राजनीति

क्या भ्रष्टाचार का समाधान केवल कानून से संभव है?

डा. वीरेन्द्र भाटी मंगल

राजस्थान की राजनीति में इन दिनों राजनेताओं से जुड़े भ्रष्टाचार की चर्चा व्यापक स्तर पर है। जब राजनीति से जुड़े लोग भ्रष्टाचार में लिप्त होते है तो लोकतंत्र की क्या दशा होगी, हम अंदाजा लगा सकते है। भ्रष्टाचार आधुनिक समाज की सबसे जटिल और गंभीर समस्याओं में से एक है। यह न केवल आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न करता है, बल्कि सामाजिक नैतिकता, लोकतांत्रिक मूल्यों और जनता के विश्वास को भी कमजोर करता है। सामान्यतः यह माना जाता है कि भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए कठोर कानून और सख्त दंड ही सबसे प्रभावी उपाय हैं किंतु प्रश्न यह उठता है कि क्या वास्तव में भ्रष्टाचार का समाधान केवल कानून से ही संभव है? इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक है।

निस्संदेह, कानून भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का एक महत्वपूर्ण साधन है। भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, लोकपाल, सतर्कता आयोग, सीबीआई जैसी संस्थाएं तथा न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर करने और दोषियों को दंडित करने में सहायक रही हैं। कानून का भय व्यक्ति को गलत कार्य करने से रोकने में कुछ हद तक प्रभावी भी होता है। जब दंड कठोर और प्रक्रिया पारदर्शी होती है, तो भ्रष्ट आचरण की संभावना कम होती है। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि कानून भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई की आधारशिला है।

लेकिन केवल कानून पर्याप्त नहीं है, यह तथ्य व्यवहार में बार-बार सिद्ध हुआ है। अनेक सख्त कानूनों के बावजूद भ्रष्टाचार समाज के विभिन्न स्तरों पर विद्यमान है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि कानून तब तक प्रभावी नहीं हो सकता, जब तक उसके क्रियान्वयन में ईमानदारी और निष्पक्षता न हो। यदि कानून लागू करने वाली संस्थाएं ही भ्रष्टाचार से ग्रस्त हों तो कानून मात्र कागजों तक सीमित रह जाता है। लंबी न्यायिक प्रक्रियाएं, राजनीतिक हस्तक्षेप और दंड में देरी भी कानून की प्रभावशीलता को कम कर देती हैं।

भ्रष्टाचार की जड़ें केवल कानूनी ढांचे की कमजोरी में नहीं बल्कि सामाजिक, नैतिक और मानसिक प्रवृत्तियों में भी निहित हैं। जब समाज में अनैतिक आचरण को मौन स्वीकृति मिलती है, रिश्वत को सिस्टम का हिस्सा मान लिया जाता है और व्यक्तिगत लाभ को सार्वजनिक हित से ऊपर रखा जाता है, तब कानून अकेला कुछ नहीं कर सकता। स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार एक नैतिक संकट भी है। इस संदर्भ में नैतिक शिक्षा और मूल्यबोध की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। बचपन से ही ईमानदारी, उत्तरदायित्व, पारदर्शिता और सामाजिक कर्तव्य जैसे मूल्यों का संस्कार यदि परिवार और शिक्षा-प्रणाली के माध्यम से किया जाए तो भविष्य में भ्रष्ट आचरण की प्रवृत्ति स्वतः कम हो सकती है।

जिस समाज में ईमानदारी को सम्मान और भ्रष्टाचार को सामाजिक तिरस्कार मिले, वहां कानून को बार-बार कठोर होने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके अतिरिक्त, प्रशासनिक सुधार भी भ्रष्टाचार-निवारण में अहम भूमिका निभाते हैं। प्रक्रियाओं का सरलीकरण, डिजिटल तकनीक का प्रयोग, ई-गवर्नेंस, सूचना का अधिकार, और पारदर्शी निर्णय-प्रणाली भ्रष्टाचार के अवसरों को कम करती है। जब मानवीय हस्तक्षेप घटता है और जवाबदेही बढ़ती है, तब रिश्वत और अनियमितताओं की गुंजाइश स्वतः सीमित हो जाती है।

जनभागीदारी और जागरूकता भी उतनी ही आवश्यक है। यदि नागरिक स्वयं भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़े हों, शिकायत दर्ज कराएं, और ‘देने’ के साथ-साथ ‘लेने’ से भी इंकार करें, तो व्यवस्था पर सकारात्मक दबाव बनता है। मीडिया, नागरिक समाज और सामाजिक आंदोलनों की सक्रियता भी भ्रष्टाचार को उजागर करने और जनमत तैयार करने में सहायक होती है। भ्रष्टाचार का समाधान केवल कानून से संभव नहीं है लेकिन कानून के बिना भी संभव नहीं है। कानून आवश्यक है, पर पर्याप्त नहीं। इसके साथ नैतिक शिक्षा, सामाजिक चेतना, प्रशासनिक सुधार, पारदर्शिता और नागरिक सहभागिता का समन्वय अनिवार्य है। जब कानून, नैतिकता और समाज तीनों एक साथ सक्रिय होते हैं, तभी भ्रष्टाचार पर वास्तविक और स्थायी नियंत्रण संभव हो पाता है।

डा. वीरेन्द्र भाटी मंगल