
जागरण जो भी रहे, जग बगिया,
पुष्प जो भी थे खिले, मन डलिया;
जन्मीं जो भी थीं रहीं, सुर कलियाँ;
उर में जो भी थीं रमीं, स्वर ध्वनियाँ!
प्रणेता रचयिता स्वयंभू थे,
स्वयंवर रचे स्वयं वे ही थे;
वेग संवेग त्वरण वे ही दिए,
डाँटे डपटे कभी थे वे ही किए!
राग रंग हमारे वे देखा किए,
फाग हर मुस्कराए वे थे रहे;
प्रगति की बागडोर पकड़ाए,
प्रकृति को चेरी बना नचवाए!
चेतना यातना दे दिलवाए,
ज्योति की कोर वे नज़र आए;
प्रेयसी बन के प्रेम सिखलाए,
श्रेय औ प्रेय भेद बतलाए!
किए प्रस्तुति वे बिना स्तुतियाँ,
डाल वे कभी मिले गलबहिंयाँ;
‘मधु’ के प्रभु की थीं अजब बतियाँ,
आवरण हटाए वे हर रतिया!
✍? गोपाल बघेल ‘मधु’