कल्याण दौड में भी आदिवासी बेचैन क्यों?

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 ललित गर्ग

राजधानी दिल्ली में आदिवासी जनजीवन से जुड़ी संस्कृति का आदि महोत्सव का भव्य आयोजन हुआ। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने 27 राज्यों के आदिवासियों की संस्कृति, जीवनशैली और भोजन की विविधता का प्रदर्शन करने वाले इस महोत्सव का उद्घाटन किया। एक तरफ सरकार आदिवासी जनजीवन के लिये बेहतर जीवन देने, उनके अधिकारों की रक्षा और उनके विकास के लिए कृतसंकल्प होने का दावा कर रही है, वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं गृहमंत्री के गृहराज्य गुजरात में आदिवासी अपने अधिकारों को लेकर आन्दोलनरत है। न केवल गुजरात बल्कि पडौसी राज्य मध्य प्रदेश के विभिन्न हिस्सों से आदिवासी हुंकार यात्रा एवं भोपाल में महारैली होना और झारखंड जैसे आदिवासी समझे जाने वाले राज्य में विधानसभा चुनाव की तैयारियां के दौरान भी आदिवासी जनजीवन के विरोध के स्वर दिखाई दे रहे हैं। आखिर यह विरोधाभास क्यों है? क्या सरकार की कथनी और करनी में व्यापक खाइयां है? क्या आज भी आदिवासी कोरे वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल होने को विवश है? कब आदिवासी समस्या मुक्त जीवन जी पाएंगे?
एक तरफ आदिवासी इन ज्वलंत प्रश्नों के समाधान की आस लगाए है तो दूसरी ओर सरकारें आदिवासी कल्याण के लिये अपनी प्रतिबद्धता की बात दोहरा रही है। अगर गृहमंत्री अमित शाह के दावों पर यकीन किया जाए तो देश में भारतीय जनता पार्टी ने आदिवासियों की विधिवत परवाह की है और उन्हें अपने भविष्य को लेकर किसी प्रकार की चिंता से ग्रस्त नहीं होना चाहिए। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अनेक अवसरों पर आदिवासी कल्याण एवं उन्नत जीवन के संकल्प को दोहराया है और अनेक बहुआयामी योजनाएं शुरु की है। फिर प्रश्न है कि क्या कांग्रेस पार्टी ने आदिवासियों को वोट बैंक के लिए इस्तेमाल किया? इस बात पर कांग्रेस पार्टी का दावा है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आदिवासियों के लिए पंचशील सिद्धांत लागू किया और पांचवीं अनसूची के तहत आदिवासियों की संस्कृति और संसाधन की सुरक्षा की व्यवस्था की। इंदिरा गांधी ने बंधुआ मजदूरी समाप्त की और बाद में कांग्रेसी सरकारों ने संविधान में 73वें संशोधन के तहत पंचायती राज की व्यवस्था लागू की, ऐसा कानून बनाया और 2006 में वन अधिकार कानून बनाया। दूसरी ओर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने पहली बार 1999 में देश में आदिवासी मामलों का मंत्रालय बनाया और मौजूदा मोदी सरकार उनके लिए उजाला, शिक्षा और घर की योजना के तहत ऐसा काम कर रही है जो उन्हें बेहतर जीवन देने और उनके विकास के लिए कृतसंकल्प है। फिर प्रश्न है कि दोनों ही मुख्य पार्टियों ने जब आदिवासी जनजीवन के उन्नयन एवं उत्थान के लिये व्यापक प्रयत्न किये हैं तो फिर आदिवासी असंतुष्ट एवं बेचैन क्यों है?
आदिवासियों के असंतोष के कारण का खुलासा अमित शाह ने ही कर दिया कि आदिवासियों की आबादी सिर्फ 8 फीसदी है और फैलाव देश के 40 फीसदी भूभाग पर। भारत में लगभग 25 प्रतिशत वन क्षेत्र है, इसके अधिकांश हिस्से में आदिवासी समुदाय रहता है। लगभग नब्बे प्रतिशत खनिज सम्पदा, प्रमुख औषधियां एवं मूल्यवान खाद्य पदार्थ इन्हीं आदिवासी क्षेत्रों में हैं। यह वह इलाका है जहां पर 71 प्रतिशत जंगल है, 92 प्रतिशत कोयला है, 92 प्रतिशत बाॅक्साइट है, 98 प्रतिशत लोहा है, 100 प्रतिशत यूरेनियम है, 85 प्रतिशत तांबा और 70 प्रतिशत जलस्रोत भी उन्हीं आदिवासी क्षेत्रों में है। भारत के उद्योगों के लिए 80 प्रतिशत कच्चा माल भी उन्हीं इलाकों से आता है। विडंबना यह है कि इसमें से सिर्फ 10 प्रतिशत जमीन पर आदिवासियों का मालिकाना हक है। असली संघर्ष औद्योगिक और पूंजीवादी विकास और आदिवासी अस्तित्व के बीच है। आदिवासी अपना अस्तित्व चाहते हैं और आधुनिक विकास अपने लिए उनके संसाधन। आदिवासियों के असंतोष एवं आक्रोश के अन्य कारण भी है। जैसे कि सन् 1956 से लेकर 2017 तक के समय में गुजरात के सौराष्ट्र के गिर, वरडा एवं आलेच के जंगलों में रहने वाले भरवाड, चारण, रबारी एवं सिद्धि मुस्लिमों को इनके संगठनों के दवाब में आकर गलत तरीकों से आदिवासी बनाकर उन्हें आदिवासी जाति के प्रमाण-पत्र दिये गये हैं और उन्हें आदिवासी सूची में शामिल कर दिया गया है। यह पूरी प्रक्रिया बिल्कुल गलत, असंवैधानिक एवं गैर आदिवासी जातियों को लाभ पहुंचाने की कुचेष्टा है, जिससे मूल आदिवासियों के अधिकारों का हनन हुआ है, उन्हें नौकरियों एवं अन्य सुविधाओं से वंचित होना पर रहा है। गुजरात में ही असंतोष का कारण एक और भी है कि छोटा उदयपुर संसदीय क्षेत्र के आदिवासी राठवा जाति को सरकारी आंकड़ों में कोली शब्द लिखे जाने से उनके आदिवासी अस्तित्व को नुकसान हो रहा है। इस प्रांत में राठवा जाति के आदिवासी लोगों को कोली के रूप में मान्य किये जाने से इस प्रांत के आठ से दस लाख आदिवासी समुदाय का अस्तित्व खतरे में हैं। वर्तमान में रेवन्यू रिकार्ड में राठवा को सरकारी कर्मचारियों की भूल के कारण मात्र कोली शब्द लिख देने से उनके आदिवासी होने की पहचान को खतरा उपस्थित हो गया है। इस कारण इस क्षेत्र के आदिवासी नाराज है, उनकी सरकारी नौकरियों पर खतरा है, अन्य सुविधाओं से भी उन्हें वंचित होना पड़ रहा है। जबकि स्वतंत्रता आन्दोलन में इस समाज की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आज भी जब भी जरूरत होती है, यह समाज देश के लिये हर तरह का बलिदान देने को तत्पर रहता है। फिर क्या कारण है कि इस जीवंत एवं मुख्य समाज को आदिवासी की मूल धारा से काटने के प्रयास निरन्तर किये जा रहे हैं। आजादी के बाद बनी सभी सरकारों ने इस समाज की उपेक्षा की है। आदिवासियों की ताजा बेचैनी का कारण 2006 के वन अधिकार कानून के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई भी है। इसमें केंद्र सरकार की ओर से पैरवी में ढिलाई के चलते ही एक करोड़ आदिवासियों के लिए 13 फरवरी 2019 को बेदखली का आदेश पारित हो गया था। बाद में जब देश भर से गुहार लगी तो स्थगनादेश जारी हुआ। इस तरह यह आदिवासी समाज अनेक समस्याओं से घिरा है। हजारों वर्षों से जंगलों और पहाड़ी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों को हमेशा से दबाया और कुचला जाता रहा है जिससे उनकी जिन्दगी अभावग्रस्त एवं समस्याओं में ही रही है। केंद्र सरकार आदिवासियों के नाम पर हर साल हजारों करोड़ों रुपए का प्रावधान बजट में करती है। इसके बाद भी उनकी आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आया है। स्वास्थ्य सुविधाएं, पीने का साफ पानी आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए वे आज भी तरस रहे हैं।
 जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों को अपनी भूमि से बहुत लगाव होता है, उनकी जमीन बहुत उपजाऊ होती हंै, उनकी माटी एक तरह से सोना उगलती है। जनसंख्या वृद्धि के कारण भूमि की मांग में वृद्धि हुई है। इसीलिये आदिवासी क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों एवं उनकी जमीन पर विकासवादी ताकते एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नजर है। कम्पनियों ने आदिवासी क्षेत्रों में घुसपैठ की है जिससे भूमि अधिग्रहण काफी हुआ है। आदिवासियों की जमीन पर अब वे खुद मकान बना कर रह रहे हैं, बड़े कारखाने एवं उद्योग स्थापित कर रहे हैं, कृषि के साथ-साथ वे यहाँ व्यवसाय भी कर रहे हैं। भूमि हस्तांतरण एक मुख्य कारण है जिससे आज आदिवासियों की आर्थिक स्थिति दयनीय हुई है। माना जाता है कि यही कंपनियां आदिवासी क्षेत्रों में युवाओं को तरह-तरह के प्रलोभन लेकर उन्हें गुमराह कर रही है, अपनी जड़ों से कटने को विवश कर रही है। उनका धर्मान्तरण किया जा रहा है। उन्हें राष्ट्र-विरोधी हरकतों के लिये उकसाया जाता है।
इस तरह की स्थितियां आदिवासी समाज के अस्तित्व और उनकी पहचान के लिए खतरा बनती जा रही है। आज बड़े ही सूक्ष्म तरीके से इनकी पहचान मिटाने की व्यापक साजिश चल रही है। कतिपय राजनीतिक दल उन्हें वोट बैंक मानती है। वे भी उनको ठगने की कोशिश लगातार कर रही है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज भी विमुक्त, भटकी बंजारा जातियों की जनगणना नहीं की जाती है। तर्क यह दिया जाता है कि वे सदैव एक स्थान पर नहीं रहते। आदिवासियों की ऐसी स्थिति तब है जबकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आदिवासी को भारत का मूल निवासी माना है लेकिन आज वे अपने ही देश में परायापन, तिरस्कार, शोषण, अत्याचार, धर्मान्तरण, अशिक्षा, साम्प्रदायिकता और सामाजिक एवं प्रशासनिक दुर्दशा के शिकार हो रहे हैं। आदिवासी वर्ग की मानवीय गरिमा को प्रतिदिन तार-तार किया जा रहा है। जबकि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों और उनकी सरकारों में आदिवासियों के कल्याण की होड़ लगी है। इस होड की दौड के बावजूद आदिवासियों के भीतर बेचैनी क्यों बढ़ती जा रही हैं?

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