राजनीति

जेपी और जनसंघ : जनसत्ता में ‘चंचल बीएचयू’ के लेख पर असहमति

जनसत्ता के दुनिया मेरे आगे कालम में 11 अक्तूबर के अंक में छपे लेख के प्रतिवाद अथवा उस लेख के अधूरे हिस्सों को जिसे लेखक ने छुपा लिया है,को पूरा करने के लिए यह लेख लिखा गया है ! आप चंचल जी का लेख इस लिंक से पढ़िए फिर इस लेख को पढ़िए !  

शिवानन्द द्विवेदी सहर

jayapraksah_narayan_503803014जनसत्ता के ‘दुनिया मेरे आगे’ कॉलम (11 अक्टूबर ) “उन्हें जेपी कहते थे”,में चंचल जी ने जेपी को तीन हिस्सों में समझने या समझाने का प्रयास किया है ! तीन हिस्सों में जेपी को जितना या जो कुछ भी बताने का प्रयास चंचल जी द्वारा किया गया है उससे पूरी तरह असहमत नहीं हुआ जा सकता है,क्योंकि वो जेपी के जीवन से जुड़े तथ्यों और घटनाओं का सिलसिलेवार वर्णन है ! मुझे लगता है कि जेपी को तीन हिस्सों में बताने में लेखक या तो जान बूझकर एक हिस्सा छोड़ दिये हैं या चौथे हिस्से का जिक्र करना उनकी नीयत में नहीं था ! मै भी वही बात कहना चाहता हूँ जो चंचल जी चाहते हैं लेकिन मै चार हिस्सों में कहना चाहता हूँ ! चुकि तीन हिस्से तो पहले ही कहे जा चुके है जिसमे जेपी का रूसी क्रान्ति से प्रभावित होना एवं फिर गाँधी के सानिध्य में आकर सत्य और अहिंसा की प्रवृति में घुल मिल जाना फिर समाजवाद का रुख करना,इत्यादि कई तथ्य हैं !

चौथा हिस्सा अगर इस पूरे जेपी वर्णन का लिखा जाय जिसके बिना जेपी मुक्कमल नहीं होते हैं तो निश्चित तौर पर उस चौथे हिस्से में जेपी और जनसंघ के बीच का एक वैचारिक गठबंधन नजर आएगा ! नजीर वही से देना सबसे मुनासिब होगा जिसमे इंदिरा गाँधी के यह कहने पर कि जेपी का यह पूरा आंदोलन संघ चला रहा है अत: यह एक फासिस्ट आंदोलन है, जेपी ने साफ़ तौर पर कहा था “अगर आरएसएस फासीवादी संगठन है तो जेपी भी फासीवादी हैं” ! जिस संघ को कांग्रेस ने अपने खिलाफ उठे जनाक्रोश को भटकाने के लिए फासीवादी कहा था उसी संघ की एक शिविर में जेपी 1959 में जा चुके थे ! जेपी परम्परागत संघी नहीं थे मगर वो संघ को कभी अछूत भी नहीं माने ! कांग्रेस के भ्रष्टाचार और तानाशाही हुकूमत वाले रवैये के खिलाफ उठे जनाक्रोश के बाद लगाईं गयी आपातकाल के बाद जब जेपी जेल से छूटे तो उन्होंने मुम्बई में एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था “मैं आत्मसाक्ष्य के साथ कह सकता हूँ कि संघ और जनसंघ वालों के बारे में यह कहना कि वे फ़ासिस्ट लोग हैं, सांप्रदायिक हैं – ऐसे सारे आरोप बेबुनियाद हैं. देश के हित में ली जाने वाली किसी भी कार्ययोजना में वे लोग किसी से पीछे नहीं हैं. उन लोगों पर ऐसे आरोप लगाना उन पर कीचड़ फेंकने के नीच प्रयास मात्र हैं.” . जेपी के आन्दोलन में संघ की भूमिका का जिक्र करते हुए सुप्रसिद्ध समाचार पत्र ‘दि इकोनोमिस्ट‘ लन्दन, दिनांक 4 दिसंबर, 1976 के अंक में लिखता है, ” आरएसएस विश्व का अकेला गैर-वामपंथी क्रांतिकारी संगठन है.

अपनी ही बात को दोहराते हुए 3 नवंबर 1977 को पटना में संघ के लिए जेपी ने कहा था कि नए भारत के निर्माण की चुनौती को स्वीकार किये हुए इस क्रांतिकारी संगठन से मुझे बहुत कुछ आशा है. आपने उर्जा है,आपमें निष्ठा है और आप राष्ट्र के प्रति समर्पित हैं ! अब बड़ा सवाल है कि अगर वाकई घटनाओं के सिलसिलेवार वर्णन के आधार पर यदि जेपी को समझने का प्रयास किया जा रहा हो तो इतने महत्वपूर्ण और जेपी के जीवन के अंतिम दिनों के घटनाओं पर पर्दा डाल कर भला जेपी को कैसे समझा जा सकता है ? मेरा अपना तर्क है कि जेपी रूसी मार्क्सवादी क्रान्ति से प्रभावित होकर शुरुआत किये और फिर उन्हें सत्य अहिंसा के गाँधी दर्शन का सानिध्य मिला ! समाजवाद ने जेपी को आजाद भारत के जनता से जोड़ा जो कि सरकार से असंतुष्ट हो रही थी ! लेकिन इस सच को कतई खारिज नहीं किया जा सकता कि अपने अंतिम समय में जेपी राष्ट्रवादी हो लिए थे और राष्ट्रवाद के मूल्यों पर ही जेपी ने इंदिरा गाँधी गद्दी छोड़ो की बुनियाद पर “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” का नारा दिया ! सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन के दौर में भारतीय जनसंघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेताओं-कार्यकर्ताओं के समर्पण, ईमानदारी और निष्ठा को जेपी ने करीब से देखा परिणामत: अनेक कार्यकर्ताओं को महत्वपूर्ण दायित्व भी सौपे थे. संघ-परिवार से जुड़े ये कार्यकर्ता जेपी की अपेक्षाओं पर सदैव खरे उतरे. जेपी के नेतृत्व में चल रहे छात्र एवं युवा संघर्ष वाहिनी‘ के राष्ट्रीय संयोजक एबीबीपी के नेता और दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष अरुण जेटली बनाए गए थे. दुसरी तरफ आपातकाल में सरकारी आतंक के खिलाफ जनजागरण हेतु बनी ‘लोक संघर्ष समिति‘ का महामंत्री जेपी ने संघ के प्रचारक और प्रसिद्ध जनसंघ नेता नाना जी देशमुख को बनाया था. जेपी साम्प्राद्यिकता के सदा खिलाफ रहे और उनको यह मानने में कभी गुरेज नहीं हुआ कि संघ अथवा जनसंघ एक राष्ट्रवादी संगठन है ना कि साम्प्रदायिक संगठन है ! अत: जेपी का जीवन बिना उनके जनसंघ के संबंधों के कभी पूरा नहीं हो सकता ! आज समय है कि हम बीच के तिराहे पर नहीं खड़े हो सकते बल्कि हमें जेपी को केन्द्र में रख कर ये तय करना ही होगा कि संघ फासीवादी है अथवा जेपी फासीवादी थे ? या इसके इतर ये सोचना होगा कि संघ और जेपी तो अपनी जगह सही हैं बल्कि हम ही बुनियादी तर्कों की सच्चाई पर पर्दा डाल कर तमाम कुतर्क गढ़ रहे है ! जेपी के जीवन का यह महत्वपूर्ण हिस्सा भी उस कॉलम में लिखा जाना चाहिए था जो जाने क्यों लेखक ने छुपा लिया !