राजनीति

सिर्फ बयानबाजी से दूर नहीं होगी कश्मीर समस्या

-रामदास सोनी

कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने गत दिनों अपने एक बयान में कश्मीर घाटी की विस्फोटक स्थिति के बारें में राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला द्वारा किए जा रहे प्रयासों का समर्थन करते हुए कहा कि स्थिति को संभालने के लिए उमर को आज समर्थन और सहयोग की दरकार है, कश्मीर की समस्या फुल टाईम समस्या है। अपने मीडिया प्रबंधकों द्वारा प्रायोजित बयान को देश के सामने मीडिया के माध्यम से रखने वाले गांधी-नेहरू खानदान के चिराग राहुल बाबा के बयान में समस्या का वास्तविक कारण, समाधान सब कुछ गायब रहा जिससे देशवासियों को कोई हैरत नहीं हुई क्योंकि जो समस्या स्वयं कांग्रेस एवं नेहरू-गांधी परिवार की देन है उस पर राहुल बाबा अगर साफगोई से कुछ कहते तो शायद यह उनके परिवार की गरिमा के प्रतिकूल होता। प्रश्न यह उठता है कि कांग्रेस के युवराज को आखिर समस्या की सही जानकारी भी है या नहीं?

भारत संविधान के अनुसार एक पंथ निरेपक्ष प्रजातंत्र है। जिसका अर्थ है सरकार सभी मतो- सम्प्रदायों को समान मानेगी किसी भी मत-सम्प्रदाय को विशेष महत्व नहीं देगी। यह भारतीय संविधान का सैद्धांतिक पक्ष है किंतु व्यवहार में 1947 से लेकर आज तक इस पंथ निरपेक्षता को लेकर मुस्लिम तुष्टिकरण का खेल खेला जा रहा है। हिन्दुओं ने अपनी सहिष्णुता के कारण मुस्लिम और इसाई तुष्टिकरण की इस राजनीति का कोई खास विरोध नहीं किया अतः हिन्दु समाज की उपेक्षा लगातार जारी है। इसी तुष्टिकरण के दुष्परिणाम के रूप में आज कश्मीर समस्या अपना भयानक रूप लेकर हमारे सामने खड़ी है जिसके समाधान का रास्ता देश के सत्ताधीशों को नहीं सूझ रहा है।

कश्मीर का दर्द आज से 600 साल पूर्व प्रारंभ हुआ था, जब सुल्तान सिकंदर ने कश्मीर पर आक्रमण करके कत्ले-आम मचाया था। उसने वहां रहने वाले लोगो को आदेश दिया था- अगर कश्मीर में रहना है तो मुसलमान होकर रहना पड़ेगा, नहीं तो मरना होगा या कश्मीर छोड़कर भागना होगा यानि सीधे शब्दों में कहे तो तीन में से एक चीज को चुनो – इस्लाम, मौत या पलायन। वही परम्परा कश्मीर में आज भी चल रही है। जो लोग अपना धर्म छोड़कर मुसलमान बन गए उन्होने हिन्दुओं पर भीषण अत्याचार प्रारंभ कर दिए। आर्य समाज की प्रेरणा से कश्मीर के मुसलमानों को हिन्दु धर्म में लाने का प्रयास भी हुआ, कश्मीर के तात्कालीन नरेश रणजीत सिंह भी इससे सहमत थे किंतु पण्डितों द्वारा मुसलमानों का परावर्तन करने से इंकार करने के कारण यह कोशिश फलीभूत नहीं हो सकी।

देश के बंटवारे के घाव कश्मीर की जनता को भी सहने पड़े। विभाजन के समय कश्मीर में महाराजा हरिसिंह सत्ता पर काबिज थे, आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक परम पूज्य माधव सदाशिव राव गोळवलकर उपाख्य श्रीगुरूजी द्वारा जम्मू-कश्मीर के महाराजा से की गई मंत्रणा के फलस्वरूप महाराजा ने अपनी रियासत का भारत में विलय कराने पर सिद्धांततः सहमति दी। जिस समय महाराजा द्वारा विलय पर सहमति प्रदान की गई उसी समय पाकिस्तानी कबायलियों द्वारा जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण किया गया ताकि सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस रियासत को पाकिस्तान में मिलाया जा सके, इस आक्रमण को तात्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा कतई गंभीरता से नहीं लिया गया। पंडित नेहरू ने अपनी अंग्रेजप्रियता और मुस्लिमपरस्ती से कश्मीर के राजा के बिना शर्त विलय प्रस्ताव को स्वीकृत करने में अनावश्यक विलम्‍ब किया जिस कारण जम्मू-कश्मीर का लगभग 78,000 वर्ग किमी क्षेत्र पाकिस्तानी कबायलियों के कब्जे में चला गया। यह तो तात्कालीन आरएसएस प्रमुख श्रीगंरूजी के व्यक्तित्व व संगठन कौशल्य का ही प्रभाव था कि जब तक तात्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार पटेल द्वारा जम्मू-कश्मीर में सेना भेजी गई तब तक संघ के स्वयंसेवकों द्वारा शत्रु सेना से लोहा लेने के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर की हवाई पट्टियों को भी तक अपने कब्जे में रखा गया। संघ के कार्यकर्ताओं के आत्मोत्सर्ग व भारतीय सेना के शौर्य के कारण कश्मीर का वर्तमान भू-भाग तो हमारे पास रह गया किंतु जो भू-भाग पाकिस्तान के कब्जे में चला गया उसे सैन्यबल से प्राप्त करने की बजाए देश के प्रधानमंत्री नेहरू उसे संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए जिस कारण भारत की भूमि ही पूरी दुनिया की नजर में विवादित प्रकरण बनकर रह गई।

26 अक्टूबर 1947 को कश्मीर के भारत में विलय के साथ ही वहां के अलगाववादी तत्वों ने आजादी और पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाने शुरू कर दिए थे। जिस कारण तात्कालीन केन्द्र सरकार ने प्रधानमंत्री के दबाब में आकर राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देते हुए राज्य में धारा 370 लागू कर दी जिसका अभिप्राय है कि भारतीय संविधान की धारा 1 व 370 को छोड़कर अन्य कोई धारा कोई भी कानून राज्य में लागू नहीं होगा, राज्‍य के पृथक संविधान को मान्यता की मूक स्वीकूति मिली, धारा 370 के कारण जम्मू-कश्मीर के नागरिक भारत के नागरिक है किंतु भारत के अन्य राज्यों के नागरिक जम्मू-कश्मीर के नागरिक नहीं हो सकते, अन्य राज्यों की भांति भारतीय नागरिकों को राज्य में स्थायी निवास करने, जायदाद खरीदने से भी यह धारा वंचित करती है। अगर किसी भी भारतीय नागरिक को राज्य का प्रथम नागरिक अर्थात राज्यपाल भी मनोनीत कर दिया जाये तो भी वह राज्य में मतदान तक करने का अधिकारी नहीं है। इस धारा के कारण राज्य को देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा विशेष दर्जा दिया गया जिसकी आड़ में मुस्लिम बहुल यह राज्य इस धारा का दुरूपयोग करते हुए केन्द्र सरकार पर दबाब बनाने के साथ-साथ अब तक देश का सवा दो लाख करोड़ रूपया ले चुका है। इसमें भी एक दूसरा पहलू है कि केन्द्र से प्राप्त पूरा धन मात्र घाटी में ही लगाया जा रहा है किंतु फिर भी कोई सार्थक परिणाम आज तक सामने नहीं आया है। 1989-90 में मुस्लिम अलगाववादियों से परेशान होकर 3 लाख से अधिक कश्मीरी पण्डित घाटी छोड़कर भारत की सड़कों पर शरणार्थी के रूप में जीवन बसर कर रहे है। इनके पुनर्वास के लिए भारत सरकार के पास कोई योजना नहीं है।

आज स्थिति इतनी भयावह है कि जम्मू-कश्मीर मात्र सेना के बल पर ही भारत का है। वोटो की राजनीति के चलते और मुस्लिम अलगावादियों के दबाब में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर साहब केन्द्र सरकार से घाटी के अशांत क्षेत्र में सेना के विशेषाधिकार कम करने की बात कह रहे है। पिछले कुछ समय में वहां से 30 हजार सैनिक हटा लिए गए है, जिससे पाकपरस्त तत्वों का हौंसला बढ़ा ही है। वर्तमान में केन्द्र सरकार उग्रवाद से प्रभावित क्षेत्रों में सेना को विशेषाधिकार देने वाले आर्म्ड फोर्सेज स्पैशल पावर एक्ट में संशोधन का विफल प्रयास कर चुकी है। अब गेंद केन्द्र सरकार के पाले में है किंतु जिस प्रकार से केन्द्र सरकार व कांग्रेस  पदाधिकारियों के बयान आ रहे है उससे लगता है कि कही देश को चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जे के समय पण्डित नेहरू द्वारा की गई टिप्पणी पुनः न सुननी पड़े कि जिस जमीन पर घास का तिनका भी पैदा नहीं होता उसके लिए खून बहाने की क्या जरूरत है? कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी द्वारा इसे फुल टाइम समस्या बताने से क्या ऐसा संकेत नहीं मिलता है?