खुलना ढोंग की परतों का!

patekar“हिंसा का जवाब हिंसा से देना उचित नहीं है। भारत-पाकिस्तान के बीच समस्याओं का जवाब युद्ध से नहीं मिलेगा। देश में ‘सर्जिकल स्ट्राईक’ के द्वारा युद्धज्वर फैलाना गलत है।” – मेधा पाटकर.
“मोदी सरकार ने दो वर्षों के अंतराल में घृणा और द्वेष का माहौल फैलाया है।…देश के सभी लोगों को मिलकर उन्हें पराजित करना होगा।” – सीताराम येचुरी

वामपंथी दलों तथा आंदोलन के दो प्रतिनिधियों के पिछले दो महिनों में ये वक्तव्य है। भारतीय सेना द्वारा सर्जिकल स्ट्राईक करने के बाद किए हुए वक्तव्य । उनसे एक विशिष्ट मानसिकता झलकती है। हमारा लाल झंडा ही अखिल मानवता का छत्र है और ‘तुच्छ’ राष्ट्रवाद एवं देशभक्ती की बात करना पाप है, यह बताने की मानसिकता। इसी विचारधारा की रेड वाईन इस देश के कई पिढ़ियों को पिलाई गई थी। वह नशा पहले 2014 में नरेंद्र मोदी के विजय से उतर गई। इस वर्ष अमेरिका में डोनाल्ड ट्र्म्प द्वारा भी विजय प्राप्त करने के बाद उसका अमल थोड़ा और कम हुआ। लेकिन नशा उतरने का अहसास होते ही इस मानसिकता ने फिर से उछाल ली है।
क्युबा के पूर्व तानाशाह फिडेल कैस्ट्रो की मृत्यू के बाद इसीलिए इन लोगों ने पुनः गर्दन उठाई। “कैस्ट्रो क्रांती का सूर्य थे, साम्यवाद का उजला तारा थे,” आदी रटे-रटाये वाक्यांश उद्धृत किए गए। येचुरी ने कहा, “कैस्ट्रो के जाने से एक युग का अंत हुआ है। लेकिन कैस्ट्रो जैसे क्रांतीकारक अमर होते है।”
क्रांती के इस सूरज ने कौन सी रोशनी फैलाई थी? एक युद्धप्रवृत्त, सत्तालालची और दबंग तानाशाह के तौर पर कैस्ट्रो को जाना जाता है। उनके जुल्मों से उकताकर लाखो क्युबन नागरिकों ने अमेरिका में शरण ली थी। फिडेल की मृत्यू की घोषणा उनके भाई आणि क्युबा के वर्तमान सत्ताधीश राऊल कॅस्ट्रो ने की, तब मायामी में रहनेवाले हजारों क्युबावासी रास्तों पर उतरे और उन्होंने आनंदोत्सव मनाया। कैस्ट्रो के मरने पर खुशी मनानेवाले लोग मनोरोगी नहीं है।
यह एक तानाशाह के दमन के विरोध में उनकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी। फ्रांस में सोलहवें लुई का शिरच्छेद किया, तब भी जनता नाची थी। हिटलर और मुसोलिनी चूहों की तरह बिल में घुसकर मरे, तब भी लोगों की खुशी फुट पड़ी थी। स्टॅलिन मरा, तब अपनी खुशी व्यक्त कर सकें ऐसा वातावरण रशिया में नहीं था। लेकिन बेरिया जैसे उसके विरोधक मुस्कुरा रहे थे। पूर्वी जर्मनी में एरिख होनेकर की सत्ता समाप्त होने पर जनता ने इसी उत्साह से दो जर्मनियों के बीच की दिवार गिरा दी थी।
मंतव्य यही है, कि तानाशाह तानाशाह ही होता है। अन्याय अन्याय ही होता है। उसमें दाया-बायां कुछ नहीं होता। लेकिन नाग की तरह ज्ञान के क्षेत्र पर कुंडली मारकर बैठे हुए वामपंथी और उनके पास अपनी बुद्धी गिरवी रखनेवाले उदारवादियों ने पिछले कई सालों से एक गुबार उठाया है, कि तानाशाह केवल हिटलर था और भारत माता की जय उसके आराधक है। इन विचारकों को अगाध आस्था होती है, कि गलती से भी बाईं ओर झुका कोई व्यक्ति अथवा व्यवस्था गलत हो ही नहीं सकती, बल्कि उस व्यक्ति अथवा व्यवस्था द्वारा की गई ज्यादती मानवकल्याण में ही होती है। वरना 50 वर्षों तक क्युबा की जनता को हाय-तोबा करने के लिए बाध्य करनेवाला तानाशाह उन्हें महान क्रांतीकारी नहीं लगता। हिटलर आदर्श है यह कहकर औरों की ओर उंगली दिखानेवालों को कभी इन लोगों के बारे गलत शब्द निकालते हुए नहीं सुना।
वास्तव में फिडेल कैस्ट्रो वामपंथी और उदारवादियों के ढोंग का जीता-जागता उदाहरण थे। उनका अनुसरण करनेवाले हमारे लालभाई भी उसी राह चलेंगे, इसमें क्या संदेह है? इसी कैस्ट्रो ने 1962 में अमेरिका पर परमाणु हमला करने का प्रस्ताव रखा था। कहते है, कि दुनिया उस समय तीसरे विश्वयुद्ध के द्वार पर खडी थी। हालांकि, वामपंथी इसे विश्व इतिहास का गौरवशाली प्रकरण मानते है। अपनी कुर्सी बचाने हेतु दुनिया को युद्ध की आग में झोंकनेवाला व्यक्ति प्रगतिशीलों का मसीहा और देश की रक्षा के लिए शत्रू देश पर हमला करनेवाला प्रधानमंत्री युद्धखोर! ये है इनके मानदंड!
कैस्ट्रो अपनी दमनकारी व्यवस्था की बागड़ोर अपने भाई को सौंपकर गए है। ‘समतावाद, क्रांती तथा सर्वहारा के मसीहा’ कैस्ट्रो ने साठ दशकों से सत्ता अपने ही घर में बंद कर रखी है। फिर भी क्रांती का तारा टूट गया है, यह कहने के लिए उदारवादी मुक्त है क्योंकि ढोंग उनके स्वभाव का भाग बना है।
कैस्ट्रो जैसे भूल-भटके संघर्षकर्ता के बहाने उस ढोंग की परतें कुछ और खुल गई, इतना ही!

– देविदास देशपांडे

1 COMMENT

  1. आपने लिखा है तानाशाह तानाशाह होता है,.अन्याय अन्याय होता है. इसमे बायां दायाँ कुछ नहीं होता.इसम हिटलर ,मुसोलिनी स्टॅलिन, माओ त्से तुंग और कुछ हद तक फिडेल कास्त्रो की भी गिनती हो जाती है. मेरे विचार से यह सत्य है.अब बात आती है है अपने देश की, यहाँ भी इंदिरा गाँधी चुनावी प्रक्रिया से आने के बावजूद ताना शाह हो गयी थी.हो सकता है,मैं गलत होऊं.पर मुझे लगने लगा है कि हम फिर से इस देश में भी तानाशाही की ओर जा रहे हैं.

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