-अशोक “प्रवृद्ध”
पौराणिक व लौकिक मान्यतानुसार वर्तमान में आश्विन कृष्ण पक्ष में पितरों के उद्देश्य से विशेष रूप से पिंडदान किये जाने और ब्राह्मण भोजन कराये जाने की परिपाटी है। वस्तुतः यह श्राद्ध कर्म भाद्रमास की पूर्णिमा से शुरू होकर आश्विन मास की अमावस्या के दिन समाप्त होता है। भाद्रपद की पूर्णिमा और अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को पितृपक्ष अथवा श्राद्ध पक्ष कहते हैं। पितृपक्ष के दौरान पितरों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की जाती है। पौराणिक मान्यतानुसार पितरों की पूजा करने से मनुष्य को आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशुधन, सुख, धन और धान्य की प्राप्ति होती है। देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्त्व है। देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है। लेकिन वैदिक व्यवस्था में ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, अतिथि यज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ और पितृयज्ञ- इन पांच प्रकार के यज्ञों का विधान करते हुए इन पांच यज्ञों को प्रत्येक गृहस्थियों को प्रतिदिन करने के लिए कहा गया है। इन पांच प्रकार के यज्ञों को पंच महायज्ञ कहा गया है। वैदिक मतानुसार जीवित माता, पिता, आचार्य, गुरु, सास, ससुर बड़े भाई संबंधी आदि का सत्कार और सेवा करना, पितृ यज्ञ कहलाता है। लेकिन वर्तमान में प्रचलित पितृ पक्ष में अपने मृत पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण निकालना आदि कर्म कांड वेद विरुद्ध हैं। वेद के अनुसार मृत्यु के पश्चात जीव की दो गतियां हैं- पुनर्जन्म और मोक्ष प्राप्ति। ईश्वर के न्यायानुसार कुछ ही समय में पुनर्जन्म और मोक्ष प्राप्ति अर्थात उत्तम कर्म वाले जीव दुःख, जन्म- मरण से मुक्ति पाकर परमात्मा में स्थित हो दीर्घ समय तक परमात्मा के आनंद में रहते हैं। इस प्रकार जीव के पुनर्जन्म हो जाने अथवा मोक्ष पा लेने के बाद की स्थिति में श्राद्ध, तर्पण आदि कर्मकांड व्यर्थ सिद्ध होता है। वैदिक मत में पितृयज्ञ के दो भेद हैं- श्राद्ध और तर्पण। श्राद्ध अर्थात श्रत् सत्य का नाम है- श्रत्सत्यं दधाति यया क्रियया सा श्रद्धा श्रद्धया यत्क्रियते तच्छ्राद्धम्। अर्थात- जिस क्रिया से सत्य का ग्रहण किया जाय उसको श्रद्धा और जो श्रद्धा से कर्म किया जाय उसका नाम श्राद्ध है।
तर्पण शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है- तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितॄन् तत्तर्पणम् अर्थात- जिस-जिस कर्म से तृप्त अर्थात विद्यमान माता -पितादि पितर प्रसन्न हों और प्रसन्न किये जायें उस का नाम तर्पण है। परन्तु यह जीवितों के लिए है, मृतकों के लिए नहीं। जन्म देने वाले और अनेक कष्ट सहकर पालन- पोषण करने वाले माता-पिता को वृद्धावस्था में अकेला नहीं छोड़ना चाहिए। उनका श्राद्ध और तर्पण अवश्य करना चाहिए, उनकी सेवा करना चाहिए। उन्हें दुःख नहीं देना चाहिए। ये प्रत्येक सन्तान का कर्त्तव्य भी है और धर्म भी है।
श्राद्ध का अर्थ है सत्य का धारण करना अथवा जिसको श्रद्धा से धारण किया जाए। श्रद्धापूर्वक मन में प्रतिष्ठा रखकर, विद्वान, अतिथि, माता-पिता, आचार्य आदि की सेवा करने का नाम श्राद्ध है । इस प्रकार यह सिद्ध है कि श्राद्ध जीवित माता-पिता,आचार्य ,गुरु आदि पुरूषों का ही हो सकता है, मृतकों का नहीं। मृतकों के श्राद्ध के बारे में सिर्फ पौराणिक ग्रन्थों में ही वर्णन प्राप्त है। वैदिक ग्रन्थों में तो मृतक श्राद्ध का नाम भी कहीं अंकित नहीं है। वेद में तो बड़े स्पष्ट शब्दों में माता-पिता,गुरु और बड़ों की सेवा का आदेश दिया गया है-
अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः । -अथर्ववेद 3- 30-2
अर्थात-पुत्र पिता के अनुकूल कर्म करने वाला और माता के साथ उत्तम मन से व्यवहार करने वाला हो।
किसी भी वेद में मृतक श्राद्ध, दान अथवा दान से मृतक की गति के सम्बन्ध में कोई वर्णन नहीं है। इस प्रकार का विधान अथवा वर्णन किसी वेदमंत्र में नहीं है। वेद मत में श्राद्ध जीवितों का ही हो सकता है, मृतकों का नहीं। पितर संज्ञा भी जीवितों की ही होती है, मृतकों की नहीं। पितर शब्द पा रक्षेण धातु से बनता है। अतः पितर का अर्थ पालक, पोषक, रक्षक तथा पिता होता है। जीवित माता-पिता ही रक्षण और पालन-पोषण कर सकते है, मृत दूसरों की रक्षा तो क्या करेगा उससे तो अपनी रक्षा भी नहीं हो सकती। इसलिए मृतकों को पितर मानना मिथ्या तथा भ्रममूलक है। वेद, रामायण, महाभारत, गीता, पुराण, ब्राह्मण ग्रन्थ तथा मनुस्मृति आदि ग्रन्थों के समीचीन अध्ययन से यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि पितर संज्ञा जीवितों की है मृतकों की नहीं । यजुर्वेद का वचन है-
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु ।
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु ते अवन्त्वस्मान । । -यजुर्वेद 19-57
अर्थात- हमारे द्वारा बुलाये जाने पर सोमरस का पान करनेवाले पितर प्रीति कारक यज्ञों तथा हमारे कोशों में आयें। पितर लोग हमारे वचनों को सुने, हमें उपदेश दें तथा हमारी रक्षा करें ।
इस मन्त्र में महीधर तथा उव्वट ने इस बात को स्वीकार किया है कि पितर जीवित होते है, मृतक नहीं, क्योंकि मृतक न आ सकते हैं, न सुन सकते हैं, न उपदेश कर सकते हैं और न रक्षा कर सकते हैं। अथर्ववेद में कहा गया है-
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येदं नो हविरभि गृणन्तु विश्वे । । -अथर्ववेद 18-1- 52
अर्थात- हे पितरों ! आप घुटने टेक कर और दाहिनी ओर बैठ कर हमारे इस अन्न को ग्रहण करें।
इस मंत्र का अर्थ करते हुए सायण, महीधर आदि विद्वान सब घुटने झुककर वेदी के दक्षिण ओर बैठना बता रहे हैं। मुर्दों के तो घुटने होते ही नहीं। इससे स्पष्ट है कि जीवित प्राणियों की ही पितर संज्ञा है। वाल्मीकि रामायण 18/13 के अनुसार धर्म -पथ पर चलने वाला बड़ा भाई, पिता और विद्या देने वाला – इन तीनों को पितर जानने चाहिए-
ज्येष्ठो भ्राता पिता वापि यश्च विद्यां प्रयच्छति ।।
-वाल्मीकि रामायण 18/13
चाणक्य नीति 5/22 के अनुसार विद्या देनेवाला, अन्न देनेवाला, भय से रक्षा करने वाला, जन्मदाता -ये मनुष्यों के पितर कहलाते हैं। श्वेताश्वेतारोपनिषद 5/10 के अनुसार यह आत्मा न स्त्री है, न पुरुष है न ही यह नपुंसक है, किन्तु जिस-जिस शरीर को ग्रहण करता है, उस -उस से लक्षित किया जाता है। मरने के बाद इसकी पितर संज्ञा कैसे हो सकती है ? दुर्जनतोषन्याय वश भी मृतक श्राद्ध को स्वीकार कर लिए जाने पर भी इससे अनेक दोष होने की सम्भावना होगी। प्रथम दोष कृतहानि अर्थात कर्म कोई करे और फल किसी और को मिलने का होगा। परिश्रम कोई करे और फल किसी और को मिले। दान पुत्र करे और फल माता-पिता को मिले तो कृत हानि दोष आएगा। द्वितीय दोष अकृताभ्यागम अर्थात कर्म किया नहीं और फल प्राप्त हो जाए का होगा। मनुष्य के न्याय में तो ऐसा हो सकता है कि कर्म कोई करे और फल किसी और को मिल जाए, परन्तु परमात्मा के न्याय में ऐसा नहीं हो सकता।
पौराणिक मान्यतानुसार फल को अर्पण करने के कारण दूसरे को मिल जाता है, परन्तु यह बात ठीक नहीं। पुत्र के किसी व्यक्ति को मारकर उसका फल पिता को अर्पण कर देने से क्या पिता को फांसी हो जायेगी? यदि ऐसा होने लग जाए तब तो लोग पाप का संकल्प भी पौराणिक पंडितों को ही कर दिया करेंगे। इन दोषों के के कारण भी मृतक श्राद्ध सिद्ध नहीं होता। इस प्रकार यह स्पष्ट सिद्ध है कि श्राद्ध जीवित माता -पिता का ही हो सकता है। महर्षि दयानंद सरस्वती ने भी वैदिक सिद्धांत को ही अटल सिद्धांत मानकर कहा है कि मृतक श्राद्ध अवैदिक और अशास्त्रीय है। यह तर्क से सिद्ध नहीं होता। यह स्वार्थी, टकापंथी और पौराणिकों का मायाजाल है।