भारत के हर शहर में
 होती है अछूत झुग्गियाॅ 
 बसाहट से दूर 
 किसी भी सड़क के किनारे
 खास मौके पर 
 चार खूटियों और तिरपाल से 
 तन जाती है दर्जनों झुग्गियाॅ।
 ये वे अछूत झुग्गियाॅ है 
 जिनमें रहने वाले गरीब 
 दो वक्त की रोटी कमाने 
 हर शहर की गली-कूंचे में
 घरों-महलों की सजावट का
 सामान बेचते है
 और अपने परिवार के 
 पेट भरने के लिये लाते है 
 दो वक्त का आटा
 कुछ भाजी-तरकारी ।
 उन्हें पता होता है कि 
 किस शहर में 
 कब लगता है मेला
 बस वे मेले-ठेले में 
 कमाकर मनाते है दीवाली। 
 वे अछूत झुग्गीवाले है
 जिन्हें कभी किसी सरकार ने
 झुग्गियाॅ के लिये पटटा नहीं दिया
 उनकी पीड़ा को सुनने वाला
 कोई नेता नहीं होता
 कोई सरकार नहीं होती 
 वे रोये तो किसके सामने रोये
 इसलिये उन्होंने रोना-धोना छोड़
 मस्ती में जीना सीखा है। 
 महिना-दो महिना बाद
 उनकी अछूत झुग्गी को
 पंख लग जाते है 
 और वे फिर चल पड़ते है
 दूसरों शहर की ओर। 
 वे किसी शहर के वासी नहीं
 उनके पास वोटर आईडी कार्ड नहीं
 वे सड़क के किनारे 
 परदेनुमा छत के नीचे 
 शीलनदार जमीन में पैदा हुये है।
 माता-पिता से उन्हें 
 बस इतना ही पता होता है
 किस शहर में वह जन्मा है
 गरीबी का अभिश्राप 
 उन्हें पढ़नेसे दूर रखे है 
 वे अपनी अछूत झुग्गी के बाहर
 आग से तप रही धोंकनी में 
 कोयला डालना सीखने 
 हथोड़ा-घन चलाकर 
 घरों के हॅसिये-कुदाली को 
 ढ़ालने में लगे होते है
 पीव ठुठुराती ठण्ड में भी
 लोगों के हाॅठमाॅस कॅपाने से
 बचने का साधन होता है
 ये अर्धनग्न लोग 
 फटेहाल कपड़ों के बिना
 ठण्ड से पंगा लेकर जीते है।