व्यंग्य

  नारी है नर की खान ?

 आत्माराम यादव पीव
दुनियाभर के नरों को हाजिर-नाजिर मानकर मैं अपने दिमाग के कबूतरखाने में नारी ओर नर के पुरूषार्थ और प्रतिभा का लोहा मानते हुये प्रचलित कहावत ‘‘नारी निंदा न करों, नारी नर की खान‘‘, ‘‘नारी के बिना नर      अधूरा है‘‘ आदि मान्यताओं के पीछे छिपे भावों का सच प्रगट करने जा रहा हॅू,। आप सोंचेंगे कि मैं कहीं विक्षिप्त तो नहीं हो गया हॅू, जो यहाॅ सम्पूर्ण नारी जाति से पंगा लेकर इस तरह की बातें कर रहा हॅॅू, तो भैईये समझ लीजिये इसकी प्रेरणा भी मुझे नारी से प्राप्त हुई है। सौन्दर्यशिल्प से गढ़ी गयी एक नारी जब अपने पति के साथ 9 साल तक अग्नि को साक्षी मानकर पत्नीधर्म निभाते हुये उसकी कमलनयना बनकर पुत्रपुष्प को जन्म देने के 7 साल तक एक-एक पल, एक-एक दिन-रात की खुशियों व जीवन की रंगीनियों के चित्रपट को अपने मस्तिष्क से पलक झपकते ही मिटाकर चूर-चूर कर दे और  इन सभी से मोह त्याग कर अपने नयनों के अथाह सागर में भवसागर से पार करने का दावा करने वाले छतरपुर के रामकथावाचक की साधना और वर्षो की तपस्या एवं कमाया गया नाम मिटटी में मिलाते भाग जाये तो यह घटना गृहस्थ की चिंता के साथ चिंतन को विवश करती हैं। जीवनमार्ग को धर्मपोथी द्वारा प्रशस्त करतेे साधक के हजारो-लाखों भक्तों के विश्वास को ऐसे ही नहीं जीता जाता है, पर वह विश्वास कामिनी स्वरूपा 9 साल के विवाहिता के नयनसागर में डूब जाये तब कथावाचक कतई साधक नहीं हो सकता, वह गहरे में कामातुर रहा है जिसके निम्नस्तरीय दुराचरण से यह बात सिद्ध हो गयी।
हमारे यहाॅ जो कथावाचक संस्कृत के स्त्रोंतों-मंत्रों ,वेद-पुराण और रामायण की मीमांसा करें, वह रस छन्द अलंकारों और कथाप्रसंगों में नायिका भेद के मार्मिक प्रसंगों और मानसिक रूग्णताओं से अमृत निकालकर समत्व के भाव द्वारा समाज को सावधान कर गुरूतुल्य पूज्य होता है, अगर यह सब ज्ञान होते हुये वह किसी गृहस्थ की गृहस्थी को तहस-नहस कर उसकी पत्नी और बेटे के होते उसपर प्रेमजाल डालकर उसे पथभ्रष्ट कर ले जाये तो यह कथावाचक के रूप में कोई बहुत गिरा हुआ कामीस्त्रीलोलुप नराधम ही होगा, जो अब तक अपनी वासनाओं को दबाये रखा और प्रयोग वहाॅ किया जहाॅ उसे जिस यजमान द्वारा कथा के दरम्यान अपने निज आवास में परिवार द्वारा सेवा का अवसर दिया जाकर पुण्य कमाने की लालसा के साथ समाज में कथा आयोजक के यश का सुख प्राप्त हो रहा था। कथाकारों-कथावाचकों, भागवताचार्यो आदि व्यासगादी को सुशोभित करने वालों को यजमानों के घरों में परिवार की बेटियों-बहुओं आदि के द्वारा किसी विश्वास के साथ विशेष कक्ष, विशेष भोज जैसी व्यवस्थाओं आदि उपलब्ध करायी जाती है, पर इस घटना के पात्र एक कथाकार की घृणित मानसिकता ने जहाॅ उनके जगदगुरू के शिष्य होने पर उन्हें कलंकित किया वही भविष्य के लिये ऐसे आयोजनों हेतु यजमानों के मनमस्तिष्क पर चिंताओं की रेख पाड़ दी है। कथाकार को क्षम्य नहीं किया जाना चाहिये, जिसने विश्वासघात कर परिवार को तोड़ा, जबकि वह कुमारी-सुकुमारी को अपनाकर अन्य कथाकारों की भाॅति वैवाहिक जीवन जीकर नारी सत्ता को कटघरे में खड़ा करने से बच सकता था, पर नरोत्तम के रूप में वह नराधम था, यह सिद्ध कर गया।
यह घटना विवाहिता के कुलटा होने पर सवाल छोड़ जाती है, कि नर और नारी के बीच सब ठीक नहीं चल रहा है। नारी सत्ता को यूं ही नर की खान नहीं कहा गया है। मैं निरा मूरख सुबह से शाम तक अपने दायें बायें, आगे पीछे, बहुत सी नारियों के दिखाई देने से अपना दिल को बचाये घूमता हॅू  और जल में, थल में नभ में पूरी धरती के जीवों में, पशुओं में और मनुष्यों में नर को नराधम समझ नारी के दर्शनों से तृप्त होने का प्रयास करता हॅू। कोई नारी मृगनयनी होती है, कोई कमलनयनी होती है जो नयनों से शिकार करती है, कोई नागिन सी लहलहाती जुल्फों से, कोई मीठी-मीठी, प्यारी-प्यारी वाणी से, कोई चंचल चित्त में अनुराग भरकर, कोई छवीली गलबहियों से, कोई कपोलों के स्पन्दन से पुरूषकमल के मन पर राज करने के लिये सभी प्रकार की कामुक अदाओं के शस्त्रों से भी शिकार करती है। बाबजूद मैं अब  इन सुकोमल कुमारियों के तमाम आरोपों-आपत्तियों को दरकिनार रखते हुये उनका ध्यान अपनी बातों की ओर लगाना चाहता हॅू  ताकि वे नारी जो नारायणी है, नारी जो प्रकृति है, नारी जो सृष्टि है, नारी जो पृथ्वी है, नारी जो नियति है, नारी जो नर की पूर्ण संरक्षिका है, नारी जो नर के शरीर की सत्ता की पहचान है के महत्व को समझाने का मेरा प्रयास सार्थक हो सके।