जीवन की सफलता के लिए मन व इन्द्रियों पर नियंत्रण आवश्यक

0
651

मनमोहन कुमार आर्य

दर्शन ग्रन्थों में कहा गया है कि ‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः’ अर्थात् मनुष्य का मन ही जीवात्मा के बन्धन और मोक्ष का कारण है। बन्धन का अर्थ जन्म व मरण के चक्र फंसना व इसके कारण होने वाले दुःख होते हैं। इन बन्धनों से मुक्ति मन को वश में करने व उसे ईश्वर व आत्मा में स्थिर कर वेदानुकूल व ज्ञानयुक्त कर्म करने से होती है। यह बात शास्त्रों में वर्णित है। कुछ ज्ञानी मनुष्य भी इसे जानते हैं परन्तु प्रायः सभी का व्यवहार इन शिक्षाओं के विपरीत ही होता है। मनुष्य जीवन में ज्ञान प्राप्ति के साधन स्वाध्याय व सच्चे निस्वार्थ भाव रखने वाले विद्वानों के उपदेशों का श्रवण हैं। इन साधनों से अर्जित ज्ञान का मनन व चिन्तन उस ज्ञान को परिपक्व व स्थिरता प्रदान करता है और वह हमारे कर्म व आचरण में स्थान पाते हैं। एक मुख्य बात यह समझने की है कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो ईश्वर से सृष्टि की आदि में चार ऋषियों को प्राप्त हुआ था। उन ऋषियों ने ईश्वर की प्रेरणा से ब्रह्मा जी को वह ज्ञान दिया और ऋषियों ने वेदों का प्रचार प्रसार किया। यह प्रक्रिया सृष्टि के आरम्भ से चल रही है। इस प्रकार से संसार के सभी साहित्य का आधार वेद हैं। वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। वेद स्वतः प्रमाण है। जिस प्रकार से सूर्य के प्रकाश से हम सूर्य व संसार के सभी पदार्थों को देख पाते हैं इसी प्रकार से वेद के ज्ञान से हम वेद की मान्यताओं सहित संसार के सभी ग्रन्थों की सत्य व असत्य बातों को जान पाते हैं। सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग हमारा कर्तव्य है, यह भी वेदाध्ययन से हमें ज्ञात होता है। धर्म कर्तव्यों को कहते हैं और वेदाध्ययन कर वेदानुकूल मान्यताओं का आचरण व व्यवहार धर्म कहलाता है, इसके विपरीत व्यवहार अधर्म व पाप कहलाते हैं।

 

मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं। इस विषयक श्लोक है ‘धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रयनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।’ मनु महाराज ने इस श्लोक में धर्म के दस लक्षणों में दम व इन्द्रिय निग्रह को भी महत्वपूर्ण मानकर इनका विधान किया है। दम मन को सदा धर्म में प्रवृत्त कर अधर्म से रोक देने अर्थात् मन में अधर्म करने की इच्छा भी उत्पन्न न हो, मन की उस स्थिति को ‘दम’ कहते हैं। श्लोक में इन्द्रिय निग्रह शब्द भी आयें हैं। इनका अर्थ भी यही है कि सभी इन्द्रियों को अधर्माचरणों से रोक कर धर्म में ही सदा चलाना। यही परमात्मा हमसे अपेक्षा करते हैं। इसका कारण यह है कि सृष्टि में मनुष्य आदि सभी प्राणी ईश्वर की सन्तानें हैं। ईश्वर ने यह सृष्टि सभी प्राणियों के सुख व पुण्य व पाप कर्मों के फलों के भोग के लिए बनाई है। मनुष्यों को स्वतन्त्रतापूर्वक कर्म करने की छूट भी परमात्मा ने दी है। वेद को जानने व मानने से इस नियम व व्यवस्था का अच्छी प्रकार से पालन होता है। इसके विपरीत व्यवहार करने से ईश्वर की व्यवस्था में बाधा आती है जिस कारण ईश्वर उसकी व्यवस्था में बाधा पहुंचाने वालों को भविष्य व भावी अनेक जीवनों में दण्ड देता है। अतः ईश्वर व ईश्वर के जानने वाले, उस पर विश्वास करने, उसकी आज्ञा का पालन करने वाले ऋषियों व वेद ज्ञानियों के सत्य कर्मों को ही हमें अपनाना चाहिये जिससे हम दुःखों से दूर रहकर सुखों का भोग कर सकें।

 

मन को वश में रखकर उसे धर्म में युक्त व स्थिर करने से और इन्द्रियों को विषयों का सेवन न्यूनातिन्यून, आवश्यकता से अधिक नहीं, करने से हमें ही इसका लाभ होता है। मन धर्म में लगेगा तो हम अधर्म नहीं करेंगे और अधर्म से होने वाले दुःखादि परिणामों से बच सकते हैं। धर्म में रमण करने और अधर्म से दूर रहने से हमारा शरीर भी निरोग, स्वस्थ व दीर्घजीवी बनता है। स्वस्थ रहने का एक नियम है कि हम मितभोजी हों अर्थात् कम मात्रा में हितकारी वस्तुओं का ही भोजन करें। स्वस्थ रहने का दूसरा साधन है कि हम शुद्ध वायु व जल का सेवन करें। यह शुद्ध वायु व जल हमें देवयज्ञ अग्निहोत्र करने से मिलता है। तीसरा साधन स्वस्थ व सुखी रहने का यह है कि हम सभी ऋणों से मुक्त हो कर जीवन व्यतीत करें। हम पर ईश्वर, ऋषि, माता-पिता, आचार्यों, इस भूमि माता सहित गोमाता आदि का भी ऋण होता है। इस ऋण को हमें चुकाना अर्थात् उसका भुगतान करना होता है। ज्ञानी व्यक्ति ही इस बात को समझ सकते हैं। ईश्वर का ऋण सन्ध्या व ईश्वर की स्तुति के मन्त्रों, गीतों व भजनों को गाकर चुकाया जाता है। योगाभ्यास रीति से उपासना भी इसमें सम्मिलित है। सृष्टि में परम्परा से वेद व वेदानुकूल शास्त्रों सहित अन्य ज्ञान चला आ रहा है। अतः हम पूर्व के सभी ऋषियों व पूर्वजों जिन्होंने ज्ञान को प्राप्त कर सुरक्षित किया अर्थात् उसका दूसरों में प्रचार किया, जिससे हम इस जीवन में किसी प्रकार से लाभान्वित होते हैं, ऋणी है। उनका ऋण भी हम उस ज्ञान का अध्ययन कर उसे आगे प्रचारित व प्रसारित करके कर सकते हैं। माता-पिता ने हमें जन्म दिया व पालन किया है। इस कारण माता-पिता का भी उनकी सन्तानों पर ऋण होता है। उनकी आज्ञाओं का पालन, सेवा व सत्कार तथा उन्हें भोजन व वस्त्र सहित मीठे वचनों से सन्तुष्ट कर हम उनके ऋणों से भी उऋण हो सकते हैं। इसी प्रकार से आचार्यों का ऋण, भूमि, गोमाता व अन्य पशु-पक्षी, कृषकों, श्रमिकों आदि अनेकानेक मनुष्यों का भी ऋण होता है। अतः हमें सबका ऋण चुकाने के लिए वेदानुकूल त्यागमय जीवन व्यतीत करना ही उचित सिद्ध होता है। यही वेदाज्ञा भी है। इनसे जुड़े कर्तव्यों के पालन का नाम ही धर्म है। इनको जानना ही ज्ञान है और ज्ञान के अनुसार जीवन व्यतीत करना ही जीवन की उन्नति व धर्म पालन है।

 

मन व इन्द्रियों को वश में करने से मनुष्य निरोग, स्वस्थ व दीर्घजीवी होने के साथ शरीर व इन्द्रियों की कार्य क्षमता की दृष्टि से भी सुखी होता है। ऐसा होने पर वह अधिक शुभ व कल्याणकारी कर्मों को कर सकता है। जितने अधिक शुभ कर्म हम करेंगे उतना ही उन्नति को प्राप्त करेंगे और हमारे जन्म व मरण के जो बन्धन है वह ढीले होकर मोक्ष व मुक्ति में सहायक होंगे। हमारा हृदय आत्मा व परमात्मा का निवास स्थान है। इसमें यह दो सत्तायें रहती हैं। परमात्मा सभी दुर्गुणों व दुव्यस्नों से रहित शुद्ध व पवित्र है। जीवात्मा भी वैसा बनेगा तो उसे परमात्मा का वरदान व आशीर्वाद प्राप्त होगा और विपरीत गुण, कर्म व स्वभाव हांगे तो वह दण्ड का भागी होगा। आज संसार में धर्म व सद्कर्म बहुत कम हो गये हैं। इसी कारण निर्धन हो या धनी, अज्ञानी हो या ज्ञानी, इन्द्रियों के अधिक सुखोपभोग के कारण दुःखी व रोगी है और अल्पजीवी बन गये हैं व बन रहे हैं। ऋषि दयानन्द जी के विचारों को पढ़कर प्रतीत होता है कि वैदिक काल में सभी लोग यज्ञ करते थे जिसके प्रभाव से वायु, जल व अन्नादि पदार्थ शुद्ध होने से लोग रोग रहित, सुखी व दीर्घजीवी होते थे। आज की सभी समस्याओं का प्रमुख कारण वेद विरुद्ध आचरण, ईश्वरोपासना व यज्ञ आदि न करना ही प्रतीत होता है। इसी कारण हम मोक्ष की ओर बढ़ने की अपेक्षा बन्धन व दुःखों की ओर बढ़ रहे हैं। इन सभी विषयों पर हमें विचार करना चाहिये और इसके लिए आर्ष ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिये।

 

जीवन को सफल व सुखी बनाने के लिए हमें वेदानुकूल आचरण और मन सहित सभी इन्द्रियों को वश में रखने का उपाय करना होगा। यही शास्त्र सम्मत होने के साथ तर्क व युक्तियों से भी सिद्ध है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress