-तनवीर जाफरी-
जिस प्रकार 1947 में स्वतंत्र भारत के उदय के साथ ही भारतवर्ष को पाकिस्तान के रूप में एक विभाजित राष्ट्र की त्रासदी का सामना करना पड़ा था और उस समय से लेकर अब तक कभी एक ही देश के नागरिक कहे जाने वाले लोगों के मध्य चला आ रहा तनावपूर्ण वातावरण इस समय दो सबसे बड़े पड़ोसी दुश्मन देशों जैसी शक्ल अख्तियार कर चुका है। ठीक उसी प्रकार पैगंबर-ए-रसूल हज़रत मोहम्मद द्वारा मानवता के कल्याण हेतु दुनिया से परिचित कराया गया। इस्लाम धर्म इसी के प्रवर्तक हज़रत मोहम्मद के स्वर्गवास के समय से ही दो बड़े इस्लामी गुटों में विभाजित हो गया था। हज़रत मोहम्मद के स्वर्गवास के पश्चात इस्लाम के अनुयाईयों का एक वर्ग दौर-ए-रिसालत के पश्चात दौर-ए-खिलाफत का अनुआई बना और यही वर्ग अहल-ए-सुन्नत या सुन्नी समुदाय कहलाया तो दूसरे वर्ग ने दौर-ए-खिलाफत को अस्वीकार करते हुए इस्लाम में दौर-ए-इमामत का अनुसरण करना शुरू कर दिया। और इस वर्ग ने हज़रत अली को अपना पहला इमाम स्वीकार किया। हज़रत अली के यही अनुयायी तथा इमामत के पैरोकार शिया कहलाए। दरअसल दौर-ए-खिलाफत और दौर-ए-इमामत जैसे इस्लाम के सबसे गंभीर एवं महत्वपूर्ण विषयों को लेकर इस्लामी इतिहास में कई विवादपूर्ण घटनाएं हैं। इनमें से कई घटनाएं ऐसी हैं जिनसे या तो शिया समुदाय के लोग सहमत नहीं हैं और कई ऐसी घटनाएं हैं जिन्हें सुन्नी वर्ग के लोग नहीं मानते।
बहरहाल, इस्लाम धर्म के पैरोकार तथा एक अल्लाह, एक ही कुरान शरीफ, एक ही रसूल व एक ही काबा शरीफ में हज अदा करने व रोज़ा-नमाज़ व ज़कात जैसी सभी चीज़ों को समान रूप से मानने वाले शिया व सुन्नी समुदाय के लोग गत् 1400 वर्षों से एक-दूसरी कौमों से न केवल फासला बनाए हुए हैं बल्कि इराक, सीरिया, लेबनान तथा पाकिस्तान जैसे और कई देशों में इन समुदायों के बीच चलने वाले खूनी संघर्ष के समाचार भी प्राय: दुनिया सुनती रहती है। ज़ाहिर है भारत भी इसका अपवाद नहीं है। यहां भी कभी-कभार शिया-सुन्नी फसाद होने अथवा इन समुदायों के बीच तनावपूर्ण वातावरण की खबरें आती रहती हैं। दुर्भाग्यवश शिया-सुन्नी फसाद को लेकर अवध के नवाबों की पहचान रखने वाला तथा तहज़ीब का केंद्र समझा जाने वाला शहर लखनऊ सुर्खियों में रहता है। खासतौर पर लखनऊ के पुराने शहर के कई इलाके शिया-सुन्नी दंगों से प्रभावित रहते हैं। सैकड़ों वर्षों से इन दोनों समुदायों के बीच चले आ रहे खूनी संघर्ष में अब तक सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं तथा दोनों समुदायों की अरबों रुपयों की संपत्ति भी नष्ट हो चुकी है। इन समुदायों के मध्य या तो मोहर्रम के जुलूस के अवसर पर खूनी संघर्ष हुआ करता है या फिर बारावफात के अवसर पर निकलने वाले मदहे सहाबा के जुलूस के अवसर पर फ़साद हुआ करता था। इन्हीं दंगों के मद्देनज़र उत्तर प्रदेश सरकार ने दोनों ही समुदायों के प्राचीन जुलूसों पर प्रतिबंध तक लगा दिया था जिसे कुछ वर्ष पूर्व ही पुन: हटाया गया है।
इस्लाम धर्म के मुंह पर कुछ इस्लाम विरोधी शक्तियों द्वारा तो कुछ गुमराह कट्टरपंथी इस्लामी शक्तियों द्वारा थोपी जाने वाली कालिख को मिटाने के लिए गत् कुछ वर्षों से देश के शिया व सुन्नी समुदाय के उदारवादी विद्वान प्रयासरत हैं। इन समुदायों के विद्वानों की कई बैठकें भी आयोजित हो चुकी हैं। शिया व सुन्नी दोनों समुदायों के यह उदारवादी उलेमा यही चाहते हैं कि आपसी भाईचारा बनाए रखने के लिए अपने समुदाय, क्षेत्र व देश की शांति व तरक्की के लिए हिंसक संघर्ष का रास्ता छोडक़र परस्पर मेल-मिलाप के साथ रहने की शुरुआत की जानी चाहिए। और इस प्रकार के प्रदर्शन तथा एकता के द्वारा मुस्लिम समुदाय उन शक्तियों को बेनकाब करने की कोशिश करें जो इस्लाम को आतंकवादी धर्म के रूप में बदनाम करने की कोशिश कर रही हैं। शिया व सुन्नी विद्वानों के इन प्रयासों का असर भी दिखाई देना शुरू हो गया है। लखनऊ में जहां मोहर्रम व बारावफात के जुलूस दंगे-फसाद व कर्फ्यू व आगज़नी के लिए जाने जाते थे, उन्हीं जुलूसों में अब शिया व सुन्नी समुदाय के लोग आपस में एक-दूसरे के जुलूसों में शिरकत करते दिखाई देने लगे हैं। मोहर्रम के अवसर पर शिया-सुन्नी के साथ-साथ हिंदू समुदाय के लोगों द्वारा मिलकर हज़रत इमाम हुसैन की याद में रक्तदान शिविर लगाए जाने के समाचार लखनऊ सहित देश के कई भागों से प्राप्त हुए हैं। तो दूसरी ओर सुन्नी समुदाय द्वारा बारावफात के अवसर पर निकाले जाने वाले जुलूस-ए-मोहम्मदी अथवा जुलूस-ए-मदह-ए-सहाबा का शिया समुदाय के लोगों द्वारा स्वागत किया गया।
शिया-सुन्नी दंगों का शहर लखनऊ तो गत् दिनों बारावफात के जुलूस के अवसर पर उस समय एकता व शांति के लिए एक इतिहास रचने में सफल रहा, जबकि बालागंज क्षेत्र से सुन्नी समुदाय द्वारा निकाले जाने वाले जुलूस का स्वागत केवल सैकड़ों शिया युवकों द्वारा ही नहीं किया गया बल्कि इसमें कई शिया विद्वान व धर्मगुरु भी शामिल हुए। शिया समुदाय के लोगों ने इस अवसर पर छबील लगाकर भी अपने सुन्नी भाईयों का इस्तेक़बाल किया। शिया व सुन्नी समुदाय के लोगों ने ही नहीं बल्कि कई जगहों पर हिंदू धर्मावलंबियों ने भी ईद-ए-मिलाद-उल नबी के इस जुलूस पर पुष्प वर्षा की तथा इसका स्वागत किया। शिया व सुन्नी समुदाय के मध्य शुरु हुए एकता के इन प्रयासों की जितनी भी प्रशंसा की जाए वह कम है। यह प्रयास राष्ट्रीय स्तर पर दोनों ही धर्मों के उदारवादी धर्मगुरुओं के नेतृत्व में पूरी सक्रियता के साथ किए जाने चाहिए। प्रत्येक मस्जिद, दरगाहों, ख़ानक़ाहों, इमामबारगाहों तथा धार्मिक समागमों में इस प्रकार के एकता प्रयासों का संदेश अपने अनुयाइयों को दिया जाना चाहिए। इतना ही नहीं बल्कि दोनों समुदायों के उग्र विचारधारा रखने वाले धर्मगुरुओं को उनके अपने समाज द्वारा बहिष्कृत किया जाना चाहिए और जिस समुदाय का जो कि धर्मगुरु अथवा तथाकथित विद्वान इन दो समुदायों के मध्य नफरत फैलाने या फासला बढ़ाने जैसे प्रयास करे तो यह समझ लेना चाहिए कि यह व्यक्ति इस्लाम की एकता का ही दुश्मन नहीं बल्कि मानवता व भाईचारे का भी विरोधी है।
इस्लाम धर्म इस समय पूरे विश्व में अपमान व बदनामी का सामना कर रहा है। निश्चित रूप से इसके लिए जहां कुछ विदेशी ताकतें अपने दुष्प्रचार के द्वारा इसे बदनाम कर रही हैं, वहीं स्वयं को मुसलमान कहने वाली कुछ शक्तियां भी इस्लाम को कट्टरपंथी धर्म के रूप में प्रचारित कर इस्लाम को कलंकित करने का काम कर रही हैं। ऐसी ही शक्तियां लड़कियों को शिक्षा से दूर रखना चाहती हैं। पोलियो जैसी भयानक बीमारी को समाप्त किए जाने के विरुद्ध हैं, मासूम व गरीब बच्चों को पैसों व जन्नत की लालच देकर उन्हें आत्मघाती हमलावर बनने के लिए प्रोत्साहित करती हैं, दूसरे धर्मों व समुदायों के विश्वास की खिल्लियां उड़ाती हैं। यह शक्तियां ज़ोर-ज़बरदस्ती के साथ इस्लाम धर्म का विस्तार करना चाहती हैं तथा धर्म की आड़ में व धर्म के नाम पर लोगों को वरगला कर सत्ता का खेल खेलना चाहती हैं। दरअसल, यही शक्तियां आतंकवादी शक्तियां हैं और इस्लाम धर्म पर सबसे बड़ा काला धब्बा साबित हो रही हैं। और इसी विचारधारा के लोग पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान, इराक तथा सीरिया जैसे देशों में आतंक का पर्याय बने बैठे हैं। यही ताकतें मस्जिदों में नमाजि़यों को मार रही हैं, जुलूसों में सामूहिक हत्याएं कर रही हैं, दरगाहों व स्कूलों को ध्वस्त कर रही हैं। और तो और महिलाओं व बच्चों की हत्याएं करवा रही हैं तथा अपने-अपने देश में अल्पसंख्यकों पर ज़ुल्म ढा रही हैं।
आशा की जानी चाहिए कि लखनऊ से बुलंद होने वाली शिया-सुन्नी एकता की यह ऐतिहासिक गूंज केवल भारत को ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में शिया-सुन्नी की एकता के प्रयासों को एक नई दिशा देगी और शिया-सुन्नी एकता के पक्ष में उठाए गए यह कदम इस्लामी आतंकवाद के कलंक को मिटाने में भी सहायक साबित होंगे।
आपने जाफरी साहिब बेहतरीन लेख लिखा है लेकिन आतंकवाद का मुद्दा इतना आसान नही है जितना शिया सुन्नी एकता. मुस्लिमो का कटटर सोच वाला मुट्ठीभर तबक़ा जिस तरेह से पूरी दुनिया में दhशतगर्दी फैला रहा है वेह किसी दलील या प्यार से समझाने से बाज़ आनेवाला नही है और सरकारें उनको सेना के बल पर खत्म नही करना चाहती साथ ही मुस्लिम जनता एक बड़ा वर्ग भी उनके पक्ष में है जो खुलकर भले ही न बोलता हो . इसलिए आतंकवाद को खत्म करने के लिए शिक्षा और विकास ही एक रास्ता बचता है जिसको आने में अभी ५० से १०० साल और लग सकते हैं.