कैकई का राष्ट्रहित

“कोशलोनाम मुदित, स्फीतो जनपदो महान।

निविश्टः सरयू तीरे, प्रभूत धनधान्यवान ॥”

प्राचीन काल में कोशल जनपद की महत्ता का वर्णन वाल्मीकि रामायण के उक्त श्लोक से स्वतः सिद्ध हो जाती है। ऐसे महान जनपद में राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखने वाली महान समरांगणी एवं अद्वितीय बुद्धिमती माता कैकेयी ने आसन्न महासंकट का अनुभव करते हुए जो अप्रत्याशित निर्णय लिया वह माता कैकेयी के जीवन को कलंकित करते हुए भी कोशल जनपद की मर्यादा एवं यशोगाथा को उस स्तर पर ले जाने में समर्थ हो गयी जिसे आज भारतीय जनमानस ही नहीं अन्तर्राश्ट्रीय हिन्दू जनमानस आत्मविभोर होकर श्रवण एवं ग्रहण करती है।

लंकापति रावण के विश्वविजय की कामना एवं विस्तार को देखते हुए किसी भी राष्ट्र के लिए चिन्तित होना स्वाभाविक था। दक्षिणी भारत में अपनी औपनिवेशिक सत्ता को बनाने में सफल लंका की उत्तरी औपनिवेशिक सीमा कौशल प्रदो की दक्षिणी सीमा को छूने लगी थी। रक्ष संस्कृति का व्यापक प्रचार प्रसार आर्य संस्कृति को निरन्तर हानि पहुंचा रहा था। ऐसे में आर्य संस्कृति के समस्त ऋिश मुनियों की आस्था कोशल राज्य के प्रति समर्पित होने लगी, जो कि स्वाभाविक थी। पिचमोत्तर सीमा पर अवस्थित कैकेय प्रदो से कैकेयी को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर महाराजा दारथ पिचमी सीमा को मजबूत कर चुके थे। सौमित्रदो से सुमित्रा को अपनी पत्नी बनाकर उस मजबूती को और भी सुदृ़ बना दिया था। राजा जनक एवं अंगराज की पुत्रियो से राम, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न के विवाह से पूर्वी सीमा भी अनुरक्षित हो गयी। अब दक्षिण की तरफ प्रयाण करने का उपयुक्त अवसर था।

परन्तु प्रनथा, माहाराजा दाशरथ के वृद्घावस्था को देखते हुए प्रथमतः राज्याभिशक हेतु ज्येश्ठ पुत्र रामचन्द्र जी का राजतिलक किया जाये तत्पचात युद्ध हेतु रणनीति तैयार की जाये।

राजतिलक की तैयारी प्रारम्भ होती है परन्तु दूरदाीर एवं रणनीति की कुाल पुरोधा ने मन्थरा की मन्त्रणा से यह निचत किया कि यदि रामचन्द्र जी राज्य संचालन के चक्र में फंस जायेंगे तो अपनी सम्पूर्ण भाक्ति से लंकापति रावण के साम्राज्य को विनश्ट करने में संभवतः सक्षम न हों। विवमित्र के साथ वनगमन के समय रास्ते में विवामित्र ने बला और अतिबला नामक प्रसिद्ध मंत्र समुदाय को श्रीराम एवं लक्ष्मण को प्रदान किया था जैसा कि वाल्मीकि रामायण के 23वें सर्ग का 13 वां भलोक है

“मन्त्र ग्रामं गृहाण त्वं बलामतिबलां तथा ’’

ताड़का वध के पश्चात प्रसन्न होकर विवामित्र ने प्रसन्नतापूर्वक सभी प्रकार के अस्त्र श्री राम लक्ष्मण को प्रदान किये थे, जैसा कि वाल्मीकि रामायण में उल्लिखित है

“परितुस्टोस्मि भद्रं ते राजपुत्र महायाः ।

प्रीत्या परमया युक्तो ददाम्यस्राणि सर्वाः ॥ “

ये प्रदत्त दिव्य अस्त्र हैं दण्डचक्र, धर्मचक्र कालचक्र, विश्णुचक्र, एैन्द्रचक्र, वज्रास्व, त्रिूल, ब्रह्मसिर, ऐशीकास्त्र, ब्रह्मास्त्र, मोदकी, िखरी गदा, धर्मपा, कालपा, वरूणपा, आनि, पिनाक, नारायणास्त्र, अग्नेयास्त्र, कायव्यास्र, हयिरा, क्रौंचअस्त्र, कंकाल, घोरभूल, कपाल, किंकसी, नन्दनअस्त्र, सम्मोहन अस्त्र, प्रस्वापन, प्रामन, सौम्य अस्त्र, वर्पण, शोशण, संतापन, विलापन, मादन, मानवास्त्र, मोहनास्त्र, तामस, महावली, सौशन, संवर्त, दुर्जय, मौसल, सत्य, मायामय अस्त्र, तेजःप्रभ अस्त्र, िरअस्त्र, दारूण अस्त्र, भयंकर अस्त्र, शीतेशु अस्त्र, सत्यवान, सत्यकीर्ति, घृश्ट, रभस, प्रतिहारतर, प्रांगमुख, अवांगमुख, लक्ष्य, अलक्ष्य, दृ़नाभ, सुनाभ, दाक्ष, शत्वक्त्र, दाीशर्, भातोदर, पद्मनाभः, महानाभ, दुदुनाभ, स्वनाभ, ज्योतिश, शकुन, नैरास्य, विमल, यौगंधर, विनिद, भाुचिबाहु, महाबाहु, निश्कलि, विरूच, सार्चिमाली, धृतिमाली, वृत्तिमान, रूचिर, पित्र्य, सौमनस, विधूत, मकर, परवीर, रति, धन, धान्य, कामरूप, कामरूचि, मोह, आवरण, जृम्भक, सर्पनाभ, पन्थान, और वरूण।

राज्य तिलक से एक दिवस पूर्व तक आनन्द से आपूरित कैकेयी अचानक राष्ट्रहित के चिन्तन में डूबती हैं और मंथरा से एक लम्बी मंत्रणा, ह्रदय एवं मस्तिश्क के परस्पर द्वन्द के पश्चात कैकेयी इस निर्णय को लेने में दृ़ प्रतिज्ञ हो जाती हैं कि राष्ट्र के लिए व्यक्तिगत जीवन में कलंक लेना कहीं अधिक श्रेयस्कर है। कैकेयी पिचमोत्तर सीमा के उस प्रदो की पुत्री थी जो सदैव आक्रान्ताओं से भयभीत रहा है और जहां सैन्यनीति एवं कूटनीति सदैव अंग रही है। यही कारण है कि देवासुर संग्राम में रानी कैकेयी को राजा दारथ के साथ उनकी रक्षा करते हुए हम पाते हैं। कैकेयी को यह स्पश्ट था सभी अस्त्रों शस्त्रों का महान ज्ञाता रावण को आसानी से रणभूमि में परास्त नहीं किया जा सकता है। वाल्मीकि रामायण में बीसवें सर्ग के 22 वें भलोक में स्पश्ट है

“देवदानव गन्धर्वो यथा पतगपन्नगः

न शक्ता रावणं सोदुंकिं पुनर्भावना युधि ’’

युद्ध में रावण का वेग तो देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, गरूण और नाग भी नहीं हरा सकते फिर मनुश्यों की तो बात ही क्या है ?

कैकेयी को यह भी स्पश्ट था कि भरत और शत्रुघ्न को उन भाक्तियों एवं विद्याओं का ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ है जो रावण को परास्त करने में सक्षम हो सके। विवामित्र द्वारा श्री राम लक्ष्मण को अपने साथ ले जाकर उन्हें अनेकानेक विद्या एवं अस्त्रों से परिपूर्ण कर ताड़का का वध करवाना, मारीच पर भाीतेशु मानवास्त्र का आक्रमण कराना, सुबाहु पर अग्नेयास्त्र का प्रयोग कर उसका प्राणान्त करवाने का लाघव वह देख चुकी थीं। रावण की मजबूत सैन्य व्यवस्था एवं औपनिवोिक विस्तार को देखकर कैकेयी ने मन्थरा की मंत्रणा से अपूर्व रणनीति का खाका तैयार कर लिया।

महाराजा दारथ श्रीराम के प्रेम में विह्वल रहते हैं एवं राज्याभिशोक के लिए तत्पर हैं। यदि मात्र रणकौशल के आधार पर राज्याभिशोक न करने का कथन किया गया तो निचत रूप से कोई भी स्वीकार न करेंगे। दक्षिणापथ के दुर्गम एवं वनाच्छादित क्षेत्र में जब तक गुप्त रूप से रहकर वहां के निवासियों के ह्रदय में स्थान न बना लिया जाये एवं क्षेत्र की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर ली जाये तथा वहां के सैन्य महारथियां को जब तक साथ में न ले लिया जाये तब तक रावण पर विजयश्री प्राप्त करना संभव नहीं है। यदि राम को राज्याभिशोक कराकर सीधेसीधे युद्ध संचालन की कार्यवाही की जाये तो रावण जैसे महान योद्घा से युद्ध में जनधन की महान हानि के उपरान्त भी विजयश्री प्राप्त कर पाना निचत नहीं है। खर, दूशण, त्रिसिरा (सेनापति) एवं सूर्पणखा जो रूप बदलने में पारंगत हैं, दण्डकराण्य में रह रही हैं तथा जो अपनी सेना के साथ पूरे दण्डकराण्य में उत्पात मचाये हुए हैं।

भरत एवं शत्रुघ्न चूंकि विवामित्र के साथ वनगमन को नहीं गये थे जिस कारण उन्हें उन सैन्य कलाओं का ज्ञान नहीं है जो विवामित्र के पास हैं। ऐसी स्थिति में सदा राम को सबसे अधिक प्यार करने वाली माता कैकेयी अप्रिय निर्णय लेकर कुमाता हो गयी परन्तु इस राष्ट्र की नारी राष्ट्र की अस्मिता के लिए अपनी अस्मिता को दांव पर लगाने के लिए सदैव तत्पर रहती है जो परम्परा आज भी भारत राष्ट्र की गौरव है। कैकेयी ने देवासुर संग्राम के दोनों देय वरदानों में बहुत चातुर्यपूर्ण तरीके से जो वर मांगा वह सर्वविदित है

(1) भरत का राज्याभिशोक। (2) श्रीराम को चौदह वशर का वनवास।

भरत का राज्याभिशोक मांगना क्या आवयक था ? जी हां आवयक था। श्री राम का राज्याभिशोक घोशित हो चुका था, दारथ अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर थे। राजगद्दी को लम्बे समय तक रिक्त रखना राजहित में नहीं था। कैकेयी यदि केवल श्री राम के वनगमन का वरदान मांगती तो प्रन उठता आखिर श्री राम को वन भेजने के पीछे कैकेयी की मां क्या थी ? यदि कैकेयी का कोई स्वार्थ नहीं है तो श्री राम को वनवास क्यों ? ऐसे में कुटिल स्वार्थी जैसे कलंक को लेना ही कैकेयी को सर्वथा उचित जान पड़ा और सबसे पहले भरत का राज्याभिशोक मांगा तत्पचात श्री राम को वनवास क्योंकि मात्र राज्याभिशोक की मांग से कैकयी का उद्देय कदापि न पूर्ण होता जो कोशल राष्ट्र का भविश्य सुरक्षित करता। श्री राम का वनवास राजा रूप में नहीं मांगा गया क्योंकि गुप्त रूप से रहकर ही उस दक्षिण प्रदो की भौगोलिक स्थिति को समझा जा सकता था तथा वहां के लोगों में अपने मृदुभाव से उन्हें अपने पक्ष में खड़ा किया जा सकता है। यही कारण है कि जब कैकेयी वरदान मांगती हैं तो कहती हैं

“सुनहु प्रानप्रिय भावत जीका, देहु एक वर भरतहिं टीका

मांगहु दूसर वर कर जोरी, पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी

तापस वेश विसेश उदासी, चौदह वरसु राम वनवासी ”

– श्री रामचरित मानस

अर्थात तपस्वी के वेश में उदासी के साथ श्री राम चौदह वर्ष वनवास में रहे। अपने ऊपर समस्त लांछन को लेते हुए, अपने प्रिय के मृत्यु का आघात सहते हुए, वैधव्य का कलंक लेते हुए, राष्ट्रहित की चिन्ता करते हुए कैकयी ने इतिहास रचना का वह दुश्कर कार्य कर दिखाया जो तत्समय में संभव नहीं दिख रहा था। धन्य है ऐसे दो की मातायें जो व्यक्तिगत जीवन को कलंकित कर राष्ट्र एवं कुल की मर्यादा को अक्षुण्य रखती हैं। धन्य है ऐसा राष्ट्र जो ऐसे वीरांगनाओं को जन्म देती है और धन्य हैं, कि ऐसे राष्ट्र की मिट्टी में उत्पन्न होने का हमें सौभाग्य मिला।

– जगदम्बा प्रसाद गुप्ता

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