चिंतन विविधा

धर्म के नाम पर शोर का ‘अधर्म’ ?

-निर्मल रानी- Islam a religion of peace

बेशक हम एक आज़ाद देश के आज़ाद नागरिक हैं। इस ‘आज़ादी’ के अंतर्गत हमारे संविधान ने हमें जहां तमाम ऐसे मौलिक अधिकार प्रदान किए हैं जिनसे हमें अपनी संपूर्ण स्वतंत्रता का एहसास हो सके, वहीं इसी आज़ादी के नाम पर तमाम बातें ऐसी भी देखी व सुनी जाती हैं जो हमें व हमारे समाज को बहुत अधिक नुकसान व पीड़ा पहुंचाती हैं।

बेशक भारतीय संविधान हमें इस बात की इजाज़त देता है कि हम अपने धार्मिक रीति-रिवाजों एवं क्रियाकलापों को पूरी स्वतंत्रता के साथ अपना सके व मना सके। परंतु इसका अर्थ यह हरगिज़ नहीं कि धर्म के नाम पर किए जाने वाले हमारे किसी क्रियाकलाप या आयोजन से अन्य लोगों को तकलीफ हो, या उन्हें शारीरिक या मानसिक कष्ट का सामना करना पड़े। परंतु हमारे देश में दुर्भाग्यवश धर्म के नाम पर इसी प्रकार की तमाम गतिविधियां आयोजित होती हुई देखी जा सकती हैं। इन्हें देखकर लगता है धर्म शांति का नहीं बल्कि शोर-शराबे और हुल्लड़ का प्रयाय बन गया है।

उदाहरण स्वरूप देश में रहने वाला क्या हिंदू समुदाय, क्या मुस्लिम तो क्या सिख सभी समुदायों के पूजा स्थलों अर्थात् मंदिरों, मस्जिदों व गुरुद्वारों में लाऊडस्पीकरों का प्रयोग तो लगभग एक सामान्य सी बात हो गई है। जहां देखिए मस्जिदों से अज़ान की तेज़ आवाज़ेें लाऊडस्पीकर पर दिन में पांच बार सुनाई देती हैं। मंदिरों में सुबह-सवेरे से शुरु हुआ कीर्तन-भजन का सिलसिला देर रात तक चलता रहता है। इसी प्रकार गुरुद्वारों में भी गुरुबाणी के कीर्तन की आवाज़ें प्रात: 4 बजे से ही सुनाई पडऩे लग जाती हैं। सही मायने में लाऊडस्पीकर अथवा ध्वनि विस्तारक यंत्र का प्रयोग तो आवश्यकता पडऩे पर व्यापारिक अथवा प्रशासनिक दृष्टिकोण से किया जाना किसी हद तक न्यायसंगत मालूम होता है। या फिर कहीं बड़े आयोजनों या रैलियों आदि में या फिर मेले वग़ैरह में सूचना के तत्काल विस्तार के लिए अथवा भीड़ पर नियंत्रण करने हेतु किन्हीं सार्वजनिक स्थलों पर या फिर जनता को अथवा किसी व्यक्ति विशेष को किसी दिशानिर्देश या फिर सूचना अथवा उद्घोष जारी करने हेतु इनके प्रयोग किए जाते हैं। हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, अथवा मेला आयोजन स्थल जैसे स्थानों पर या इन जैसी भारी भीड़भाड़ वाली जगहों पर तो लाऊडस्पीकर के उपयोग को या इसकी ज़रूरत को गलत नहीं ठहराया जा सकता। परंतु नियमित रूप से प्रतिदिन दिन में पांच बार या सारा दिन या सुबह सवेरे 4 बजे उठकर धर्मस्थानों पर तेज़ आवाज़ में लाऊडस्पीकर पर अपनी धर्मकथा, भजन, अज़ान, शब्द आदि सुनाने का आखिर क्या औचित्य है।

धर्म न कोई उद्योग है न कोई ऐसा उत्पाद जिसका विज्ञापन लोगों के कानों तक पहुंचाने के लिए लाऊडस्पीकर का प्रयोग किया जाए। धर्म तो किसी भी व्यक्ति की व्यक्तिगत आस्था का एक ऐसा विषय है जो बिना लाऊडस्पीकर के प्रयोग के भी उन लोगों को धर्म से जोड़े रखता है जो इससे स्वेच्छा से जुड़े रहना चाहते हैं। अर्थात् यदि कोई व्यक्ति निर्धारित समय पर मंदिर-मस्जिद या गुरुद्वारे जाना चाहता है तो उसे न तो कोई रोक सकता है, न ही उसकी इस निजी धार्मिक इच्छा में कोई व्यस्तता बाधा साबित हो सकती है। ठीक इसी प्रकार जो व्यक्ति इन धर्मस्थानों पर जाने से ज़यादा ज़रूरी किसी अन्य कार्य को समझता है उसे धर्मस्थानों से उठने वाली लाऊडस्पीकर की बुलंद आवाज़ें अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकतीं। ऐसे में यह बात समझ के बाहर है कि आखिर इन धर्मस्थानों पर लाऊडस्पीकरों की ज़रूरत क्या है?

जहां तक धर्मस्थानों पर अथवा धर्म के नाम पर होने वाले लाऊडस्पीकर के शोर-शराबे के नुकसान का सवाल है तो निश्चित रूप से इसके तमाम ऐसे नुकसान हैं जो केवल किसी एक व्यक्ति को नहीं बल्कि पूरे देश तक को प्रभावित करते हैं। उदाहरणतय: बीमार व बुज़ुर्ग लोग कहां नहीं होते। इन्हें सुकून, शांति व आराम की सख्त ज़रूरत होती है। तमाम बुज़ुर्गों को तो सारी रात बीमारीवश नींद नहीं आती तथा इनकी आंख ही सुबह सवेरे के वक़्त लगती है। ऐसे में यदि उस बुज़ुर्ग की नींदें किसी धर्मस्थान से उठने वाली अनैच्छिक आवाज़ के फलस्वरूप उड़ जाए तो वह असहाय बुज़ुर्ग अपनी फरियाद लेकर कहां जाए ? क्या एक बुज़ुर्ग बीमार व लाचार व्यक्ति की नीेंदें हराम करना तथा उनके कानों में जबरन अपने धार्मिक उपदेश, प्रवचन, भजन अथवा आज़ान की वाणी ‘ठूंसना’ कोई मानवीय व धार्मिक कार्यकलाप माना जा सकता है? देश में एक दो नहीं सैकड़ों व हजाऱों स्थानों से धर्म के नाम पर होने वाले शोर-शराबे के विरोध में शिकायतें होती देखी जा सकती हैं। परंतु प्रशासन भी ‘धार्मिक मामला’ अथवा धार्मिक स्थलों से जुड़ा विषय होने के कारण न तो इस गंभीर मामले में कभी कोई दख़ल देता नज़र आता है न ही इन पर प्रतिबंध लगाता है।

हमारे देश की बच्चों की भावी पीढ़ी जिसपर हम सब देश का कर्णधार होने या देश का गौरव अथवा भविष्य होने का दम भरते हैं वह भी सीधे तौर पर इस तथाकथित धार्मिक शोर-शराबे से प्रभावित होती नज़र आ रही है। सभी मां बाप अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य को लेकर चिंतित रहते हैं। भीषण मंहगाई के इस दौर में भी माता पिता व अभिभावक अपने बच्चों को अपनी हैसियत के अनुसार शिक्षित कराने की पूरी कोशिश करते हैं। ऐसे में स्कूल व कॉलेज जाने वाले बच्चों को न केवल स्कूल व कॉलेज में बल्कि घर पर भी कभी शिक्षण संस्थान से मिलने वाले ‘होमवर्क’ करने पड़ते हैं तो कभी परीक्षा के दिनों में दिन-रात मेहनत कर अपनी पढ़ाई पूरी करनी होती है। परीक्षा के दिनों में बच्चों की पढ़ाई का तो कोई समय ही निर्धारित नहीं होता। देर रात तक पढऩे से लेकर सुबह-सवेरे उठकर पढऩा इन बच्चों की परीक्षा तैयारी का एक अहम हिस्सा होता है। परंतु अफसोस इस बात का है कि अपनी जि़ंदगी को धर्म के नाम पर निर्धारित अथवा ‘वक्फ’ कर चुके यह तथाकथित धर्माधिकारी अथवा धर्म के ठेकेदार उन बच्चों के भविष्य के बारे में तो ज़रा भी चिंता नहीं करते जिनके कधों पर देश का भविष्य टिका हुआ है। जिन बच्चों को इन तथाकथित धर्म प्रचार को द्वारा निर्धारित सीमाओं से ऊपर उठकर न केवल अपने व अपने परिवार के भविष्य के लिए बल्कि समाज व देश की भलाई के लिए भी कुछ करना होता है।

स्पष्ट है कि भले ही धर्म किसी उत्पाद का नाम न हो, न ही यह कोई बेचने वाली वस्तु हो परंतु इसके बावजूद इन धर्म स्थानों पर $काबिज़ लोग लाऊडस्पीकर से उसी प्रकार शोर-शराबा करते हैं जैसे कि वे अपना कोई उत्पाद बेच रहे हों। वास्तव में सच्चाई भी यही है कि धर्म स्थानों पर बैठे लोगों ने धर्म को भी एक उत्पाद ही बना रखा है। शायद वे यही समझते हैं कि हमारे इस प्रकार के धर्म के नाम पर किए जाने वाला शोर-शराबा सुनकर ही हमारे धर्मावलंबी अमुक धर्म स्थान की ओर आकर्षित होंगे। और ज़ाहिर है कि धर्म के नाम पर आम लोगों का धर्म स्थान की ओर आकर्षण ही उस स्थान पर बैठे धर्माधिकारियों के जीविकोपार्जन का साधन बनेगा। परंतु यह तथाकथित धर्माधिकारी अपने इस अति स्वार्थपूर्ण मकसद के चलते यह भूल जाते हैं कि उनके इस स्वार्थपूर्ण कदम से कितने बच्चों की पढ़ाई खराब हो सकती है और इस पढ़ाई के खराब होने के ही चलते उस बच्चे का भविष्य तक चौपट हो सकता है। और देश के एक भी बच्चे के भविष्य का बिगड़ऩा हमारे देश के भविष्य बिगड़ऩे से कम कर कतई नहीं आंका जा सकता। इसी प्रकार हमारा, हमारे समाज का तथा सभी धर्मों का यह नैतिक, मानवीय व धार्मिक कर्तव्य है कि हम अपने बड़ों, बुज़ुर्गों, बीमारों व असहायों को जिस हद तक हो सके उन्हें चैन व सुकून प्रदान करें। यदि हो सके तो हम उन्हें शांति दें व उनके चैन से आराम करने व सोने में अपना योगदान दें। और यदि हम यह नहीं कर सकते तो कम से कम हमें यह अधिकार तो हरगिज़ नहीं कि हम किसी बीमार व्यक्ति या पढऩे वाले छात्र के सिर पर धर्म के नाम पर किए जाने वाले शोर जैसा नंगा नाच करें। इसे धार्मिक नहीं बल्कि अधार्मिक गतिविधि तो ज़रूर कहा जा सकता है। वैसे भी यदि हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी देखें तो भी सुबह शाम का समय प्रदूषणमुक्त होता है। तथा यह तमाम लोगों के सैर-सपाटे व चहलकदमी का वक़्त होता है। ऐसे समय में जबकि प्रकृति अथवा ईश्वर भी स्वयं अपनी ओर से अपने बंदों को शांतिपूर्ण व पुरसुकून वातावरण प्रदान करता है फिर आखिर उसी के नाम पर अनैच्छिक रूप से शोर-शराबा करने का मकसद तथा औचित्य क्या है। धर्म स्थानों पर बैठे लोगों को तथा इन धर्मस्थलों से जुड़े लोगों को स्वयं यह बात गंभीरता से सोचनी चाहिए क्योंकि बच्चे व बुज़ुर्ग लगभग प्रत्येक घर की शोभा हैं तथा सभी को शांति, चैन, सुकून व आराम की सख्त ज़रूरत है। धर्मगुरुओं, समाजसेवियों तथा प्रशासन के संयुक्त व सौहार्दपूर्ण प्रयासों से इस समस्या से समाज को निजात दिलानी चाहिए।