तोड़ना ही है तो मन्दिर और मस्जिद तोड़ो!

-एम. अफसर खां सागर-   humanity

फक्र से कहो कि मैं हिन्दू हूं, किसी कोने से एक मध्म सी आवाज और नुमाया होगी कि मैं मुसलमान हूं। हमें तो बस लड़ना है वो लड़ाई चाहे राम के नाम पर हो या रहमान के नाम पर। तुम हिन्दुस्तान में बाबरी मस्जिद तोड़ोगे वो बामयान में बुद्ध की प्रतिमा। जरा सोचो, आखिर टूटना तो इंसान को ही है। इस पर भी तुम्हारा तर्क होगा कि नहीं, यहां मुसलमान टूटा तो वहां हिन्दू। तोड़ने वालों मुझे भी तोड़ना बहुत पसंद है, अगर तुम साम्प्रदायिकता के दावानल को तोड़ सको। चन्द महीने पहले मुजफ्फरनगर में क्या हुआ? कुछ हिन्दुओं के और कुछ मुसलमानों के घर टूटे, आत्मा टूटीं। ऐसे तो पूरे मुल्क में कुछ न कुछ हरदम टूट रहा है। फिर क्या हुआ, आखिर क्यों इतना हो हल्ला मचा हुआ है। जरा किसी ने उन टूटने वालों से पूछा कि किसने आखिर क्यों तुम्हें और तुम्हारे जीने के सलीके को तोड़ दिया?

साठ साल से ज्यादा का अरसा हो चुका है हमें अंग्रेजों के गुलामी के जंजीरों को तोड़े हुए मगर क्या हासिल हुआ। आजाद हुए जब आपस में एक-दूसरे को हम तोड़ने पर आमादा हैं। अगर कुछ तोड़ना है तो मुसलमान तुम मस्जिदों को और हिन्दू तुम मन्दिरों को तोड़ो! आखिर ऐसे धर्म की क्या जरूरत है जो हमें आपस में लड़ना सिखाता हो। किस राम ने और किस रहीम ने धर्म की कौन सी किताब में कहां लिखा है कि हम आपसी भाईचारा को भुला कर एक-दूसरे को कत्ल करें? बदलते सामाजिक परिवेश में मानवीय नजरिया पर राजनीति का गहरा अक्स पड़ा है। धर्म-जात में बंटते समाज में फिरकापरस्त ताकतें लोगों को लड़ाकर अपना उल्लू सीधा करना बखूबी सीख लिया है। राजनीतिक दल लोगों को समुदाय, जात में बांट कर सियासी फायदा उठाने का फण्डा चला रहे हैं। ऐसे में सवाल साम्प्रदायिक दंगें होने व उसमें सरकारी अमला की मुस्तैदी का नहीं रहा, यहां सवाल राजनैतिक दलों के नीयति का है।

मुजफ्फरनगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश का वह इलाका है जहां बाबरी विध्वंश के वक्त भी वो नहीं हुआ जो चार महीने पहले हो गया। दंगा के दावानल में सब लुट गया। अमन, चैन, भाईचारा अब बेमानी सी लगती है। धर्म जिसे लोग जीवन का पद्धति माने हैं, वो भी इन्हें लड़ने से नहीं रोक सका। यहां एक सवाल जेहन में पैदा होना लाजमी है कि जब दंगों को धर्म के नाम भड़गया गया तो वैसे धर्म की हमें क्या जरूरत है जो अनदेखी के लिए यहां मुराद राम व रहीम से है जिसे हमें कभी नहीं देख उसके नाम पर हमें लड़ाया जा रहा है और जिसे हम रोज देखते हैं, मिलते हैं। अपना दुख-दर्द बांटते हैं, उसी को मारने पर आमादा हैं। जरा सोचिए कि हमें राम व रहीम ने क्या दिया है? कुछ नीतियां, जिन्दगी जीने का सलीका, जिन्हें हम शायद कभी अमल में ही नहीं ला सके। हमें मन्दिर-मस्जिद का तो खूब ख्याल रहा मगर आपसी सद्भाव को भूल गये। शायद अब वक़्त नहीं बचा हिन्दु-मुसलमान के नाम पर लड़ने का। मन्दिर-मस्जिद की भव्य ईमारत के बुनियाद का चक्कर छोड़कर, उसकी नीतियों, सिद्धान्तों को अपनाने का समय है।

साम्प्रदायिकता के बन्द दरवाजे, खिड़कियां व रोशनदान को खोलकर, सद्भाव व भाईचारे की रोशनी को समाज व मुल्क में लाने की जरूरत है। सद्भाव की रोशनी से कुछ लोगों की आखें जरूर चौंधिया जायेंगी और जिन्होंने अंधेर नगरी का साम्राज्य कायम कर रखा हो, शायद उन्हें अब भी अंधेरा ही पसंन्द हो। वो जरूर कहेंगे कि हमें धर्म, कट्टरता, मन्दिर-मस्जिद ही पसंद है। मगर वक्त की आवाज को सुनना बेहद जरूरी है, सामाजिक समरसता व सद्भाव को कायम करने की जरूरत है। वर्ना हमसे तो अच्छा वो जानवर हैं, जिनमें धर्म का भेदभाव नहीं। ना तो वे हिन्दु हैं ना मुसलमान। न उनके पास मन्दिर है और ना ही मस्जिद। आपने कबूतर को देखा है, कभी वो मन्दिर पर तो कभी मस्जिद के गुम्बद पर बैठा रहता है। शायद व धर्म की चारदीवारी से उपर है। जरा सोचिए, कितना अच्छा होता कि हम जानवर ही होते! कम से कम हम धर्म-मजहब के नाम पर तो नही लड़ते। कितना अच्छा होता अगर ये मन्दिर ना होते, ये मस्जिद ना होते! फिर भी कुछ न कुछ जरूर टूटता तब शायद इंसान न टूटते। इंसानों का गुरूर, घमण्ड टूटता। आज जरूरत धर्म, जाति, मन्दिर-मस्जिद के नाम पर लड़ने का नहीं है। वक्त है गुरबत, बेकारी व भ्रष्टाचार से लड़ने का। वक्त है साम्प्रदायिकता के फैलते दावानल को रोकने का।

11 COMMENTS

  1. इस आलेख पर न जाने मेरी नजर पहले क्यों नहीं पडी?पर आज जब मैं इसको पढ़ रहा हूँ,तो एक स्पष्ट अंतर साफ़ दिख रहा है.कुछ इंसानों ने तो इसकी सराहना की है,पर दूसरे संकीर्ण धार्मिक दीवारों को नहीं तोड़ सके हैं.यहीं इंसान और इंसानियत की हत्या हो जाती और ऊपर वाला,(अगर कोई है),तो दुखी हो जाता है कि इन दोपायों को बनाकर कहीं उसने गलती तो नहीं कर दी?

  2. एक बर्बर आततायी, अत्याचारी विदेशी हमलावर की गुलामी की प्रतीक “बाबरी मस्जिद” को ढहाने पर इतना शोर करना भी तो अच्छी बात नहीं है भाई
    क्या हिन्दुओं के आराध्य और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम बाबर जैसे घटिया जानवर में कहीं समानता दिखाई देती है आपको ?

  3. अवश्य -कोई भी हिंसा का प्रोत्साहन नहीं होना चाहिए।
    सुझाव ===>
    (१) कुछ इतिहासकारों के अनुसार ७०,००० मंदिरों को तोडकर उनकी नीवँ पर मस्जिदें खडी की जा चुकी है। यह हुआ है, बचे खुचे भारत में (भी)।
    (२)पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानीस्तान इत्यादि में तो आप का यह आलेख कोई छाप भी शायद ही देगा।
    (३) तो संभवित ७०,००० मस्जिदों में से जिस स्थानपर राम का जन्म हुआ था, उस मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर बनें। यह न्याय्य है। बाबरी मस्जिद (?) में बाबर जन्मा नहीं था, यदि थी भी,तो वह सामान्य मस्जिद थी। पर हिंदुओंके लिए यह सामान्य वास्तु्-स्थान नहीं है। उस स्थान से राम का जन्म जुडा हुआ है। उसी प्रकार कृष्ण और विश्वनाथ मन्दिर भी महत्व के हैं।
    (४) ऐसे संवेदनशील स्थान के लिए, जिन हिंदुओं के हजारो मंदिरों पर — मस्जिदें खडी की गयी है, उनमें से तीन आप दे नहीं सकते? वाह, आप बहुत उदार है? अन्याय करनेके बाद अब शांत रहनेकी बात?
    खुशी मनाइए कि, यह भारत है।
    कभी “हिन्दू टेम्पल्स, व्हाट हॅप्पंड टु देम? “के दो भाग पढिए। और डॉसन और जॉह्न्सन के अंग्रेज़ी ८ हिस्टरी के भाग पढिए।नेहरू चाचा ने उन्हें भारत में प्रतिबंधित किए थे। इंटर्नेट पर भी कुछ तो देखा जा सकता है ही।
    —जिसमें ३२ इस्लामी तवारीखों का प्रमाण दिया गया है।
    कम से कम इन पुस्तकों के चित्र ही देखिए।
    बाबर काफिरों को मारकर खोपरियों का ढेर लगाकर, उसके आस पास गोल गोल नाचा करता था। तम्बू ३ बार हटाना पडा था, जब खून बहते बहते बाबर के पैरोंतले आया। ढेर बढते ही गया था। इतनी खोपरियाँ चढती गय।(शायद, बाबर नामा से पता चलता है)
    —–आलेख के लिए धन्यवाद।
    हिंसा नहीं उकसाता।
    पर कुछ न्याय की भी बात कीजिए।

    • पता नहीं आपकी इस टिपण्णी पर पहले क्यों नहीं नजर पडी?तो यह है आपका असली रूप.जिन अंग्रेज इतिहासकारों की भर्त्सना करते आप थकते नहीं,आज उसी को सबसे प्रामाणिक मान रहे हैं.जबकि यह सर्व विदित है कि अंग्रेजों ने इतिहास को इस ढंग से दर्शाया है,जिससे हिन्दू मुसलमान हमेशा आपस में लड़ते रहें.आपने स्वयं बहुत बार इसका उल्लेख किया है,पर अब मुझे याद आ रहा है कि उन जगहों पर शायद किसी मुसलमान से इस तरह सीधा विचार विमर्श नहीं था.यह आलेख केवल इंसानियत दर्शाता है और उसे उसी रूप में लिया जाना चाहिए था. मुझे इस बात का सख्त अफ़सोस है कि मैं अब तक आपको पूरी तरह से नहीं समझ सका था.आज जब मैं इस बात को समझ गया हूँ कि आपभी कट्टर पंथियों में से एक हैं,तो आपके साथ सब विचार विमर्श समाप्त हो जाता है.
      पुनश्च:हो सकता है कि इस टिपण्णी के बाद प्रवक्ता.कॉम प्रबंधन मुझे अपनी सूची से हीं हटा दे,पर प्रवक्ता .कॉम प्रवंधन से एक अनुरोध अवश्य करूंगा कि अगर इस टिपण्णी को प्रकाशित नहीं भी करना है ,तो कम से कम इसको आपके संज्ञान में तो ला हीं दे .

  4. अफसर आपका लेख पढ़कर दिल खुश हुआ लेकिन दोस्त धर्म के नाम पर सियासत करनेवालों कि जितनी गलती है उस से ज़यादा उन कटटर और भावुक अंधभक्तों कि है जो बहकाने में आ जाते हैं.

  5. वर्तमान सामाजिक परिवेश में सामाजिक सदभाव की ज़रुरत है.
    समय की मांग है सामाजिक सदभाव.
    सुन्दर आलेख.
    साधुवाद!

  6. फिरका बन्दी है कही और कही जातें हैं
    क्या जमाने में पनपने की यही बातें हैं।।
    अफसर आपने उन पहलूओ को छुने की कोशिश की है जहॅा हिन्दू व मुस्लमान नही मरता एक इनसान मरता है आज उन नेताओ की संवेदना मर चुकी है ठण्ड में सिहरते बच्चो की सिहरन महसूस नही होती। बहुत अच्छा सागर एैसे ही लिखते रहो।

  7. अफसर खान के कलम से लिखी हुई ,एक सुन्दर लेख ,इसी तरह के लेखो कि हौसला अफ़ज़ाई होनी चाहिए ,एक भी आदमी का सुधार हुआ इस गन्दी राजनीत से परे हो कर ,
    मंदिर-मस्जिद बहुत बनाया, आओ मिलकर देश बनाए
    हर मज़हब को बहुत सजाया, आओ मिलकर देश सजाएं!

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