क्या आप इन्हें पहचानते हैं?

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सुमंत विद्वांस

क्या आप इन्हें पहचानते हैं? नहीं?चलिए, मैं इनका नाम बता देता हूँ…

ये हैं श्री तुकाराम ओम्बले….क्या आपने इन्हें अब भी नहीं पहचाना?

कोई बात नहीं…आप “अजमल कसाब” को तो ज़रूर पहचानते होंगे??

बहुत अच्छे….कितने अफसोस की बात है कि इस देश में कसाब को हर कोई जानता है, लेकिन ज्यादातर लोगों ने तुकाराम ओम्बले का नाम भी नहीं सुना…आइये मैं आपको उनके बारे में कुछ बताऊँ..

26 अगस्त 2008 को जब आतंकियों ने मुंबई पर हमला किया, तो मुंबई पुलिस के सहायक सब-इन्स्पेक्टर,48 वर्षीय श्री तुकाराम ओम्बले, नाइट ड्यूटी पर थे. लेपर्ड कैफे, ओबरॉय और होटल ताज में गोलीबारी की खबरें मिलने पर मुंबई पुलिस हरकत में आ चुकी थी. ओम्बले के वरिष्ठ अधिकारियों ने उन्हें मरीन ड्राइव में पोजीशन लेने को कहा. रात लगभग 12:45 बजे, उन्हें वॉकी-टॉकी पर चेतावनी संदेश मिला कि दो आतंकियों ने एक स्कॉडा कार को हाइजैक कर लिया है और वे गिरगाँव चौपाटी की ओर बढ़ रहे हैं. कुछ ही मिनटों बाद ओम्बले ने उस कार को गुज़रते हुए देखा.

ओम्बले ने तुरंत अपनी बाइक पर सवार होकर उस कार का पीछा किया. डीबी मार्ग पुलिस थाने की के टीम चौपाटी सिग्नल पर बैरिकेड लगाने की तैयारी कर रही थी.जैसे ही वह कार सिग्नल के पास पहुंची, आतंकियों ने पुलिस टीम पर अंधा-धुंध गोलीबारी शुरू कर दी, लेकिन बैरिकेड के कारण उन्हें कार की स्पीड कम कर देनी पड़ी. अपनी बाइक पर सवार ओम्बले ने कार को ओवरटेक किया और उसके सामने आकार बाइक रोक दी, जिसके परिणामस्वरूप ड्राइवर को कार दायीं ओर मोड़नी पड़ी और वह जाकर डिवाइडर से टकरा गई. एक पल के लिए आतंकी भौंचक्के रह गए. इस बात का लाभ उठाते हुए ओम्बले उनमें से एक की ओर झपटे और अपने दोनों हाथों से उसकी एके 47 राइफल का बैरल पकड़ लिया. वह आतंकी था- अजमल कसाब. बैरल को ओम्बले की ओर घुमाते हुए कसाब ने ट्रिगर दबा दिया, जिससे ओम्बले के पेट में गोलियाँ लगीं और वे ज़मीन पर गिर पड़े. लेकिन इसके बावजूद जब तक उनमें होश बाकी था, उन्होंने बन्दूक नहीं छोड़ी.”

शायद अब आप पहचान गए होंगे कि तुकाराम ओम्बले कौन हैं? तुकाराम ओम्बले मुंबई पुलिस के उस जांबाज़ सिपाही का नाम है, जिसने अपने प्राणों की आहुति देकर हम जैसे अनेकों की जिंदगी बचाई और जिसके कारण कसाब को जीवित पकड़ा जा सका.

क्या आप जानते हैं कि आज उनका परिवार कहाँ रहता है? क्या आप जानते हैं कि उनके परिवार-जन क्या काम करते हैं?शायद ये सब सोचने-जानने की फुर्सत हममें से किसी के पास नहीं है!!

लेकिन कम से कम एक बार तुलना करके देखिए कि भारत सरकार ने ओम्बले के परिवार को आर्थिक सहायता देने के लिए और आतंकी कसाब की सुरक्षा पर कितना खर्च किया?क्या इस पर हमें शर्म महसूस नहीं होनी चाहिए?

अफसोस है कि जिस वीर का नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए था, ताकि भावी पीढियाँ उनसे प्रेरणा ले सकें, हम उनका नाम तक नहीं जानते. शहीद ओम्बले का जीवन और उनका बलिदान इस बात का प्रमाण है कि एक सामान्य व्यक्ति भी देश के लिए क्या कुछ कर सकता है.

अपनी इस अद्भुत वीरता और पराक्रम के लिए श्री तुकाराम ओम्बले को ‘अशोक-चक्र’ से सम्मानित किया गया. स्थानीय भाजपा सांसद श्री मंगल प्रभात ने ओम्बले के सम्मान में एक स्मारक भी बनवाया है, जो मुठभेड़ स्थल के निकट सड़क किनारे बना हुआ है. इस वर्ष 26 नवंबर को गिरगाँव चौपाटी पर ओम्बले की कांस्य प्रतिमा का भी अनावरण होगा.

कसाब का नाम देश के बच्चे-बच्चे को याद करवाने और उसकी हर छोटी से छोटी बात का प्रचार करने में व्यस्त मीडिया चैनलों के पास तो इतना समय नहीं है कि वे ऐसे देशभक्त बलिदानियों के बारे में देश को कुछ बताएँ. लेकिन क्या आप और हम भी इतने व्यस्त हैं कि ये जानकारी अधिक से अधिक लोगों तक शेयर करके ऐसी महान आत्माओं के प्रति अपनी श्रद्धांजलि भी अर्पित न कर सकें? आपके पास देश को देने के लिए कुछ और हो न हो, पर आप कम से कम इस लेख को शेयर तो कर ही सकते हैं न? तो ज़रूर कीजिए….वंदे मातरम!

5 COMMENTS

  1. खुश किस्मती से मैं श्री तुकाराम ओम्बले का नाम भी जानता हूँ और उनके बहादुरी से इस कारनामे से भी परिचित हूँ.यह भी सही है कि उक्त घटना के पहले मैंने इस बहादुर जाबांज का नाम नहीं सुना था.मैं आप के स्वर में स्वर मिला कर यही कह सकता हूँ कि उस जाबांज के लिए जो किया गया ,उससे बहुत ज्यादा करने की आवश्कता है,खासकर उसके परिवार के लिए,जिससे भविष्य में यदि कोई देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए आगे बढे तो उसके दिल में यह ख्याल भी नहीं आये कि उसके बाद उसके परिवार का क्या होगा?

  2. सुमंत जी आप ने इस छोटे लेख से कई स्मृतियाँ जगा दी|
    जो देश अपने देशभक्त वीरों को भूलता है, वह अभागा ही माना जाएगा| हम ऐसे ही अभागे हैं|
    तुकाराम ओम्बले और उनके के परिवार के विषय में भी जानकारी हमें कम ही है|
    सचमें हम अभागे ही है|

  3. किसी पुलिस अफसर के लिए एक निर्दोष साध्वी के उपर झुठा आतंकवाद का आरोप लगाकर प्रताडीत करना आसान होता है । लेकिन जब असली दहशतगर्द आतंकवादी से आमना-सामना होता है तब उसकी बहादुरी की असली परीक्षा होती है । तुकाराम बहादुर सिपाही थे|

  4. मुझे लगता है कि लेख में हमले कि तिथि गलत दी हुयी है, 26 अगस्त की जगह 26नवंबर होना चाहिए.

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