डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश‘
जब-जब भी देश में बम विस्फोट होते हैं या फिदायीन हमले होते हैं तो सभी वर्गों द्वारा आतंकवाद की बढचढकर आलोचना की जाती है। कठोर से कठोर कानून बनाकर आतंकवाद से निजात दिलाने के लिये सरकार से मांग की जाती हैं। सरकार की ओर से भी हर-सम्भव कार्यवाही का पूर्ण आश्वासन भी दिया जाता है, लेकिन जैसे ही मरने वालों की आग ठण्डी होती है, आतंकवाद के खिलाफ लोगों का गुस्सा भी ठण्डा होने लगता है। यदि आतंवादी लगातार घटनाओं को जन्म नहीं दें तो आम व्यक्ति आतंकवाद के खिलाफ बोलने या आतंकवाद का विरोध करने के बारे में उसी प्रकार से चुप्पी साध ले, जिस प्रकार से भ्रष्टाचार के मामले में साथ रखी है।
इससे यह प्रमाणित होता है कि अपराधियों, राजनेताओं और उच्च पदों पर आसीन लोक सेवकों के साथ-साथ आम व्यक्ति भी संवेदना-शून्य होता जा रहा है। जिसके चलते अपने सामने घटित क्रूर घटनाओं पर भी आम व्यक्ति चुप्पी साध लेता है और आशा करने लगता है कि सरकार एवं प्रशासन उसके लिये हमेशा उपलब्ध रहें! यह कैसे सम्भव है कि यदि हम अपने पडौसी के सुख-दु:ख में भागीदार नहीं हो सकते तो वेतन लेकर सेवा करने वाले लोक सेवक, जिनका हमसे किसी भी प्रकार का आत्मीय या सामाजिक सम्बन्ध नहीं है, हमारे प्रति संवेदनशील रहेंगे।
दिनप्रतिदिन घटती इस संवेदनहीनता का खामियाजा हमें हर दिन किसी न किसी किसी क्षेत्र में, किसी न किसी जगह पर भुगतना पड रहा है। आज जितने भी अपराध और दुराचार हो रहे हैं, उसके लिये हमारी यही असंवेदनशील सोच भी जिम्मेदार है। जिसके चलते भ्रष्ट लोक सेवकों, अपराधियों और गुण्डा तत्वों के होंसले लगातार बढते जा रहे हैं और पुलिस, सामान्य प्रशासन एवं सरकार हमारी परवाह नहीं पालते हैं।
इसलिये यदि हमें अपने आपको तथा आनेवाली पीढियों को बचाना है तो अपने-आपके साथ-साथ, अपने आसपडौस के लोगों के प्रति भी संवेदनशील होना सीखना होगा। अन्यथा दूसरों से संवेदनशील रहने की और मानव अधिकारों की रक्षा की उम्मीद करना छोडना होगा।
बहुत उचित बिंदू उजागर किया मीणा जी ने। वास्तव में मानव का “पहचान(परिचय) लक्षण” संवेदन ही है।मानव की संस्कृत व्याख्या है “मनः अस्ति स मानव:” अर्थ: जिसे मन है, वही मानव है। यह मन जो प्रकृति ने हमें दिया है।उसी को भोथा (Blunt ) बनाकर मनुष्य, करुणा को त्यागता है,कुछ भौतिक लाभ के लिए।पर,विकसित, उत्क्रांत मन ही, उसे सभी जीवों के साथ, संवेदना जगाकर-सृष्टिसे ओत प्रोत होने की क्षमता प्रदान करता है। सच्चे संत की दया का मूल स्रोत यही विकसित मन है। इसे भोथा ना बनाएं। जब किसी अन्य जीव की अनुभूति कुछ मात्रा में आपकी भी अनुभूति बन जाती है, तो फिर उसे(सह+अनुभूति) सहानुभूति कहा जाता है।चेतस की सितारी बजने लगती है। विषय उठाने के लिए धन्यवाद।
बिलकुल सही कह रहे है आदरणीय डॉ. मीना जी. आज हमारे देश में स्कूल में विषेय बहुत ज्यादा बढ़ गये है किन्तु कुछ मूल भाव शिक्षा से गुल हो गए है. १. संवेदना, २. धेर्य, ३. आत्याचार का प्रतिकार.
१. संवेदना के बारे में तो श्रीमान डॉ. साहब ने बहुत अछे से कह दिया है.
२. धेर्य – आज कल सभी में धीरज की कमी हो गई है, बात बात पर गुस्सा, कोई सुनने को तैयार नहीं है, हर कोई अपना ही कहना चाहता है.
३. आत्याचार का प्रतिकार – सेकड़ो सालो की गुलामी और आजादी के बाद के गलत इतिहास ने हमारे अन्दर के खून के उबाल को ख़त्म कर दिया है.
ham लोग bahut hi सुविधा जीवी हो गए है साहब ,हर galati ko दूसरो par मड kar chain से सोने के अदि हो गए है ,बार बार के हमलो बार बार से hone vali hatyao ने hamare मानवीय gun ko bhula कर ek naya v विकृत मानवीय गुण को janm दिया है जिसे ham हमारी “सहिसुनता” या “असवेदंशिलाता” या कायरता kah सकते है शायद ab हम क्रिकेट के मैच ki tarah marane वाले logo के नम्बर me jyada इंटरेस्ट लेते है ise manav ka patan hi kaha ja sakata है की hame hamare padosi के dukh की paravah nahi है ……………..