कश्मीर में नरम पड़ते कट्टरपंथी

प्रमोद भार्गव

क्या वाकई कश्मीर में कट्टरपंथी नरम व सद्भाव का आचरण प्रदर्शन करने वाले हैं ? हुर्रियत कांफ्रेंस के कट्टरपंथी गुट के अध्यक्ष सैय्यद अली शाह गिलानी का कश्मीर में विस्थापित पंडितों को आमंत्रण देने संबंधी बयान से तो यही संकेत मिलता है। गिलानी ने केंद्र व राज्य सरकार के उस सुझाव को भी दरकिनार किया है, जिसमें विस्थापति कश्मीरी पंडितों के लिए अलग से सुरक्षित क्षेत्र बनाने की पहल की गई है। यही नहीं गिलानी ने अपने अंतर्मन की पीड़ा को शब्द देते हुए यहां तक कहा, कि पंडितों को वादी में अलग आवासीय बस्ती बनाकर देने से तो यह अर्थ निकलेगा कि सरकार दोनों समुदायों को गुटों में बांटकर राजनीतिक खेल खेलना चाहती है। ऐसा होता है तो इससे कटुता के पैगाम का विस्तार होगा। हम चाहते हैं पंडित भाई दो दशक पहले की तरह समरसता और समभाव के माहौल में रहें। वे अपने उन्हीं गांवों, कस्बों और शहरें मे ंरहें, जहां के वे पुश्तैनी बासिंदे हैं। गिलानी के मुताबिक आप भले ही घाटी में अल्पसंख्यक हैं, लेकिन आप हमारे बंधु हैं। लेकिन इस बयान को तबजजो देते हुए क्या उमर अब्दुल्ला सरकार विस्थापित पंडितों को कश्मीर में बसाने की रूचि लेते हुए उनके पुनर्वास की सकारात्मक पहल करेगी, इसमें थोड़ा अंदेशा है ?

पंडितों के विस्थापन के दो दशक बाद किसी कट्टरपंथी गुट के मुखिया का शायद यह पहला बयान है जिसने पंडितों से कश्मीर में वापिसी की मार्मिक अपील की है। अन्यथा अब तक नासूर खत्म करने के जितने भी उपाय सामने आए हैं उनमें अलगाववाद को पुष्ट करने, कश्मीर को और अधिक स्वायत्ताता देने और पंडितों के लिए केंद्र शासित अलग से ‘पनुन कश्मीर’ राज्य बना देने के प्रावधान ही सामने आए हैं। एक संप्रभुता वाले राष्ट्र-राज्य की संकल्पना वाले नागरिक समाज में न तो ऐसे प्रस्तावों से पंडितों की समस्याएं हल होने वाली हैं और न ही कश्मीर का धर्मनिरपेक्ष चरित्र बहाल होने वाला है, जो भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा है।

1990 में शुरू हुए पाक प्रायोजित आतंकवाद के चलते घाटी से कश्मीर के मूल सांस्कृतिक चरित्र के प्रतीक कश्मीरी पंडितों को बेदखल करने की सुनियोजित साजिश रची गई थी। इस्लामी कट्टरपंथियों का मूल मकसद घाटी को हिन्दुओं से विहीन कर देना था, इस मंशापूर्ति में वे सफल भी रहे देखते-देखते वादी से हिन्दुओं का पलायन शुरू हो गया और वे अपने ही पुश्तैनी राज्य में शरणार्थी बना दिए गए। पूरे जम्मू-कश्मीर में करीब 45 लाख कश्मीरी पंडित हैं, जिनमें से 7 लाख से भी ज्यादा विस्थापन का दंश झेल रहे हैं।

कश्मीर की महिला शासक कोटा रानी पर लिखे मदन मोहन शर्मा ‘शाही’ के प्रसिध्द ऐतिहासिक उपन्यास ‘कोटा रानी’ पर गौर करें तो बिना किसी अतिरिक्त आहट के शांति और सद्भाव का वातावरण विकसित हुआ। प्राचीन काल में कश्मीर संस्कृत, सनातन धर्म और बौध्द शिक्षा का उत्कृष्ठ केंद्र था। ‘नीलमत पुराण’ और कल्हण रचित ‘राजतरंगिनी’ में कश्मीर के उद्भव के भी किस्से हैं। कश्यप ऋषि ने इस सुंदर वादी की खोज कर मानव बसाहटों का सिलसिला शुरू किया था। कश्यप पुत्र नील इस प्रांत के पहले राजा थे। कश्मीर में यहीं से अनुशासित शासन व्यवस्था की बुनियाद पड़ी। 14 वीं सदी तक यहां शैव और बौध्द मतों ने प्रभाव बनाए रखा। इस समय तक कश्मीर को काशी, नालंदा और पाटली पुत्र के बाद विद्या व ज्ञान का प्रमुख केंद्र माना जाता था। कश्मीरी पंडितों में ऋषि परंपरा और सूफी संप्रदाय साथ-साथ परवान चढ़े। लेकिन यही वह समय था जब इस्लाम कश्मीर का प्रमुख धर्म बन गया।

सिंध पर सातवीं शताबदी में अरबियों ने हमला कर और उसे कब्जा लिया। सिंध के राजा दाहिर के पुत्र जयसिंह ने भागकर कश्मीर में शरण ली। तब यहां की शासिका रानी कोटा थीं। कोटा रानी के आत्म-बलिदान के बाद पार्शिया से आए इस्लाम के प्रचारक शाह मीर ने कश्मीर का राजकाज संभाला। यहीं से जबरन धर्म परिवर्तन करते हुए कश्मीर का इस्लामीकरण शुरू हुआ। जिस पर आज तक स्थायी विराम नहीं लगा है। विस्थापित पंडितों के घरों पर स्थानीय मुसलमानों का कब्जा है। इन्हें निष्कासित किए बिना भी पंडितों की वापिसी मुश्किल है।

कश्मीर घाटी में लाखों विस्थापितों का संगठन हिन्दुओं के लिए अलग से पनुन कश्मीर राज्य बनाने की मांग उठाता चला आ रहा है। हालांकि पनुन कश्मीर के संयोजक डॉ. अग्नि शेखर पृथक राज्य की बजाय घाटी के विस्थापित समुदाय की सुरक्षित वापिसी की मांग अर्से से कर रहा है। जायज भी यही है। गिलानी ने भी इसी सुर में सुर मिलाया है। हाल ही में नौकरी के बहाने तकरीबन 350 युवक व युवतियों की घाटी में वापिसी भी हुई है। यदि उमर अब्दुल्ला सरकार इनका पुश्तैनी घरों में पुनर्वास करने की मंशा जताती है तो वाकई कश्मीर के अभिन्न अंग विस्थापित हिन्दुओं के लौटने की उम्मीद बढ़ सकती है। उमर सरकार को गिलानी के मत से सहमति जताने की जरूरत है।

लेकिन दुर्भाग्य से उमर सरकार जब से कश्मीर में वजूद में आई है तब से वह ऐसी काई राजनीतिक इच्छा-शक्ति जताती नहीं दिखी, जिससे विस्थापितों के पुनार्वास का मार्ग सरल होता। केंद्र सरकार द्वारा 25 अप्रैल 2008 को हिन्दुओं के पुनर्वास और रोजगार हेतु 1618.40 करोड़ रूपए मंजूर किए गये थे, किंतु राज्य सरकार ने इस राशि का कतई उपयोग नहीं किया। इस राशि को खर्च न किए जाने के सिलसिले में उमर अब्दुल्ला का बहाना है कि अमरनाथ यात्रा के लिए जो भूमि आंदोलन चला था, उस वजह से आवास और रोजगार के कार्यों को आगे नहीं बढ़ाया जा सका। लेकिन अब कश्मीर में कमोबेश शांति है और कट्टरपंथी भी नरमी दिखा रहे हैं। यह एक ऐसा सुनहरा अवसर है जिसका लाभ उठाकर उमर यदि हिन्दुओं के पुनर्वास की पहल करते हैं तो घाटी में समरसता का वातावरण बनेगा और अपने ही राज्य में विस्थापितों की अलग बस्ती बना देने के कलंक से भी राज्य सरकार बची रहेगी।

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