पत्रकारिता के कुमार गंधर्व थे जोशीजी – अजीत कुमार

1
268

prabhashमुझसे मेरे मित्र ने कहा कि अजीत प्रभाष जी पर कुछ लिख दो। लेकिन उसके कहने के तकरीबन 12 घंटे बीत जाने के बाद भी मैं इस उधेडबुन में हूं कि आखिर लिखूं तो क्या लिखूं। कारण प्रभाष जी को याद करते ही एक साथ उनकी अनेकों छवियां उभरने लगती है। तकरीबन पिछले 15 सालों से लगातार जनसत्ता पढ रहा हूं। चाहे पटना में रहा, भोपाल में या अभी दिल्ली में जनसत्ता का साथ कभी नहीं छूटा। पत्रकारिता के कूचे से निकलकर ब्रोकरेज फर्म में पहुंचने के बाद भी जनसत्ता और द हिन्दू को ही पढकर अपनी राजनीतिक, सामाजिक साहित्यिक और सांस्कृतिक सजगता को जिंदा रखने की कोशिश कर रहा हूं।

प्रश्न फिर वहीं है कि आखिर प्रभाष जी पर कहां से शुरू करूँ । प्रभाष जी को याद करने पर एक ही साथ गांधी, जयप्रकाश, लोहिया, सी के नायडू विजय मर्चेंट, मुश्ताक अली, कुमार गंधर्व, कबीर सब याद आने लगते हैं। कोई भी भी खास नजरिया प्रभाष जी के लिए अपर्याप्त और अपनी तंगियत का अहसास कराने लगता है। आखिर क्यूं न अपनी तंगियत का अहसास कराए। पांच दशकों की अपनी इस यात्रा में लगातार विकल्प, विरोध और संघर्ष का जो रास्ता उन्होंने अख्तियार किया। प्रभाष जी उन लोगों में नहीं थे जो मंचों पर विकल्प, विरोध और संघर्ष की बातें तो खूब करते हैं लोगों से इन सब पर अमल की अपेक्षा भी रखते हैं लेकिन निजी जिंदगी में ठीक इसके उलट करते हैं। इन मामलों में प्रभाष जी बिल्कुल गांधी और कबीर निकले, जो भी रास्ता अच्छा लगा अकेले उस पर चल पडे।

कबीरा खडा बजार में लिये लुकाठी हाथ जो घर जारै आपनो चलै हमारे साथ।

शायद ही पत्रकारिता के इस युग में ऐसा कोई नाम रहा हो जिसने एक ही साथ राजनीति, खेल, कला, साहित्य और सामाजिक मामलों में इतना हस्तक्षेप किया हो। ऐसा भी नहीं था कि प्रभाष जी का इन तमाम मुद्दों पर हस्तक्षेप सिर्फ हस्तक्षेप नाम की सत्ता को बरकरार रखने के लिए था। प्रभाष जी का हर एक हस्तक्षेप सार्थक और प्रभावकारी रहा। मुझे नहीं लगता पिछले पांच दशकों में राजनीति, क्रिकेट और कुमार गंधर्व पर प्रभाष जी जैसा असर करने वाला लेखन किसी ने किया हो। ऐसा कोई पत्रकार नजर नहीं आता जिसकी राजनीति में इतनी ज्यादा दखलंदाजी रही हो। स्वातंत्रयोत्तर भारत में हुए तमाम राजनैतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक आंदालनों में प्रभाष जी की सक्रिय भूमिका रही। खास अवसरों पर तो प्रभाष जी पत्रकार की जगह सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर नजर आए। लेकिन उनकी राजनैतिक सक्रियता का निजी स्वार्थ और अवसरवादिता से कोई लेना देना नहीं था। आखिर उनका द्ढ विश्वास था कि कि पत्रकारिता के जरिए समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना की जा सकती है। समतामूलक समाज बनाने के रास्ते पर अग्रसर हुआ जा सकता है। राजनीति को उसकी अपनी नैतिकता और धर्म का अहसास कराया जा सकता है। ऐसे समय में जब राजनैतिक धर्म, नैतिकता और शुचिता के बजाए पूरी तरह से धर्म और अवसर की राजनीति ने जगह ले लिया प्रभाष जी के बागी और विरोध के तेवर हस्तक्षेप बनकर सामने आते रहे। अपने विरोध को जताने के लिए उन्हें जो भी जिस समय ठीक लगा उन्होंने किया। विशुद्व राजनीतिक मंचों पर बगावती हुकार भरने से भी बाज नहीं आए। देश के कोने कोने में जाकर लोगों के बीच सत्ता और व्यवस्था में बदलाव का अलख भी जगाया। शब्दों के चितेरे बनकर भी अपनी बात मनवाते देखे गए। मतलब साफ जो उन्हें सही लगा उन्होंने किया। उनके देहावसान के ठीक पहले की ही बात कर लीजिए। उनका विवेक उन्हें जसवंत सिंह की जिन्ना पर लिखी पुस्तक के उर्दू तज्र्जुमें के लोकार्पण के लिए पटना तक खीच ले गया। इसके ठीक पहले आम चुनाव के दरम्यान वे दिग्विजय सिंह की बांका से उम्मीदवारी का पर्चा भराने पहुंच गए। हमारे जैसे लोगों का यह विश्वास कि पत्रकारिता साहित्य के साथ कदम से कदम मिलाकर सामाजिक सरोकारों और मानवीय मूल्यों के प्रसार का बीडा उठा सकती है प्रभाष जी जैसे पत्रकारों के होने की वजह से ही जिंदा है।

प्रभाष जी के देहावसान की खबर मिलने के बाद से लगातार मित्रों से उनकी बात हो रही है। पर हर इक बात के बाद प्रभाष जी की एक के बाद एक और नई छवि आकार लेने लगती है। कभी हूबहू कबीर जैसा बनारस की गलियों में प्रतिरोध का स्वर बुलंद करते, कभी कुमार गंधर्व के निर्गुणों सा शून्य में तैरते, कभी तेंदुलकर के बल्ले से रनों की बौछार करते, कभी जयप्रकाश के आंदोलनों में संपूर्ण क्रांति का नारा गूंजयमान करते हुए, कभी केंद्र में वी पी सिंह के नेत्त्व में गैर कांगे्रसी सरकार के गठन की जद्दोजहद में धूल फांकते, कभी सांप्रदायिकता के खिलाफ बुलंद करती असरकारी आवाजों में और भी न जाने कई और कितने रंगों और रूपों में ………………. ।

कल ही बातचीत के दौरान संदीप ने बताया कि सर जनसत्ता के रायुपर संस्करण में यह खबर छपी है कि मरने से पहले प्रभाष जी के अंतिम वाक्य थे अपन मैच हार गए, जो उन्होंने सचिन के आउट होने के ठीक बाद अपने बेटे संदीप को फोन पर कहा था। मैंने संदीप को बताया कि सगुण और निगुर्ण, चेतन और अवचेतन व जीवन और मरण दोनों अवसरों में भी जब कोई साथ नजर आए तो आप कल्पना कर सकते हो उस व्यक्ति के अटूट लगाव और रागात्मकता का। कुमार गंधर्व भी हमेशा यही कहते रहे कि निर्गुण में ही सगुण का असल अस्तित्व है। और प्रभाष जी का व्यक्तित्व भी पांच दशकों तक पत्रकारिता के आसमान में कुमार साहब के निर्गुण पदों सा तिरता रहा।ऐसे भी कुमार गंधर्व प्रभाष जी के सबसे पसंदीदा गायक थे।

प्रभाष जी के व्यक्तित्त्व पर एनडीटीवी की इस टिप्पणी कि वे गांधी, कुमार गंधर्व और सीके नायडू तीनों को मिलाकर एक छवि थे से मै पूरी तरह से सहमत हूं। हां तो मै जिक्र कर रहा था प्रभाष जी के इश्के हकीकी को। निगुर्ण और अटूट लगाव को। क्रिकेट और सचिन के साथ उनका यही लगाव अंततः उनकी मौत का कारण भी बना। मरने से पहले भी उनके जिहवा पर सचिन का ही नाम आया। आखिर उनकी जिद और पसंद उनके लिए आत्महंती आस्था साबित हुई। सचिन को लेकर प्रभाष जी की दीवानगी किस दर्जे की थी इस बात से सामने आती है। कई बार कागद कारे या एंकर स्टोरी में सचिन पर प्रभाष जी के अतिलेखन को लेकर चिढ भी होती थी। कभी कभी उनके लेखन से इस बात का अहसास तक होता था कि वे सचिन को हमेशा की तरह सही साबित करने पर तुले हुए हैं। ऐसे भी अवसर आए जब प्रभाष जी जबरदस्ती सचिन का बचाव अपने तर्कों के सहारे करते देखे गए। लेकिन आज उनके जाने के बाद इस बात का अहसास हो रहा है कि हर इंसान कुछेक मामलों में बिल्कुल आम जनों के माफिक ही होता है। प्रभाष जी के साथ भी बिल्कुल यही बात रही। वे तमाम उम्र क्रिकेट और सचिन के अन्यतम मुरीद रहे। और किसी भी मुरीद को यह गवारा नहीं होता कि कोई उसके दीवाने का सार्वजनिक तौर पर आलोचना करे। हालांकि अपन को भी उस बुराई का अहसास होता है। और शायद प्रभाष जी को भी रहा ही होगा। प्रभाष जी की आमजनों की यह छवि उनके लेखन पर भी हावी रही। हिंदी कथा साहित्य मे भाषा को लेकर जो योगदान प्रेमंचद और निर्मल वर्मा का रहा ठीक वैसा ही काम हिंदी पत्रकारिता के लिए राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी ने किया। जटिल से जटिल मुद्दों को भी प्रभाष जी पाठकों को आम जनों की भाषा में ही समझाते रहे। लेकिन आपको लोहा मानना होगा उनकी बाजीगरी की कि उन्होंने जटिल से से जटिल मुद्दों को भी उतनी ही सरलता और प्रवाह के साथ पेश किया। लेकिन जटिल मुद्दों को सरलता के साथ पेश करने के लिए उन्हें जितनी माथापच्ची करनी पडती थी, गहराईयों में जाना पडता था कितनों से संवाद स्थापित करना पडता था यह सिर्फ उन्हीं के वश की बात थी। आखिर कितनों के पास होता है व्यापक, विस्तृत सोच, लगन और यायावरी का इतना बडा जखीरा-।

1 COMMENT

Leave a Reply to randhirsinghsuman Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here