे, पर तुम भी तो बताओ क्या बात है ?
– एक बार किसी बात पर हमारी आपस में गरमा-गरमी हो गयी। इससे नाराज होकर उन्होंने दूसरी फैक्ट्री लगा ली।
– तो क्या वे तुम्हारी फैक्ट्री से मशीनें उठाकर ले गये ?
– जी नहीं।
– क्या उन्होंने तुम्हारे कर्मचारियों को तोड़ा है ?
– नहीं तो।
– क्या उन्होंने फैक्ट्री के खाते से सारा पैसा निकाल लिया है ?
– नहीं, ऐसा भी कुछ नहीं है।
– फिर तुम कैसे कह सकते हो कि वे तुम्हारा काम बंद कराना चाहते हैं ?
– लेकिन जब से उनकी फैक्ट्री लगी है, ‘भारत उद्योग’ लगातार पीछे जा रहा है।
– तो इसके लिए तुम अपने गिरेबान में झांको। या तो तुम्हारी मेहनत कम है या तुम्हारे माल और व्यवहार में कोई कमी है।
– मैं तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहा हूं, फिर भी..।
– तो घबराओ नहीं। कारोबार में उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं; पर तुम पिताजी से कुछ गरमा-गरमी की बात कह रहे थे। वह बात क्या थी ?
– चाचा जी, आपने सुना होगा कि पिताजी ने तीन साल पहले ‘मां गंगा सेवा समिति’ को एक लाख चंदा दिया था।
– हां, शशि बाबू ने यह बहुत अच्छा काम किया था।
– पर इस समय फैक्ट्री में मेहनत तो मैं कर रहा हूं। इसलिए वहां के पैसे पर पहला हक मेरा है; लेकिन पिताजी ने बिना मुझसे पूछे चंदा दे दिया। बस, इसी बात पर बहस हो गयी।
– पवन बेटे, तुम्हारा काम क्यों घट रहा है, ये मैं समझ गया। इस बरबादी का कारण तुम खुद ही हो। तुम्हारे सिर पर अहंकार का भूत सवार है। तुम खुद को अपने बाप से भी बड़ा समझने लगे हो। व्यापार सिर्फ मेहनत से नहीं, बुजुर्गों के आशीर्वाद और उनकी बनायी साख से भी चलता है।
– लेकिन ‘भारत उद्योग’ की तो बाजार में बड़ी साख है ?
– साख है नहीं, थी..। और वो शशि बाबू के कारण थी। इसीलिए वह उनके साथ चली भी गयी। यदि साख ‘भारत उद्योग’ की थी, तो अब उसे क्या हुआ ? यदि फैक्ट्री तुम्हारे परिश्रम से चल रही है, तो तुम तो अब भी वहीं हो। फिर.. ?
– जी…।
– ये बात ठीक है कि बच्चे जब बड़े हो जाएं, तो हर महत्वपूर्ण विषय पर उनसे बात होनी चाहिए। मुझे भी लगता है कि शशि बाबू को एक लाख चंदा देने से पहले तुम्हें विश्वास में लेना चाहिए था; पर जिस बाजार और समाज में हम बैठे हैं, कई बार न चाहते हुए भी वहां के बड़े लोगों की बात माननी पड़ती है। ‘मां गंगा सेवा समिति’ के बारे में तुम्हें भी पता होगा कि वह कितना अच्छा काम कर रही है ? जरा सोचो, गरीबी के कारण जिन घरों में 30-35 साल की लड़कियां कुंवारी बैठी हैं, उनके मां-बाप को नींद कैसे आती होगी ? जब पड़ोस में कोई शादी होती है, तो उन लड़कियों के दिल पर क्या बीतती होगी ? यदि कोई ऐसा शुभ काम करता है, तो उन लड़कियों और उनके माता-पिता के दिल से निकले आशीर्वाद की कीमत लाखों रु. से बढ़कर होती है। और तुम कहते हो कि पिताजी तुमसे पूछ कर चंदा दें। बच्चों को अपने मां-बाप से पूछना चाहिए या मां-बाप अपने बच्चों से पूछेंगे ? शर्म आनी चाहिए तुम्हें अपनी इस सोच पर। यही तुम्हारी बरबादी का कारण है।
– जी मुझसे भूल हो गयी; पर मुझे अब क्या करना चाहिए ?
– तुमसे भूल नहीं, भारी गलती हुई है। भूल अनजाने में होती है और उसे सुधारा जा सकता है; पर गलती जानबूझ कर की जाती है। इसे समझे बिना तुम गलती पर गलती किये जा रहे हो।
– गलती पर गलती.. ?
– और क्या; मैंने सुना है कि तुमने रसोई भी अलग कर ली है।
– जी, की तो है।
– फिर.. ? तुमने बाप से झगड़कर अपना आज बिगाड़ा है; लेकिन मां से लड़कर अपना कल भी खराब कर लिया। तुम क्या समझते हो कि तुम्हारे बच्चों की आंखें बंद हैं ? कल जब कारोबार उनके हाथ में आएगा, तब यदि तुम्हारे साथ उनका ऐसा ही व्यवहार हो, तब क्या होगा; ये सोच कर देखो। बच्चों से उनके दादी-दादा का प्यार छीनना बहुत बड़ा पाप है। सजा भुगत कर आदमी अपराध से तो मुक्त हो सकता है; पर पाप-पुण्य का खाता तो अगले जन्म तक जाता है। इससे कैसे बचोगे ?
पवन सिर झुका कर चुप बैठा रहा। आहूजा जी समझ गये कि चोट सही जगह पर लगी है। कुछ देर बाद पवन बोला – पर चाचा जी, मुझे अब क्या करना चाहिए। मैं हर तरह से अपनी गलती मानने को तैयार हूं।
– पहले तुम दो-चार दिन ठंडे मन से सोच लो। फिर यदि मेरी सहयोग की जरूरत हो, तो बताना।
– मैंने सोच लिया है। अब आप ही कोई रास्ता निकालिये।
– तो शशि बाबू को बताओ कि कल रात का खाना मैं उनके साथ खाऊंगा।
– जी बिल्कुल।
गांठ तो पवन के मन में ही थी। वह खुली, तो बात सुलझती चली गयी। आहूजा जी की उपस्थिति में पवन ने पिताजी और मां से पैर छूकर माफी मांगी। शशि बाबू ने उसे गले लगा लिया।
अगले दिन से शशि बाबू दोनों जगह बैठने लगे। ‘नवभारत उद्योग’ उन्होंने अपने भतीजे कमल को ही सौंप दिया। इस घटना के बाद पवन ने अपना व्यवहार सुधार लिया। अतः भारत उद्योग भी पटरी पर आ गया। धीरे-धीरे दोनों फैक्ट्रियों ने खूब उन्नति की। अब तो पवन और कमल के बच्चे काम संभाल रहे हैं।
अपने सहयात्री से बात करते कब दिल्ली आ गया, पता ही नहीं लगा। मैंने अपना परिचय पत्र उन्हें देते हुए कहा, ‘‘आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई। कभी मेरे घर आने का कष्ट करें।’’ उन्होंने भी जेब से अपना परिचय पत्र निकालकर मुझे दिया और नीचे उतर गये। उस बहुरंगी परिचय पत्र पर लिखा था – कमलकांत गुप्ता, प्रबंध निदेशक, नवभारत वस्त्र उद्योग, हरिद्वार।
– विजय कुमार

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  1. कोई माने तो प्रायः सामाजिक परिस्थितियों में “शशि बाबू” स्वयं अपना मानसिक संतुलन खोये हुए होते हैं तो बिन बुलाए “आहूजा जी” भी कहाँ ऐसे झमेले में पड़ेंगे? मन की गाँठ सचमुच मन की गाँठ खोलते अपने में ही शशि बाबू और आहूजा जी बन पाठक को जीवन में आदर्श सिखलाती है| कार्यकाल में पढने का समय नहीं था लेकिन संयुक्त राष्ट्र अमरीका में मनोरंजन के रूप में यहाँ विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में दर्शकों के व्यवहार को प्रभावित करते सैकड़ों दूरदर्शन प्रदर्शन देखे हैं| न्यू यार्क में स्थानीय श्री महा वल्लभ गणपति देवस्थानम में १९८० के दशक में हिन्दू विश्वविद्यालय के कर्मचारियों और स्वयं चिकित्सा विभाग के संकायाध्यक्ष ने “बूढ़ी काकी” नाटक प्रस्तुत कर दर्शकों में बड़े-बूढ़ों के लिए सम्मान व उनके देख-भाल का उत्तरदायित्व समझाया था| पारिवारिक जीवन में सद्व्यवहार जगाती सुंदर कहानी के लिए विजय कुमार जी को मेरा साधुवाद|

  2. विजय कुमार जी बधाई के पात्र हैं ……क्षमा करें – लिखने में कठिनाई होने लगी है

  3. विजय कुमार जी की कहानियां वास्तव में ज़मीन से लगी कहानियां होती है – छोटे सेबड़ों कथानक से सीधे सादे शब्दों में बहुत ba

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