क्या उत्तर प्रदेश का मुद्दा है विकास ? या जाति-धर्म से ही है लोगों की आस

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उत्तर प्रदेश सहित देश के कुल 5 अलग अलग राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है | सभी पार्टियों के नेता अपने अपने जीत के दावे कर रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ दल-बदल का खेल भी शुरू हो चुका है | खास तौर पर उत्तर प्रदेश चुनाव की जब बात आती है तो मामला बेहद दिलचस्प हो जाता है, क्योंकि एक तरफ 403 विधानसभा सीटें केंद्र के लिहाज से भी इस बड़े राज्य में पार्टी की पकड़ मजबूत करती है, इसलिए आज हर पार्टी यूपी जीतना चाहते है | वहीं दूसरी तरफ अपने बेहद ही उग्र और हिन्दुत्ववादी छवि वाले मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जिन्हें अप्रत्यक्ष रूप से जनता मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में देखती है | ऐसे में आदित्यनाथ योगी के लिए भी यह चुनाव साख की लड़ाई है |
हर बार चुनाव में पार्टियां अनगिनत वादे लेकर आती हैं, जिसमें जनता को लुभाने के नायाब तरीके शामिल होते हैं | लेकिन कभी हार तो कभी जीत और एक बार फिर जब चुनाव आते हैं तो कहीं न कहीं नेतागण उन्ही मुद्दों के इर्द-गिर्द जनता को घुमाना शुरू कर देते हैं | आज भी उत्तर प्रदेश चुनाव में बेरोजगारी, विकास और बिजली-पानी के मुद्दे उठाये जा रहे हैं, और इनसे सम्बंधित वादे किए जा रहे हैं | विचार करने की बात यह है कि सालों पहले भी अक्सर चुनाव में यही मुद्दे रहे हैं और इनके वादे किये गए, लेकिन आज भी जनता के बीच इन चीजों की दरकार है या यूं कह लें कि नेताओं द्वारा चुनाव के पश्चात उसे पूरा नही किया जा सका |
गौरतलब है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और बिजली-पानी की बेहतर व्यवस्था सरकार का दायित्व है, जो किसी विशेष मैनिफेस्टो का हिस्सा नही यह बुनियादी रूप से आवश्यक होना चाहिए, लेकिन पार्टियाँ लगातार इन्ही मुद्दों को चुनाव में उठाती रहे हैं और आज़ादी के लगभग 73 साल बाद भी उसी मुद्दे पर चुनाव लड़ा जा रहा है, भला आज़ाद, समृद्ध और ख़ुशहाल भारत की इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है |
बहुत लम्बे समय से उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बसपा का वर्चस्व रहा है। उनके अलावा भाजपा लम्बे समय तक वहा अपना अस्तित्व तलाशती रही है, लेकिन साल 2014 केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद, मोदी लहर ऐसी जारी रही कि उत्तरप्रदेश में सपा और बसपा का सफाया हो गया | दरअसल उत्तरप्रदेश की राजनीति में जातीय समीकरण का अपना अहम रोल रहा है | देखा जाय तो उत्तरप्रदेश में अपनी एक विशेष राजनितिक पकड़ रखने वाली सपा और बसपा का आधार जातिवाद ही रहा है और लम्बे समय तक दोनों पार्टियाँ जाति आधारित राजनीति कर सत्ता में बने रहें | वहीं साल 2014 में विकास और हिंदुत्व का ऐसा डंका पीटा गया कि लोगों ने सत्ता परिवर्तन कर दिया | हाँ, निश्चित रूप से योगी सरकार के कार्यकाल के दौरान उत्तर प्रदेश में अपराध का काफी हद तक सफाया हुआ है , जो कि पूर्व सरकारों के समय कभी चरम पर हुआ करता था | लेकिन आज भी जनता अपने मूल जरूरतों से इतर अन्य मुद्दों में 5 साल उलझी रहती है या यूं कह लें कि नेतागण जनता को उलझाए रहते हैं और चुनाव आते ही हर बार की तरह गरीबी, महंगाई, बिजली, पानी, सड़क और स्वास्थ्य जैसे आम विषय जो कि लोगों की मुलभुत आवश्यकता है, वही विपक्ष के लिए चुनावी मुद्दे बन जाते हैं | लेकिन वहीं पार्टियाँ जब सत्ता में आने के बाद उन्ही मुद्दों को शायद उसे अगले चुनावी मुद्दे के लिए छोड़ देती है |
हर चुनाव के नतीजे जातीय गुणा-गणित, धार्मिक गोलबंदी, राजनीतिक अस्मिता की पहचान के अलावा इस बात पर भी निर्भर करते हैं कि किसी राज्य की सत्ता के अधीन आम लोग कैसा महसूस कर रहे हैं? उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विकास योजनाओं के शिलान्यास-उद्घाटन के बहाने सबसे ज्यादा चुनावी दौरे हो रहे हैं। समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव परिवर्तन रथ पर सवार होकर पूरे प्रदेश में ‘बाइस में बाईसाइकिल’ के नारे के तहत पूरा प्रदेश मथ रहे हैं। बसपा खेमे में अभी खामोशी है। विद्वतजन सम्मेलन के अलावा और कोई राजनीतिक सक्रियता सुश्री मायावती की ओर से अभी नजर नहीं आ रही है।

उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी का इलाका भी पूर्वी उत्तर प्रदेश ही है। हाल-हाल तक गोरखपुर और बनारस गुंडई-दबंगई-बाहुबली राजनेताओं के हनक का केंद्र रहा है । सत्ता के संरक्षण में पालित-पोषित राजनेताओं का रसूख भी एक अरसे तक पूरे परवान था । कुछ हद तक योगी राज में ऐसे बाहुबली नेताओं के मनमानेपन पर रोक लगी है। ऐसा कोई भी देख-समझ और महसूस कर सकता है । कहना न होगा कि पूर्वांचल की राजनीति में यह एक महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा है, और चर्चा में भी है ।
एनबीटी ने हाल ही में एक सर्वे किया है । जिसमें सवाल था कि इस बार UP विधानसभा चुनाव में वोट करते समय आपके लिए सबसे बड़ा मुद्दा क्या रहेगा? विकल्प के रूप में महंगाई, बेरोजगारी, मंदिर- मस्जिद और अच्छे स्कूल- अस्पताल रखा। लोगों को इस बार चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा महंगाई का लगता है। 29.8 फीसदी लोगों ने महंगाई पर मुहर लगाया।
यूपी चुनाव में दूसरा बड़ा मुद्दा बेरोजगारी बन सकता है । 28.1 फीसदी लोगों ने बेरोजगारी को वोट दिया है। वहीं तीसरे नंबर पर अच्छे स्कूल अस्पताल को वोट मिले हैं। 23.2 फीसदी लोग स्कूल -अस्पताल को ध्यान में रखकर मतदान करने की बात कर रहे हैं। वहीं मंदिर-मस्जिद को 18.9 फीसदी वोट मिले ।
दरअसल, भाजपा अभी तक गुजरात मॉडल या यूं कह लें कि प्रधानमंत्री नरेंद मोदी के विकासपुरुष की छवि और हिंदुत्व के दम पर ही चुनाव लड़ती और जीतती रही है । इस बार फर्क यह दिख रहा है भाजपा के कार्यकर्ताओं में उदासीनता है। यह उदासीनता भाजपा को लेकर उतना नहीं है, जितना योगी आदित्यनाथ की कार्य पद्धति को लेकर है । शायद इसका एक कारण राममंदिर केस का निपटारा भी हो सकता है, जिसका निर्णय आ जाने के बाद अब शायद कोई वैसा ठोस मुद्दा न बचा हो |
वहीं समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता मनोज काका कहते हैं कि ‘समाजवादी पार्टी का चुनावी मुद्दा किसान नौजवान और महिला होगा। इसके अलावा सरकार बनने पर समाजवादी पार्टी बड़ा रोजगार सृजन करेगी। संगठित और असंगठित क्षेत्र दोनों को बूस्टअप करेगी और रोजगार देगी।’
कांग्रेस के पास अभी कोई राजनीतिक पूंजी तैयार नहीं हो पाई है। बड़े करीने से सहेज कर एक अरसे तक बची राजनीतिक पूंजी नब्बे के दशक से ही खत्म होना शुरू हुई। अब तक तमाम प्रयासों के बावजूद पार्टी के राजनीतिक जमा खाते में रूठी लक्ष्मी की वापसी संभव नहीं हो पाई है। इस वजह से कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी तमाम वादों के बावजूद लोगों को भरोसा नहीं जीत पा रही हैं।
आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 20 लाख नौकरियाँ देनें तो सपा फ्री बिजली, पेंशन योजना और जातीय जनगणना का वादा कर रही है | वही भाजपा फ़िलहाल माफियाओं पर अपने एक्शन और अन्न योजना को भुनाने की कोशिश कर रही है | लेकिन यह विचारणीय है कि क्या कोई भी सरकार यूपी में सत्ता में आने पर अपने वादों को पुरी तरह से पूरा कर पाई है? और क्या उत्तर प्रदेश का विकास करने में यह सक्षम हुए है? दरसल हर चुनाव में जनता के लिए हर पार्टियों द्वारा एक एजेंडा तय किया जाता है और प्रायः जनता एक बार फिर उनमें फास कर रह जाती है | कहीं न कहीं आम जनता चुनाव नजदीक आते आते अपने मूल मुद्दों को भूलकर विरोधी और समर्थक के रूप में उभर आते हैं और लोगों की मूलभूत आवश्यकताएं और मुद्दें चुनावी खीच-तान और वैचारिकी नफरत में कहीं नीचे दब जाते हैं |
2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए ने भारी बहुमत से जीत हासिल की थी, मुद्दा था राम मंदिर, राष्ट्रवाद और विकास | विकास के पैमाने पर एनडीए के कई नेता बेहद खरे उतरे, उन्होंने अपने काम से अपनी एक विशेष पहचान बनाई और जनता को लाभान्वित किया | उनमें से ही एक नाम पूर्व केन्द्रीय मंत्री मनोज सिन्हा का आता है, जो फिलहाल जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल हैं | मनोज सिन्हा साल 2014 में गाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश से सांसद रहे हैं | उनके काम को देखते हुए उन्हें विकासपुरुष का दर्जा दिया गया और काफी हद तक उन्होंने गाज़ीपुर का कायाकल्प बदला, विकास किया | लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में मनोज सिन्हा के विकासवाद के आगे कहीं न कहीं जातिवाद और धर्मवाद भारी पड़ा | जनता ने विकास को चुनने के बजाय इनके प्रतिद्वंदी अफ़ज़ल अंसारी को चुना जो कि सपा और बसपा के गठबंधन की सीट पर चुनाव लड़े थे | राजनीति का यह अध्याय कहीं न कहीं उत्तर प्रदेश के जातीय और धार्मिक कट्टरता की सोच को दिखाता है, ऐसे में यह सवाल आज भी उठाता है कि क्या जनता वास्तव में बुनियादी विकास चाहती है, या जातीय कट्टरता के आधार पर ही विकास तलाश रही है | यदि राजनैतिक विचारधारा से इतर देखें तो मनोज सिन्हा के अथक सकारात्मक प्रयासों के बावजूद जनता ने उन्हें चुनने के बजाय अफ़ज़ल अंसारी को चुना, जिनपर न जाने कितने आपराधिक मामले दर्ज रहे हैं |
यदि विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में देखा जाय तो जातिवाद अक्सर विकासवाद पर भारी पड़ा है | 2017 से पहले तक ओबीसी, एससी, एसटी और मुस्लिम वोट किसी पार्टी के जीत के मुख्य आधार बने रहते थे, इसके अनुसार ही पार्टिया खुद को इनका हितैषी साबित करती आई हैं | खासतौर पर सपा खुद के समाजवादी विचारधारा के फैलाने का बात करती रही है लेकिन कहीं न कहीं सपा भी एक निश्चित वर्ग व समुदाय के प्रति अधिक मोहित रही है | वहीं साल 2017 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश का वोट बैंक जाति से धर्म में तब्दील हो गया | इसके बाद हुए लोकसभा चुनाव की बात करें या मौजूदा विधानसभा चुनाव की, आज कुछ निश्चित पार्टियाँ पहले की भातिं किसी निश्चित समुदाय की नही बल्कि खुद को धार्मिक स्तर पर परोसने व साबित करने में लगे हैं | यदि देखा जाय तो आज अधिकतर राजनैतिक पार्टियाँ जाति से हटकर अब धर्म पर शिफ्ट हो चुकी हैं और इसके साथ कुछ मुद्दों को लेकर जनता को बरगलाने की कोशिश कर रही हैं, जिसमें किसी न किसी को सत्तर तो मिल जाएगी लेकिन आम जनता के हाथों में एक बार फिर झूठे विकास व वादों का झुनझुना आएगा |

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