लोकशक्ति का पर्याय है, लोकपाल

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प्रमोद भार्गव

आजादी के बाद जनांदोलनों से सत्ता परिवर्तन हुए हैं। अनेक क्षेत्रीय दलों ने संघर्ष से असितत्व कायम करके केंद्र व राज्य सत्ताएं भी हासिल की हैं। परस्पर बुनियादी मतभेदों के बावजूद केंद्र व राज्यों में गठबंधन सरकारों का सिलसिला भी जारी है। लेकिन तमाम राष्ट्रीय व क्षेत्रीय जन-आकांक्षाओं के बावजूद बेमेल सत्ताधारी न तो मूल्यपरक समाज निर्माण में कोर्इ अहम भूमिका का निर्वाह कर पाए और न ही भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने में मौजूदा कानूनों में बदलाव लाने का जोखिम उठा पाए। इसके उलट सत्ता में बने रहने के लिए वे क्षेत्रीयता, जातीयता और सांप्रदायिकता को जरुर सत्ता-दोहन का माध्यम बनाते रहे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह शायद पहला अवसर है, जब सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के गांधीवादी अहिंसक आंदोलन और उनके चौथी बार आमरण अनशन पर बैठने के नैतिक दबाव के चलते लोकपाल विधेयक संसद के दोनों सदनों से बिना किसी बहस – मुवाहिशा के पारित हुआ है। मसलन भ्रष्टाचार-रोधी चौवालीस साल से प्रतीक्षारत एक प्रभावी संवैधानिक संस्था के गठन का रास्ता साफ हो गया है। केंद्रीयकृत सत्ता के इस तथाकथित आर्थिक उदारवादी दौर में यह प्रक्रिया जहां शासक-शक्ति को एक बड़ा झटका है, वहीं लोकतंत्र में जन-अधिकारों के शक्ति संपन्न होने का शुभ संकेत भी है।

गांधी जी ने कहा था कि ‘सच्चा स्वराज थोड़े से लोगों द्वारा सत्ता हासिल कर लेने से नहीं, बल्कि जब सत्ता का दुरुपयोग हो, तब सब लोगों द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता जगा कर ही प्राप्त किया जा सकता है। इस नजरिए से राजकाज में बदलाव लाने का यह सक्रिय हस्तक्षेप और इसकी प्रासंगिकता दोहरार्इ जाती रहनी चाहिए। जिससे इस प्रक्रिया के माध्यम से भारतीय लोकतंत्र ने जो उपलब्धि हासिल की है, उसकी निरंतरता बनी रहे। क्योंकि भ्रष्टाचार की व्यापकता और उसकी स्वीकार्यता की महिमा जिस अनुपात में समाज में व्याप्त हो चुकी है, उसका निर्मूलन इस अकेले कानून से संभव नहीं है। लोकपाल से संबंद्ध जो पूरक विधेयक लंबित हैं, उनके प्रारुप को भी वैधानिक दर्जा मिलना जरुरी है। तभी, लोकपाल जैसे सशक्त प्रहरी की वास्तविक सार्थकता सामने आएगी। लोकसेवकों की कार्यप्रणाली में पारदर्षिता और उत्तरदायित्व के समावेष भी तभी परिलक्षित होंगे। इस नाते नागरिक अधिकार-पत्र को कार्यरुप देने और गड़बडि़यों की सूचना देने वालों कानूनों को विधायी स्वरुप देना जरुरी है। इसी क्रम में भारतीय विधि आयोग की उस 166 वीं रिपोर्ट को क्रियानिवत करने की जरुरत है, जिसमें भ्रष्टाचारियों की संपत्ति जब्त करने के कानूनी उपाय सुझाए गए हैं। आयोग ने 1999 के सुझावों को विधेयक के रुप में तब्दील कर इसे कानूनी स्वरुप देने की सिफारिश की थी। लेकिन संसद से अभी तक यह कानून पारित नहीं हो सका है। अगर विपक्ष या सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा जन हस्तक्षेप कालांतर में जारी नहीं रहता तो लोकपाल जनता की जागी उम्मीदों पर खरा उतरने वाला नहीं है। हालांकि अन्ना ने चेतावनी दी है कि लोकपाल के सहायक विधेयक पारित नहीं होते हैं तो आंदोलन, अनशन व संघर्ष का सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। सही भी है, जनतंत्र में जन-अधिकार हासिल करने का दायरा उत्तरोत्तर बढ़ता रहना चाहिए।

स्वतंत्र भारत में भ्रष्टाचार का सुरसामुख लगातार फैलता रहा है। उसने सरकारी विभागों से लेकर सामाजिक सरोकारों से जुड़ी सभी संस्थाओं को अपनी चपेट में ले लिया है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मानवीय मूल्यों से जुड़ी संस्थाएं भी अछूती नहीं रहीं। नौकरशाही को तो छोडि़ए, देश व लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था संसद की संवैधानिक गरिमा बनाए रखने वाले सांसद भी सवाल पूछने और चिटठी लिखने के ऐवज में रिश्वत लेने से नहीं हिचकिचाते। जाहिर है, भ्रष्टाचार लोकसेवकों के जीवन का एक तथ्य मात्र नहीं, बल्कि शिष्टाचार के मिथक में बदल गया है। जनतंत्र में भ्रष्टाचार की मिथकीय प्रतिष्ठा उसकी हकीकत में उपस्थिति से कहीं ज्यादा घातक इसलिए है, क्योंकि मिथ हमारे लोक-व्यवहार में आदर्श स्थिति के नायक-प्रतिनायक बन जाते हैं। राजनीतिक व प्रशासनिक संस्कृति का ऐसा क्षरण राष्ट्र को पतन की ओर ही ले जाएगा ?

राजनीतिक संस्कृति के इस क्षरण और पतन को रोकने का पहला दायित्व तो उस विधायिका का था, जो रामलीला मैदान में अन्ना आंदोलन के चरम उत्कर्ष पर पहुंचने के दौरान, संसद की सर्वोच्चता और गरिमा का स्वांग तो रच रही थी, लेकिन जनता को दोषमुक्त शासन-प्रणाली देने की दृष्टि से एक कदम भी कानूनी प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ा रही थी। इसमें कोर्इ दोराय नहीं कि संविधान के अनुसार संसद हमारे राष्ट्र की सर्वोच्च विधायी शक्ति व संस्थाएं है। लोकतांत्रिक राजनीतिक संरचना में उसी का महत्व सर्वोपरि है। लेकिन जिस तरह से वह व्यापक व समावेषी भूमिका निर्वहन में गौण होती चली जा रही है, उस प्ररिप्रेक्ष्य में उसकी कार्य संस्कृति का प्रदूषित होते जाना तो था ही, जन सरोकारों से आंखे मूंद लेना भी था। संसद की गरिमा को क्षत-विक्षत करने का काम विधायिका में स्थापित होती जा रही व्यक्ति केन्द्रित राजनीतिक शैली ने भी किया है। राजनेताओं की उम्मीदवारी का निर्धारण उसकी आर्थिक व जातीय हैसियत से किए जाने के कारण भी, इस जनतांत्रिक व्यवस्था का क्षय हुआ। राजनीति में अर्थ की महत्ता ने नैतिक सरोकारों को हाशिये पर खदेड़ दिया। संविधान निर्माताओं ने समता व न्याय पर आधारित और मानवीय गरिमा से प्रेरित भारतीय संप्रभुता के जो आदर्श रचे थे, उसकी अवहेलना इसी विधायिका ने की। संविधान-सम्मत कोर्इ भी व्यवस्था कितनी भी श्रेष्ठ क्यों न हो, उसकी स्वीकार्यता तभी संभव होती है, जब देश की जनता का बहुमत उसके साथ हो। डा. भीमराव आंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा की बैठक में कहा भी था,’संविधान का कार्य पूर्णत: संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करता। संविधान सिर्फ विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को शक्ति देता है। राज्य के इन स्तंभों की क्रियात्मकता जिन कारकों पर अवलंबित है, वे हैं जनता-जर्नादन और राजनीतिक दल। उनकी आकांक्षाएं और राजनीति ही मुख्य निर्धारक आधार बिंदु हैं। जनता और दलों के भावी व्यवहार के बारे में कौन सटीक आकलन कर सकता है ? डा. आम्बेडकर की आशंका सही साबित हुर्इ। कालांतर में हमारे राजनीतिकों के व्यक्तित्व से सैद्धांतिक व्यवहार और आमजन के प्रति विश्वास दुर्लभ तत्व हो गए। नतीजतन असहमति की राजनीति परवान चढ़ी और मजबूरन लोकपाल कानूनी हकीकत में तब्दील हुआ।

राजनीति परिणामूलक रहे, इसके लिए जरुरी है कि राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था लोक की निगरानी में रहें। जरुरत पड़ने पर आंदोलित भी होते रहें। इसी के समानांतर विधायिका और कार्यपालिका का दायित्व बनता है कि जनतंत्र से उपजने वाली असहमतियों का वह सम्मान करे और उसके अनुरुप चले। क्योंकि भारतीय प्रजातंत्र में अब तक बड़े समुदायों को लोकतंत्रिक प्रक्रियाओं से जुदा रखा गया है। कानून बनाने में उनकी सलाह या साझेदारी को स्वीकार नहीं किया गया। इसके कानूनों को जन समूदायों पर उपर से थोप दिया जात है। पंचायती राज प्रणाली का भी यही हश्र हुआ। कुछ ऐसी ही वजहें रहीं कि लोकतंत्र का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ ‘संविधान और सर्वोच्च संस्था ‘संसद वास्तविक व्यवहार में जनता से दूरी बनाते चले गए और इनसे प्रदत्त अधिकार विशेषाधिकार प्राप्त सांसदों व विधायकों में सिमटते चले गए। बहरहाल अर्से से प्रचलित सत्ता की जड़ता को तोड़ने का काम लोकपाल के माध्यम से जहां अन्ना हजारे ने किया है, वहीं राजनीतिक संस्कृति में नैतिकता और शुचिता का समावेष अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में अप्रत्याशित जीत हासिल करके किया है। इन ताजा जन हस्तक्षेपों की उर्जा से अन्य राजनीतिक दलों को प्राणवायु लेने की जरुरत है। तभी राजनीतिक मानसों के जनतांत्रिक मूल्यों और मान्यताओं के अनुरुप ढलने की उम्मीद की जा सकेती है।

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