
कब छलकि जाय मन की गगरी, कौन जानता;
वो डाल डाल पात पात, हमको नचाता !
सम्बंध गाढ़े और हलके, समय ढ़ालता;
अनुभव कराके नये नये, चित्त रचाता !
भोजन का भेद आत्मशोध, विचारों को शुध;
दो व्यक्तियों को विलग करा, वो ही मिलाता !
क्या होगा वक़्त बाद, कहाँ इंसान जानता;
संस्कार भोग हमरे करा, हमको बदलता !
मात्रा अहं की औ महत की, वो ही है सुधता;‘
मधु’ को प्रभु के पास लिये, वो ही है चलता !
✍? गोपाल बघेल ‘मधु’