यह मुर्दों की बस्ती है

jivanव्यर्थ यहाँ क्यों बिगुल बजाते, यह मुर्दों की बस्ती है

कौवे आते, राग सुनाते. यह मुर्दों की बस्ती है

 

यूँ भी शेर बचे हैं कितने, बचे हुए बीमार अभी

राजा गीदड़ देश चलाते, यह मुर्दों की बस्ती है

 

गिद्धों की अब निकल पड़ी है, वे दरबार सजाते हैं

बिना रोक वे धूम मचाते, यह मुर्दों की बस्ती है

 

साँप, नेवले की गलबाँही, देख सभी हैं अचरज में

अब भैंसे भी बीन बजाते, यह मुर्दों की बस्ती है

 

दाने लूट लिए चूहे सब समाचार पढ़कर रोते

बेजुबान पर दोष लगाते, यह मुर्दों की बस्ती है

 

सभी चीटियाँ बिखर गयीं हैं, अलग अलग अब टोली में

बाकी सब जिसको भरमाते, यह मुर्दों की बस्ती है

 

हैं सफेद अब सारे हाथी, बगुले काले सभी हुए

बचे हुए को सुमन जगाते, यह मुर्दों की बस्ती है

 

2 COMMENTS

  1. विकट समस्या है देश की.लगता है लोकतंत्र पंगु हो गया है. कुछ लोगों ने उसका अपहरण ही कर लिया है.सब को सजग करती सुन्दर कविता.

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