भयभीत कांग्रेस और लोकपाल

 सुरेन्द्र चतुर्वेदी

बाबा रामदेव के हरिद्वार लौट जाने और अन्ना हजारे के दिल्ली आ जाने के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के संघर्ष को एक नया सेनापति मिल गया है। इस बार केन्द्र सरकार के सामने दुनियादारी से दूर रहने वाला बाबा रामदेव नहीं है। अबकी बार उसका मुकाबला अपने आप को दांव पर लगाने वाले अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल, श्रीमती किरण बेदी जैसे हजारों लोगो से है, जो ना केवल राजनेताओं के असली चरित्र से परिचित हैं, अपितु यह भी जानते हैं कि सरकार मीडिया और सत्ता का उपयोग कर किस तरह से समर्थकों और भारत की आम जनता को भ्रमित करने में कुशल हैं। इससे यह भी साबित होता है कि सरकार कितना भी दमन कर ले] एक के बाद एक लोग आंदोलन का नेतृत्व करने के लिये सामने आते रहेंगें।

 

यह भी आश्चर्यजनक है कि केन्द्र सरकार इस बात के लिये तो राजी है कि ग्रामसेवक से लेकर संयुक्त सचिव तक के कर्मचारी और अधिकारी लोकपाल के दायरे में आयें, लेकिन वह उन लोगों को लोकपाल से दूर रखना चाहती है, जो नीति निर्माण के लिए उत्तरदायी हैं और वे ही भ्रष्टाचार के पोषक होने के लिए भी जिम्मेदार हैं। सरकार का यह रूख भारत के आम आदमी को ना केवल भ्रष्ट साबित कर रहा है, अपितु यह भी कह रहा है कि भारत का आम आदमी भ्रष्ट है। भारत के नागरिकों को इससे बड़ा अपमान किसी सरकार ने नहीं किया होगा।

 

इसी क्रम में आजकल सरकारी पक्ष एक नई कहानी को हवा दे रहा है, कहा जा रहा है कि भारत में भ्रष्टाचार मुद्दा ही नहीं है, और भारत का समाज तो भ्रष्टाचार को हमेशा से ही स्वीकार करता रहा है और भारत में निवास करने वाले संत महात्माओं के मठ और पीठ अवैध कमाई को संरक्षित करने का ठिकाना बन गये हैं। इसलिये केन्द्र सरकार का यह प्राथमिक कर्तव्य है कि वह भ्रष्टाचार का ठिकाना बने इन केन्द्रों को ढ़ूंढ़ ढ़ूंढ़ कर नष्ट कर दे। ये सब बातें देश के सत्ताधारी राजनेताओं की तरफ से तब से कही जाने लगी है, जब से बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार को घेरा और विगत ४-५ जून की रात्रि को केन्द्र सरकार ने बाबा रामदेव और उनके समर्थकों को मार मार कर नई दिल्ली के रामलीला मैदान से भगा दिया और उस पर यह भी कि प्रधानमंत्री कहते हैं कि इसके अलावा और कोई चारा ही नहीं बचा था।

 

ध्यान देने लायक बात है कि ये बातें आम जनता की नहीं हैं, ये बातें उन लोगों की तरफ से आईं हैं, जिनसे देश की जनता ने उनकी अकूत कमाई का राज पूछा है और इतना कुछ सहने के बाद भी देश की जनता यह जानना चाहती है कि गोरे अंग्रेजों से सत्ता प्राप्त कर लेने के बाद जिन भी नेताओं ने सत्ता का उपभोग किया है, वो भारत के नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं दिला पाने में क्यों विफल रहे ? कैसे भारत का सर्वांगीण विकास कुछ मुट्ठी भर लोगों के विकास में कैद हो गया ? कैसे कुछ भ्रष्ट लोगों ने सत्ता प्रतिष्ठान पर कब्जा करके अपनी तिजोरियों का ना केवल भर लिया अपितु उसे विदेशी बैंकों में भी जमा करा दिया। तो फिर यह क्यों नहीं यह माना जाय कि देश आज भी आजादी को तरस रहा है, और अबकि बार संग्राम गोरों से नहीं सत्ता को धंधा बना चुके लालची राजनेताओं से है।

 

आज जब भारत का प्रत्येक राजनीतिक दल सत्ता का उपभोग कर चुका है, भारत की आम जनता इस मुद्दे पर राजनितिक समर्थन को लेकर असमंजस में है, आम जनता का विश्वास भी राजनीतिक दलों से उठ गया है, इसीलिये सामाजिक कार्यकर्त्ता और देश के प्रमुख संत चाहे वो बाबा रामदेव हो या श्री श्री रविशंकर अपने समर्थकों के साथ सड़कों पर भ्रष्टाचार के दानव से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं। परन्तु राजसत्ता, भारत के सामान्य नागरिकों के इस आंदोलन को राजनीतिक बताने का दुस्साहस कर रही है। क्या भ्रष्टाचार कुछ दलों की ही समस्या है ? इसके कारण देश की आंतरिक सुरक्षा खतरे में नहीं पड़ गई है ?

 

इस बात पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि केन्द्र सरकार हर प्रकार से उन सभी लोगों को पथभ्रष्ट साबित करने की हिमाकत कर रही है, जो लोग केन्द्र सरकार से भ्रष्टाचार पर स्पष्ट नीति बनाने की बात कर रहे हैं, और विदेशों में जमा पैसे को वापस लाने की मांग को पूरा करने की जिद पर अड़े हुए हैं। इसी के साथ सत्ता द्वारा उन प्रतीक चिन्हों पर भी लगातार आक्रमण हो रहे हैं, जिनके बारे में सरकार को यह अंदेशा है कि वो जनता के सामने आस्था का केन्द्र हैं। चाहे वह सत्यसाई बाबा के निधन के बाद उनके आश्रम की संपत्ति हो या बाबा रामदेव के ट्रस्ट की संपत्ति का मामला हो या अन्ना हजारे की नैतिकता का प्रश्न ? सरकार का हर कदम रोज़ एक नए संदेह को जन्म दे रहा है। सरकार की मंशा भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के नेताओ को बदनाम करने की है, उसका हर कदम हर बार इस बात को सिद्ध करता है कि सरकार हर उस आदमी की आवाज को दबा देने की मंशा रखती है, जिस आवाज में सरकार से जवाब मांगने की बुलंदी हो।

 

आश्चर्यजनक तो यह है कि केन्द्र सरकार जितनी दृड़ संकल्पित इन आंदोलनों को कुचलने के लिये दिखती है, उसका उतना दृड़ संकल्प भ्रष्टाचार निरोध के उपाय करने में नहीं दिखता। राजनीतिक समीक्षक यह मानने लगे हैं कि सरकार लोकतंत्र को मजबूत करने की बजाय उसका इस्तेमाल रक्षाकवच के रूप में कर रही है। यह याद रखे जाने की जरूरत है कि लोकतंत्र की नींव ही ‘असहमति के आदर व सम्मान’ पर टिकी है और जिस प्रकार से सरकार, सामाजिक कार्यकर्ताओं और संस्थाओं को अपना व्यक्तिगत दुश्मन मानने लगी है, उससे यह प्रमाणित होने लगा है कि सरकार की नीयत में खोट है और अब तो जनता का यह विश्वास और ज्यादा गहरा हो गया है कि सरकार ‘अपने संरक्षणकर्ताओं’ को बचाने के लिए अपनी संवैधानिक ताकत का ठीक उसी प्रकार से दुरूपयोग कर रही है, जैसी कि ब्रिटिश शासन काल में महारानी विक्टोरिया के सैनिक करते थे।

 

यह भी आश्चर्यजनक है कि देश ही नहीं विदेश के सभी प्रबुद्धजन आज भी प्रधानमंत्री को बेईमान नहीं मानते। हां, वे देश के वर्तमान हालातों में प्रधानमंत्री की विवेकहीनता और अनिर्णय की स्थिति से निराश जरूर हैं। तो, ऐसी स्थिति में कांग्रेस को प्रस्तावित लोकपाल बिल से क्या आपत्ति हो सकती है ? दुर्भाग्यजनक स्थिति तो यह है कि कांग्रेस भी मनमोहन सिंह को भारत के प्रधानमंत्री की बजाय एक ऐसे सेवक के रूप में देखती है, जो श्रीमति सोनिया गांधी के प्रति वफादार है। तो हमें यह समझने की जरूरत है कि एक ओर जहाँ देश की आम जनता लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री सहित सर्वोच्च नौकरशाही को लेने के लिए आंदोलनरत है, वहीं कांग्रेसी आज भी श्रीमती सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका को प्रधानमंत्री बनते हुए देखना चाहते हैं । इसीलिये कांग्रेस को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लोकपाल के दायरे में लाने में कोई एतराज नहीं है, दिक्कत तो तब है जब गाँधी परिवार का कोई सदस्य इस देश का प्रधानमंत्री बनेगा. इसके अलावा कांग्रेस को एक भय भी सता रहा है कि प्रधानमंत्री के लोकपाल के दायरे में आ जाने के बाद कांग्रेस के अस्तित्व पर ही संकट आ जायेगा, क्योंकि कांग्रेस में ईमानदारी और ईमानदार नेताओं का संकट है।

2 COMMENTS

  1. मठों और संतों की पीठों को ढून्ढ ढून्ढ कर नष्ट करने का काम भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का भाग नहीं है बल्कि ये सोनिया गाँधी के अलिखित, अघोषित अजेंडे का पार्ट है. वह अजेंडा है हिन्दू धर्म व संस्कृति को ठिकाने लगाना. जो काम अँगरेज़ २०० साल में नहीं कर पाए वो सोनिया केवल एक जनरेशन में करने को आमादा है. क्योंकि सोनिया गाँधी ओपस दाई के साथ जुड़े होने की जानकारी इन्टरनेट पर है जिसका खंडन आज तक नहीं किया गया है. राजीव मल्होत्रा व अर्विदननील्कंदन की सद्य प्रकाशित पुस्तक ” ब्रेकिंग इण्डिया”में पश्चिम के देशों द्वारा भारत को तोड़ने के लिए इस्तेमाल किये जा रहे दलित व द्रविड़ कार्ड का वास्तविक सच विस्तार से सन्दर्भ रिकार्ड का हवाला देकर पूरे विवरण के साथ दिया गया है. सभी विचारशील देशभक्तों को इस पुस्तक को पढना चाहिए. भ्रष्टाचार कांग्रस के लिए कोई मुद्दा नहीं है. और वो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों को अन्यत्र उलझाये रखने की कला में सिद्धहस्त है.देश का बुद्धिजीवी कहा जाने वाला वर्ग अपनी सुविधाओं में डूबा है. अधिकारी वर्ग सत्ताधीश नेताओं के साथ मिलकर देश की आम जनता को लूटने के काम में पूरी निष्ठां से लगे हैं. अन्ना हजारे हों या रामदेव जी इन के साथ लोगों का समर्थन केवल सतही है. सस्टेंड आन्दोलन के लिए जिस प्रकार की संगठनात्मक तेयारी चाहिए उसका नितांत आभाव इन दोनों योद्धाओं के पास है. मिस्र या लेबनान की भांति फेस बुक क्रांति भारत में होने की कोई सम्भावना नहीं दिखाई पड़ती. हकीकत तो ये है की लोगों ने मजबूरी में भ्रष्टाचार के साथ समझौता करके जीना सीख लिया है. मेकाले की शिक्षा ने लोगों के चारित्रिक बल को छीण कर दिया है. वास्तव में देश में जबरदस्त चरित्र का संकट है. वर्षों पहले आर एस एस की शाखा पर एक गीत गया जाता था. ” निर्माणों के पवन युग में हम चरित्र निर्माण न भूलें, स्वार्थ साधना की आंधी में वसुधा का कल्याण न भूलें.” आज इतना माहौल बिगड़ चूका है की इसे सुधरने में काफी लंबा वक्त व शक्ति लगेगी. मै यह तो नहीं कहता कि हमें भी चीन की तरह सांस्कृतिक क्रांति करें(उसमे अनुमानित रूप से तीन करोड़ लोग मारे गए थे). लेकिन किसी भी सर्कार को देश को पुनः पटरी पर लाने के लिए कुछ कड़े काम तो करने ही होंगे. बेहतर होगा कि जो लोग इस व्यवस्था के विकल्प के रूप में सामने आना चाहते हैं वो स्पष्ट रूप से अपनी प्राथमिकतायें लोगों के सामने रखें और एक प्राथमिकता क्रम भी प्रस्तुत करें.तथा उस पर ईमानदारी से अमल भी करें. साथ ही सबसे जरूरी ये है कि मेकाले कि शिक्षा पद्धति का विकल्प तलाशें. केवल शिशु मंदिरों से पूरा माहौल नहीं बदल पा रहा है. जिन राज्यों में राष्ट्रवादी लोगों कि सरकारें हैं उनमे भारतीय शिक्षा कड़ाई से लागू करें.आलोचनाओं व भगवाकरण के आरोपों कि परवाह न करें.
    भ्रष्टाचार निवारण भी चरित्र निर्माण से जुदा है. केंद्र सर्कार कि कोई इच्छा इस वातावरण को बदलने कि नहीं है क्योंकि यह व्यवस्था व लाईसेंस, कोटा, परमिट राज से ही उनका घर भरता है. तथा टैक्स हेवेन देशों के बैंकों कि तिजोरियां भी. जिस काले धन को कमाने में इतने पापड़ बेले हैं भला आसानी से उस धन को कोई क्यों छोड़ना चाहेगा. हाँ जितना वक्त गुजरेगा उतना ही उसे ठिकाने बदलने का मौका मिल जायेगा. यह प्रक्रिया शुरू हो भी चुकी है जैसा कि हाल में ही प्रकाशित एक रिपोर्ट से पता चला है. प्रधान मंत्री कि इमानदारी वास्तव में दिखावा मात्र है. वो रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे हैं जिसे देश कि अर्थव्यवस्था के उतार चढाव के बारे में कारणों सहित पूरी जानकारी होती है. अतः जब हर्षद मेहता शेयर बाज़ार को मेनिपुलेट कर रहा था तो मनमोहन सिंह इसे देश कि अर्थव्यवस्था कि तरक्की का सूचक घोषित कर रहे थे और जब इस घोटाले का बुलबुला फूटा तो जबान पर ताला जड़ गया. अर्थव्यवस्था के जिन सुधारों का श्रेय मनमोहनसिंह को दिया जाता है वो वास्तव में पचास के दशक से ही भारतीय जनसंघ के कार्य क्रम का हिस्सा था. और वो कदम नरसिम्हा राव के निर्देश पर श्री मनमोहन सिंह ने उठाये थे. मिडिया ने सारा श्रेय मनमोहनसिंह को दे दिया.मनमोहनसिंह वास्तव में पश्चिमी देशों कि योजना का एक भाग है. पूरा मीडिया,(कुछ अपवादों को छोड़कर) , इस समय चर्च व इसाई लोबी के नियंत्रण में है. मित्रोखिन अर्काईव में इस सम्बन्ध में भारतीय मीडिया व पत्रकारों के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है उसके बाद भारतीय पत्रकारों से निष्पक्ष भूमिका कि उम्मीद नहीं कि जा सकती. इसलिए मनमोहनसिंह जी तो बेईमानों कि टीम के “इमानदार” सरदार के रूप में मिडिया की सुर्ख़ियों में छाये रहेंगे.

  2. अन्ना और बाबा तो भोले हैं – चोर उच्चक्कों से आशा लगाये बैठे हैं की वे अपने ही गले में फंदा डाल लेंगे . सही देश प्रेमी संतों और समाज सुधारकों को आम जनता को जागरूक करने का अभियान चलाना होगा क्योंकि ५४% जनता भ्रटाचार को बुरा नहीं मानती. जनता के जागरूक होते ही ये भ्रष्ट कुनबा अपने आप मैदान छोड़ जाएगा.

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